किताबों से फूटती हिंसा

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shootingसंदर्भ :- अमेरिका में छात्र ने की शिक्षक की हत्या

प्रमोद भार्गव

यह सच्चार्इ कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिर में पढ़ार्इ जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत भी लिखेंगी ? लेकिन हैरत में डालने वाली बात है कि यह हृदयविदारक घटना एक हकीकत बन चुकी है। देश के महानगर और शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाने वाले देश अमेरिका में एक 12 वर्षीय नाबालिग छात्र ने अपने ही शिक्षक  की गोली मारकर  हत्या कर दी। नबालिक होने के कारण  छात्र का नाम गोपनीय रखा गया है। अमेरिका में बंदूक संस्कृति को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है,इसलिए वहां पाठशालाओं में हिंसा का वातावरण गाहे-बगाहे निर्मित होता रहता है। पिछले साल ही कनेकिटकट के स्कूल में हुर्इ गोलीबारी में 20 छात्रों समेत 26 लोग मारे गए थे। जिसके बाद बंदूक संस्कृति पर लगाम लगाने को लेकर अंदोलन भी हुए,लेकिन हथियार निर्माता कंपनियों के आगे ओबामा सरकार ने घुटने टेक दिए। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन हिंसक घटनाओं के बावजूद भारत के रहनुमा विदेशी शिक्षा और संस्कृति को श्रेष्ठ मानते हुए इनका विस्तार भारत में करने में लगे हुए है,नतीजतन हमारे यहां भी विद्या के पवित्र मंदिरों में हिंसक घटनाओं की संख्या बढ़ रही हैं।

पिछले साल चैन्नर्इ में कक्षा 11 के 15 वर्षीय छात्र मोहम्मद इरफान ने हिंदी की शिक्षिका उमा श्रीवास्तव की चाकू घोंपकर हत्या कर दी थी। इसके पहले वैश्विक संस्कृति की आदर्श श्रेणी में आ चुके और साइबर सिटी का मुहाबरा बन चुके दिल्ली से सटे शहर गुड़गांव में भी आधुनिक शिक्षा की यही दुष्परिणति देखने में आर्इ थी। जहां के कुलीन बच्चों को विद्यार्जन कराने वाले यूरो इंटरनेशनल स्कूल के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले दो छात्रों ने अपने ही सहपाठी की छाती, गोलियों से छलनी कर दी  थी। इसी तरह की एक घटना दिल्ली की है, जहां चोर सिपाही का खेल खेल रहे एक 12 साल के बच्चें ने सचमुच की पिस्तौल को खिलौना समझकर उसे अपने ही पड़ोस के एक दोस्त पर दाग दिया। नतीजतन बच्चे की मौत हो गर्इ थी। एक और घटना उत्तर-प्रदेश  के सहारनपुर के एक गांव की है जहां 11 वीं के एक छात्र ने अध्यापक की डांट से बौख्लाकर उनके पेट में छुरा घोंप दिया था। उत्तर-प्रदेश के ही खुर्जा में एक छात्र ने छोटी सी बात पर अपने एक सहपाठी का कान काट खाया था और कटे कान को रास्ते में ही उगल दिया था। ये घटनाएं उस बर्बर, वीभत्स और निरंकुश संस्कृति की देन हैं, जिसने नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को रौंदकर बेतहाशा दौलत कमार्इ और  नव धनाढयों के वर्ग में शामिल हो गया। और अब आपराधिक कृत्यों को अंजाम देकर जिनका अहंकार तुष्ट हो रहा है। इस तरह की पनप रही हिंसक मानसिकता के लिए हमारी कानून व्यवस्था भी दोषी है। क्योंकि धन के बूते अभिभावक ऐन-केन-प्रकारेण बच्चों को कानूनी शिकंजे से बचा लेते हैं।

विद्यालयों में छात्र हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएं पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला है। हालांकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहां पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं।

 

आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहां बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी हैं। आज साहितियक शिक्षा पाठयक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है, जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐेसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बाल-मनों में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करने के साथ सामाजिक विषंगतियों से परिचत कराते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विषंगतियों को दूर करने के कोमल भाव भी बालमनों में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएं (जीवनियां) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा कोर्इ पाठयक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ार्इ जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।

 

