क्यों जरूरी है हर विषयों पर लिखना… 

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मनोज कुमार

एक दौर था जब जवानी इश्क में डूबी होती थी लेकिन एक यह दौर है जहाँ जवानी लेखन में डूबी हुई है. विषय की समझ हो या ना हो, लिखने का सऊर हो या ना हो लेकिन लिखना है, वह भी बिना तथ्य और तर्क के. ऐसे लेखकों की बड़ी फौज तैयार हो गई है जिसे हर विषय पर लिखना शगल हो गया है. जिन्हेंं अपने शहर के बारे में नहीं मालूम, जिन्होंने कभी इतिहास के पन्ने नहीं पलटे, वे सारे के सारे विषय विशेषज्ञ हो गए हैं. उन्हें शायद बात का भी भान नहीं है कि वे ऐसा करके अपना और अपने देश भारत वर्ष का कितना नुकसान कर रहे हैं. हालिया भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय कलमवीरों ने सारी हदें पार कर लिखना शुरू कर दिया. अखबारों के सम्पादकों की समझ बड़ी है तो उन्हें पता था कि अखबारों में जगह नहीं मिलेगी सो सोशल मीडिया पर टूट पड़े. आधी-अधूरी और अधकचरी जानकारी लेकर सौ-पचास शब्दों की टिप्पणी करने लगे. ऐसा लिखने वाले कुपढ़ लोगों को इस बात का भी भान नहीं था कि इससे देश और समाज को कितना नुकसान होगा लेकिन विशेषज्ञता झाडऩे के चक्कर में और सोशल मीडिया की स्वच्छंदता ने इन्हें बेलाग बना दिया था.

हैरानी ही नहीं, खतरनाक बात है कि जिन विषयों, खासकर रक्षा जैसे विषयों पर क्या जरूरत है लिखने की? क्यों हम बेताब हो रहे हैं लिखने के लिए. जबकि इन्हें यह भी नहीं मालूम की दो देशों के मध्य युद्ध की स्थिति कब बनती है? सेना की रणनीति कभी उजागर नहीं होती है और ना ही सरकार किस नीति पर कार्य योजना तैयार कर रही है, यह आम आदमी को पता ही नहीं होता है. इधर और उधर के खेल में मनचाहे ढंग से लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है. यह सब बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है. बार बार यह चेताये जाने के बाद कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी अधिकृत जानकारी पर ही भरोसा करें लेकिन ये हैं कि मानते ही नहीं. अच्छा होता कि ये सारे लोग स्वयं पर नियंत्रण रखते और सेना और सरकार को उनका कार्य करने देते लेकिन ऐसा नहीं किया गया. युद्ध भूमि में ही जाना देशभक्ति नहीं है बल्कि समाज में शांति और शुचिता बनाये रखने में भी अपना योगदान देकर देशभक्ति की जा सकती है. इन लोगोंंं के कारण सरकार पर अतिरिक्त दबाव है. समाज की शांति ना बिगड़े इसके लिए एक बड़ा अमला सोशल मीडिया की निगरानी के लिए तैनात करना पड़ा है. सोशल मीडिया पर नजर रखी जा रही है कि कोई भी ऐसी पोस्ट करने वालों के खिलाफ कार्यवाही की जाए. यदि ये लोग स्वयं को नियंत्रित कर लेते तो सरकार पर अनावश्यक ना दबाव होता और ना ही इस निगरानी पर अतिरिक्त बजट खर्च करना पड़ता. यह गैर जिम्मेदारी लेखन भी एक तरह का अपराध है.

अभिव्यक्ति की आजादी है लेकिन ऐसे मुद्दों पर खामोश रहना ही बेहतर होता. बल्कि यह भी होना चाहिए था कि ऐसा कोई कर रहा है, सोच रहा है तो उसे रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए. जब सत्ता पक्ष और विपक्ष देश की सुरक्षा के लिए, सम्मान के लिए साथ हैं तो आपको क्या चूल मची है कि लिखते जाओ. मीडिया की भूमिका के बारे में कुछ कहना बेकार ही अपना ऊर्जा खर्च करना होगा. जिस तरह से मनगढंत खबरें दिखायी जा रही थीं, उससे आम आदमी के मन में धारणा गलत बन रही थी. आखिरकार सेना और सरकार की चेतावनी के बाद कुछ सम्हले लेकिन कब सम्हले रहेंगे, यह कहना मुश्किल है. टीआरपी की होड़ ने इन्हें भी बेलगाम कर दिया था. 

