क्या जेपी, कर्पूरी,लोहिया के मिशन को पूरा करेगा ? मोदी का भय…….*

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 डॉ अजय खेमरिया

                फिरोजाबाद की सभा मे सुश्री मायावती ने सपा कार्यकर्ताओं की नारेबाजी से तंग आकर अपना भाषण दो बार रोका फिर नसीहत भी दे दी कि सपा के लोग बसपा के लोगो से सीखे उन्हें अभी बहुत कुछ सीखना है।सवाल बड़ा है क्योंकि सपा के ये उत्साही लोग कभी अखिलेश, मुलायम, शिवपाल से नही डटे है फिर वे मायावती से सीख ले?हद तो यह है कि सपा की हुल्लड़ ब्रिगेड बसपा के कार्यकर्ताओं से भी तमीज सीखें…. कल्पना कीजिये 25 साल से जो लोग बसपा के साथ दुश्मन भाव से राजनीति मे सक्रिय रहे वे गांव मोहल्ले में उन्ही से अदब,तमीज सीखने जाएं….!अगर ऐसा हो जाये तो यह भारत मे अद्वितीय सामाजिक राजनीतिक परिघटना होगी यूपी बिहार के जिस जातीय जहर को जेपी,कर्पूरी ठाकुर, लोहिया,लालू, मुलायम,जनेश्वर मिश्रा जैसे स्वनामधन्य लोग नही मिटा पाए उसे अखिलेश यादव अपनी इस नई राजनीति से कमतर करने में सफल होंगे?अगर ऐसा हो जाये तो मोदी रोको अभियान की यह वास्तविक सार्थकता होगी क्योंकि जिस जातीय राजनीति का उदभव सामाजिक न्याय के नाम पर इन राज्यों में हुआ है जो कैडर जातीय बैर भाव की जमीन पर वयस्क हुआ है उसका लोकव्यवहार बदल जाये ये अजूबे से कम है क्या?यह सही है कि मायावती हिंदुस्तान में अलग किस्म की नेता है भले उनको लोकसभा में एक भी सीट नही मिली पर 2014 में उनकी पार्टी वोट के मामले में 3नम्बर की पार्टी थी यह हमें नही भूलना चाहिये वे जब भाषण देती है तो हजारों की भीड़ जो उनके कैडर के लोग ही होते है उनका पढ़े जाने वाला भाषण पूरे अनुशासन के साथ सुनते है उनकी विलासिता की जिंदगी को लोग ऐसे स्वीकार करते है जैसे हिन्दू देवी देवताओं के राजवतार को ।उनका वोट वास्तव में बैंक ही है क्योंकि वे इस पर सर्वाधिकार रखती है और कई मौकों पर उन्होंने ट्रांसफर करके दिखाया है लेकिन क्या सपा के कार्यकर्ता और वोटर इतनी आसानी से बसपा के पक्ष में ट्रांसफर हो सकते है ?खासकर तब जब वे खड़े ही मायावती की खिलाफत में हो उनकी पहचान ही माया के विरोध की हो ?अखिलेश यादव के लिये मायावती को अतिशय सम्मान देना इसलिए आसान है क्योंकि वे बड़ी भूमिका में है उन्होंने गली,गांव,मोहल्लों की जिंदगी जी नही है वे कार्यकर्ता नही सीधे नेता बनकर सपा में स्थापित हुए है लेकिन बुनियादी प्रश्न समाज के निचले स्तर पर कार्यरत उन कार्यकर्ताओं के मनोविज्ञान का है जो बर्षो तक एक वर्ग संघर्ष का उपकरण बना रहा है सैफई घराने की आन बान शान के लिये।संभव है यह गठबंधन जिस उद्देश्य के लिये बना है उसमें काफी कुछ सीमा तक सफल हो जाये लेकिन चुनावी जीत का यह युग्म आगे का सफर तय कर पायेगा?खासकर जब 3 साल बाद विधानसभा चुनाव आयेंगे क्योंकि दिल्ली की गद्दी का सत्ता का मैदानी स्तर पर कोई सीधा रिश्ता राजनीतिक रूप से असर नही दिखाता है लेकिन भारत मे राजनीति का असल मायना तो विधायकी ही होता है यह सर्वविदित सुस्थापित तथ्य है वहां 38 -38 का फार्मूला कितना टिक पायेगा ?वैसे मुलायम सिंह की इस बात में दम है कि समझौता कर अखिलेश ने सपा को आधा तो पहले ही कर दिया है यह भी तथ्य है कि 2012 में अकेले सपा ने ही बसपा की सरकार की बेदखल किया था।खैर आज इस गठबंधन के साथ साथ व्यक्ति निष्ठ राजनीति के लिये भी मोदी ने परीक्षा के लिये खड़ा कर दिया है देखना होगा कि 23 मई को प्रतिमाओं का मण्डन होता है या विखण्डन।।

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