भूमण्डलीयकरण के आर्थिक उदारवादी दौर में हम बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते कि संचार तकनीक और र्इंधन रसायनों का जाल बिछाए जाने की बुनियाद रखने वाले धीरूभार्इ अंबानी एक कम पढ़े लिखे एवं साधारण व्यक्ति थे। वे पेट्रोल पंप पर वाहनों में पेट्रोल डालने का मामूली काम करते थे। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने अपने व्यवसाय की शुरूआत मात्र दस हजार रूपए की  छोटी-सी रकम से की थी और आज अपनी व्यावसायिक दक्षता के चलते अरबों का कारोबार कर रहे हैं। दुनिया में कम्प्यूटर के सबसे बड़े उधोगपति बिल गेटस पढ़ने में औसत दर्जे के छात्र थे ? इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता के संपादक रहे प्रभाष जोशी मात्र 10 वीं तक पढ़े थे। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव भी कम पढ़े लिखे है। कामयाब लोगों के शुरूआती संघर्ष को पाठयक्रमों में स्थान दिया जाए तो पढ़ार्इ में औसत हैसियत रखने वाले या कमजोर छात्र भी हीनता-बोध की उन ग्रंथियों से मुक्त रहेंग जो अवचेतन में क्षोभ, अवसाद और संवेदनहीनता के बीज अनजाने में ही बो देती है और छात्र तनाव व अवसाद के दौर में विवेक खोकर हत्या, आत्महत्या अथवा बलात्कार जैसे गंभीर आपराधिक कारनामे कर डालते हैं। वैसे भी सफल एवं भिन्न पहचान बनाने के लिए व्यक्तित्व में दृढ़, इच्छाशकित और कठोर परिश्रम की जरूरत होती है, जिसका पाठ केवल कामयाब लोगों की जीवनियों से ही सीखा जा सकता है।

यूपीए सरकार ने शिक्षा में पर्याप्त सुधार के लिए उत्तम स्तर के छह हजार विद्यालय और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों को श्रेष्ठ ज्ञान-विज्ञान से दीक्षित करने हेतु चौदह सौ महाविद्यालय खोले हैं। शिक्षा को व्यवसाय का दर्जा देकर निजी क्षेत्र के हवाले छोड़कर हमने बड़ी भूल की है। ये प्रयास शिक्षा में समानता के लिहाज से बेमानी हैं। क्योंकि ऐसे ही विरोधाभासी व एकांगी प्रयासों से समाज में आर्थिक विषमता बढ़ी है। यदि ऐसे प्रयासों को और बढ़ावा दिया गया तो विषमता की यह खार्इ और बढ़ेगी ? जबकि इस खार्इ को पाटने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो शिक्षा केवल धन से हासिल करने का हथियार रह जाएगी। जिसके परिणाम कालांतर में और भी घातक व विस्फोटक होंगे। समाज में सवर्ण, पिछड़े, आदिवासी व दलितों के बीच आर्थिक व सामाजिक मतभेद बढ़ेंगे जो वर्ग संघर्ष के हालातों को आक्रामक व हिंसक बनाएंगे। यदि शिक्षा के समान अवसर बिना किसी जातीय, वर्गीय व आर्थिक भेद के सर्वसुलभ होते हैं तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के प्रति चेतना, संवेदनशीलता और पारस्परिक सहयोग व समर्पण वाले सहअसितत्व का बोध पनपेगा, जो सामाजिक न्याय और सामाजिक संरचना को सिथर बनाए रखने का कारक बनेगा।

वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चे आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरकारी साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आंगन में विकृत रूप लेने लगा है, जो बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले काटर्ून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखार्इ देते हैं और बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो गेम खेलने के लिए तीन सौ रूपए नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखार्इ जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशासिय एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।

सबसे ज्यादा नकारात्मक बात यह है कि हमने न तो पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान को उपयोगी माना और न ही शिक्षा के सिलसिले में महात्मा गांधी व गिजुभार्इ बधेका जैसे शिक्षाशासित्रयों के मूल्यों को तरजीह दी। शिक्षा आयोगों की नसीहतों को भी आज तक अमल में नहीं लाया गया। अभी भी यदि हम वैशिवक संस्कृति और अंग्रेजी शिक्षा के मोह से उन्मुक्त नहीं होते तो शिक्षा परिसरों में हिंसा, हत्या, आत्महत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं में और इजाफा होगा ? इनसे निजात पाना है तो जरूरी है कि तनावपूर्ण स्थितियों में सामंजस्य बिठाने, महत्वाकांक्षा को तुष्ट करने और चुनौतियों से सामना करने के कौशल को शैक्षिक पाठयक्रम में शामिल किया जाए और गांधी व गिजुभार्इ के सिद्धांतों को शिक्षा का मानक माना जाए। गुरूजन भी अकादमिक उपलबिधयों के साथ बाल मनोविज्ञान का पाठ पढ़ें ? इसे भक्त कवि सूरदास की कृष्ण की बाल लीलाओं से भी सीखा जा सकता है। जिससे शिक्षक बालकों के चेहरे पर उभरने वाले भावों से अंतर्मन खंगालने में दक्ष हो सकें ? और समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कोर्इ सार्थक पहल कर सकें ?

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