दुलीचंद कालीरमन
अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच कतर की राजधानी दोहा में शांति समझौते पर 29 फरवरी 2020 को हस्ताक्षर किए गए। समझौते पर अमेरिकी वार्ताकार जलमय खलीलजाद तथा तालिबान के उपनेता मुल्ला बिरादर ने हस्ताक्षर किए। इस समय अमेरिका और तालिबान के प्रतिनिधियों के अलावा लगभग 30 देशों के प्रतिनिधि भी वहां पर उपस्थित थे। भारत के प्रतिनिधि के रूप में कतर में भारतीय राजनयिक पी. कुमारन भी समारोह में मौजूद थे। अमेरिकी वार्ताकार जलमय खलीलजाद ने तालिबान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। जलमय खलीलजाद अफगानी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं तथा इससे पहले अफगानिस्तान तथा इराक में अमेरिकी राजदूत भी रह चुके हैं। अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच इससे पहले कई दौर की वार्ताएं हो चुकी थी।10 मार्च को अमेरिका और तालिबान के बीच नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में दोबारा बैठक होने की संभावना है, जिसमें आगे की रणनीति पर चर्चा हो सकती है।
रणनीतिक तौर पर यह तालिबान की जीत है। क्योंकि इस समझौते से अमेरिका के साथ मुख्य वार्ताकार तालिबानी थे। जिन्हें अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हो गई है। अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार को मुख्य भूमिका में नहीं रखा गया है। अमेरिका समझौते के मुताबिक अगले 2 से 3 महीने में अपनी सेनाओं की संख्या को मौजूदा 14000 से घटाकर 8600 कर देगा तथा अगले 14 महीने में अपनी समस्त सेनाओं को अफगानिस्तान से निकाल लेगा। इस समझौते को अगले 135 दिनों में लागू किया जाएगा। अफगानिस्तान में स्थित तालिबानी नेतृत्व ने अमेरिका को इस बात का विश्वास दिलाया है कि उसकी भूमि से आईएसआईएस तथा अलकायदा जैसे कट्टर इस्लामी आतंकवादी संगठनों द्वारा अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के खिलाफ कोई हमला नहीं किया जाएगा। लेकिन अभी तक यह साफ नहीं है कि अमेरिका के सहयोगियों में भारत का भी नाम है या नहीं।
आशंका जताई जा रही है कि मध्य पूर्व के देशों में इस्लामिक स्टेट और अल कायदा की हार के बाद उनके लड़ाकों के लिए अफगानिस्तान एक सुरक्षित पनाहगाह बन सकता है। जिससे वहां शांति की सभी संभावनाएं कुचली जा सकती है। इसके साथ-साथ इस क्षेत्र में फैली वहाबी-विचारधारा की कट्टरता भी इसमें सबसे बड़ा खतरा है। जिसको समय-समय पर पाकिस्तान से वैचारिक खाद-पानी मिलता रहता है। अफगानिस्तान की लगभग सारी युवा आबादी ने जब से होंश संभाला है, तब से अपने देश में हिंसा और तबाही ही देखी है।
अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते में विश्वास बहाली के लिए इस समझौते के 10 मार्च 2020 से शुरू होने से पहले अफगानिस्तान की सरकार द्वारा 5000 तालिबानी लड़ाकों को रिहा किया जाना था। इसके बदले में तालिबान द्वारा लगभग 1000 अफगानी सैनिकों को रिहा किया जाना था। लेकिन समझौते के वास्तविक रूप में अमल से पहले ही एक मार्च 2020 को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा तालिबान लड़ाकों को छोड़ने से मना कर दिया गया।
डोनाल्ड ट्रंप अपने चुनावी घोषणा पत्र के कारण अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान के चंगुल से निकालना चाह रहा है। इराक की तरह अफगानिस्तान में तैनात ज़्यादातर अमेरिकी सैनिक अमेरिका के दक्षिणी छोर के निवासी हैं। जिनकी राजनीतिक ताकत ज्यादा है और यह क्षेत्र रिपब्लिक पार्टी का गढ़ माना जाता है। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति अपनी विस्तारवादी नीतियों के कारण दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों और देशों में अपने सैनिकों को भेजते रहे हैं। जबकि वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने सैनिकों की वैश्विक तैनाती को अमेरिका के नागरिकों पर अनावश्यक कर का बोझ मानते हैं। अमेरिका वर्ष 2001 से अफगानिस्तान में युद्ध पर 778 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है, जिसमें 44 बिलीयन डॉलर पुनर्निर्माण के कार्य में खर्च किए गए हैं। अभी भी अफगानिस्तान में 14000 अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। 19 वर्ष लंबे इस युद्ध में अमेरिका के 2300 सैनिकों की शहादत हुई है तथा 20660 सैनिक घायल हुए हैं। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2009 के बाद से ही लगभग एक लाख अफगानी नागरिक भी युद्ध लंबे युद्ध में मारे जा चुके हैं।