बिना समझे-बूझे और विषय की जानकारी के बिना गैर-जिम्मेदारी से लिखने की यह बीमारी समाज ने कोविड के दरम्यान भी देखा है. चंूकि उस समय हर व्यक्ति इस बात से भयभीत था कि जाने कब कोविड उन्हें घेर ले तो वह कभी कभी चुप्पी साध लेता था लेकिन तब भी वह गैरजिम्मेदारी लेखन से बाज नहीं आया. डॉक्टर और पुलिस के साथ जिम्मेदार मीडिया हर पल की खबर दे रहा था लेकिन कोविड के इंजेक्शन और दवाईयों को लेकर बेखौफ लिखा जा रहा था. कोविड ने कितनों को मौत की नींद सुला दिया और कितनों को श्माशान में जगह मयस्सर नहीं हुई, इस पर घर बैठे खबर लिखने वालों की कमी नहीं थी. यह गैर जिम्मेदाराना लेखन हर बार देखा जाता है. चूंकि सोशल मीडिया पर किसी का नियंत्रण नहीं है तो ऐसे कृत्य करने वालों की भरमार हो जाती है. एक किसी साहब ने सोशल मीडिया पर लिखा कि युद्ध में जाने के लिए कौन-कौन तैयार हैं लेकिन इन साहब ने यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि वे अब तक घर पर क्यों हैं? क्यों उन्होंने रणभूमि में जाना स्वीकार नहीं किया. मध्यप्रदेश के ट्रक संचालकों ने सरकार से अनुरोध किया कि ऐसे वक्त में उनकी जरूरत है तो वे तैयार हैं. इस पर एक बुद्धिजीवि ने लिखा कि हम हैं तैयार. यह समझना मुश्किल था कि वे ट्रक संचालकों का हौसला बढ़ा रहे हैं या स्वयं ट्रक लेकर सेना की मदद के लिए जाने की बात कर रहे हैं. अफसोस कि ऐसे लोगों की संख्या बेशुमार है.

अभिव्यक्ति की आजादी है तो आप सम-सामयिक मुद्दों पर लिखिए. स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, किसान, महिलाएं, अपराध जैसे हजारों विषय है, इस पर लिखिए. कुछ गलत भी लिख दिया तो बहुत कुछ बिगड़ेगा नहीं लेकिन आपकी बुद्धि का खुलासा हो जाएगा. दरअसल ये जो तथाकथित लेखक हैं वे तर्क के साथ, तथ्यों के साथ नहीं लिख रहे हैं बल्कि उनका हथियार कुर्तक है. इनमें से ज्यादत को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि 2025 के पहले युद्ध कब हुआ था? क्यों हुआ था और उसका परिणाम क्या निकला? इस बात पर भी बहस चल पड़ी है कि कौन सा शासक वजनदार था. इस सवाल को उठाने के पहले वे यह भूल जाते हैं कि समय और स्थिति के अनुरूप निर्णय लेना होता है. हाँ, इस बात से इंकार नहीं कि उस दौर का फैसला आज के लिए मिसाल है तो इस दौर के फैसले के परिणाम की प्रतीक्षा तो कीजिए. लेकिन हमारे पास संयम नहीं है. हम बेताब होकर जल्दबाजी में हर फैसला सुना देना चाहते हैं. ऐसा सवाल करने वाले और मिसाल देने वाले तथा गैरजिम्मेदाराना टिप्पणी करने वालों में कोई फर्क नहीं. बेहतर होगा कि हम सब एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका का निर्वाह करें. देश और समाज को मजबूत बनायें और सरकार को बेवजह मुसीबत में ना डालें. हम सब यह कर लेते हैं तो यह भी देशभक्ति की जीवंत मिसाल होगी.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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