तालिबान के हक्कानी गुट के उपनेता रियाजुद्दीन हक्कानी के अनुसार अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद अफगानिस्तान में राजनीतिक व्यवस्था कायम करने की दिशा में ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिसमे हर अफगानी की हिस्सेदारी हो। अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग लिया जाएगा तथा अमेरिका की भी भूमिका हो सकती है। लेकिन तालिबान के इस हृदय परिवर्तन पर कोई भी देश विश्वास नहीं कर पा रहा है। अफगानिस्तान में राष्ट्रपति असरफ गनी के खिलाफ चुनाव लड़ चुके अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह और राष्ट्रपति असरफ गनीके बीच राजनीतिक मतभेद भी जगजाहिर हैं। अफगानिस्तान के चुनाव आयोग को नकार चुके अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह और जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम मिलकर एक समानांतर सरकार के गठन का ऐलान कर चुके हैं।
गौरतलब है कि जब से यह शांति समझौता हुआ है। उसके बाद भी तालिबान द्वारा अफगानी सेना पर हमला किया जा चुका है। जिसके जवाब में अमेरिकी सेनाओं द्वारा तालिबान के ठिकानों पर एयर स्ट्राइक कि गई। तालिबान द्वारा काबुल में एक राजनीतिक रैली में हमला करके 27 शियाओं की हत्या कर दी गई। ऐसे वातावरण में इस शांति समझौते पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो चुके। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या पठान, उजबेक, पश्तून, हजारा और ताजिक मिलकर अफगानिस्तान को एक देश के रूप में एकता स्थापित कर पाएंगे या फिर सत्ता की सियासी जंग शुरू हो जाएगी। जिससे अफगानिस्तान का पुराना रिश्ता और इतिहास भी रहा है।अफगानिस्तान अगर अबकी बार इस मौके को गंवा देता है तो वह निरंतर बदलती दुनिया में बहुत पीछे छूट जाएगा।
अमेरिका अफगानिस्तान की वर्तमान परिस्थितियों में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका चाहता है। एक अनुमान के अनुसार भारत से सैन्य टुकड़ी अफगानिस्तान भेजी जा सकती है। जिसे अफगान सैन्य बलों को प्रशिक्षण देने का महत्वपूर्ण कार्य किया जा सकता है।अगर ऐसा होता है तो यह भारत के बढ़ते आत्मविश्वास का परिचायक होगा। लेकिन अति आत्मविश्वास के भी अपने खतरे हैं। शांति सेना के रूप में भारतीय सेना का प्रयोग हो सकता है। लेकिन अगर स्थिति किन्ही कारणों से संघर्ष तक पहुंची तो स्थानीय जनता विदेशी सेना के खिलाफ हो जाती है, जिसकी अपने खतरे हैं। भारत को ऐसी स्थिति से बचना होगा। क्योंकि हम अपने हाथ लंका में एलटीटीई के विरुद्ध पहले ही जला चुके हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने अपनी संसद में कहा कि भारतीय सेनाओं को अफगानिस्तान में किसी भी सूरत में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। क्योंकि पाकिस्तान नहीं चाहता कि भारत की अफगानिस्तान में कोई भूमिका हो।
भारत अभी तक युद्ध से जर्जर अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण के लिए 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च कर चुका है। जिसमें अफगानिस्तान की संसद, सड़कें,नदियों पर पुलों का निर्माण तथा अस्पतालों का निर्माण शामिल है।अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए अमेरिका और तालिबान में हुए समझौते को लेकर भारत ने खुशी जाहिर की है विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में अफगानिस्तान में शांति सुरक्षा और स्थायित्व लाने के प्रयासों का समर्थन किया है भारत ने कहा है कि पड़ोसी होने के नाते हम आगे भी सरकार और अफगानिस्तान के लोगों का समर्थन करते रहेंगे।
दुलीचंद कालीरमन