गंवई गंवार की प्रतीति आत्मगंध की अनुभूति

– हृदयनारायण दीक्षित

गांव की अपनी सुरभि है, अपनी गंध है। गंवई-गंवार की अपनी प्रतीति है और आत्मगंध की अपनी अनुभूति है। गांवों से बाहर जाती और सांझ समय खेतों से लौटती गायों की पदचाप से उठी धूलि गंध देवों को भी प्रिय है। गांव में गेंदा है, चमेली है, रातरानी है, गुलाब हैं तथा गेंहूं, जौ के भी पुष्प हैं। इन सबकी भीनी पुष्प गंध है। आम्र मंजरियों की रसगंध है, महुआ रस की महदोश गंध है। चाची, नानी, भौजाई के रिश्तों की प्रीति गंध है। बड़ो के प्रणाम की रीति गंध है। नवरात्रि, सत्यनारायण कथा और विवाह मुंडन पर आयोजित हवन की देव गंध है। भजन कीर्तन नौटंकी की गंधर्व गंध है। हाड़तोड़ श्रम तप के पसीने की मानुषगंध है। प्रकृति नर्तन की नृत्यगंध है। लोक गीतों की छंद गंध है। गांव गंध सुगंध का हहराता दिव्य लोक है। यही लोक आत्मगंध की अनुभूति बनकर परमतत्व को रसो वै सः – इस रूप अनुभव करता है। स्मृतिकार बोधायन ने ठीक ही कहा था कि शहरवासी को धर्म, अर्थ, काम भले ही मिल जाय लेकिन उसे मोक्ष नहीं मिल सकता। मैं ठेठ गांव वाला हूँ, गंवई हूँ, गंवई गंध से लैस हूँ गंवार हूँ। गंवई गंध गंवार में।

मेरा जन्म हुआ। हमारे होने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। मैं 18, मई 1946 को भूलोक में आया। ऋतुराज बसंत और होली की मस्ती का स्पंदन मुझे मां के माध्यम से गर्भ में मिला होगा। चैत्र का नवसंवत्सर और वैशाख का महीना, परिवार में मेरे आगमन की प्रतीक्षा बना। ज्येष्ठ का ताप शनिवार का दिन और मूल नक्षत्र मेरी जन्मकुंडली में बैठ गये। पछुवा गरम हवा बड़े बड़ों को झुलसाती है। मरुद्गण मानौ अग्निरथ पर चलते हैं। वे अवनि-अंबर खौलाते हैं। मैं इसी माह इसी हवा में उगा। ज्येष्ठ के सूरज में प्रीतिकर तुलसी के पौधे भी झुलस जाते हैं। कनेर खिलने के प्रयास में मुरझा कर झर जाते हैं। लेकिन नीम खिलती है, नव पत्र पुष्प धारण करती है, फलों-फूलों से लद जाती है। बेला गुदगुदाता है। चमेली उकसाती है। आम बौराते हैं, महकाते हैं, गदराते हैं, अल्हड़ खुशियाली में कुछ समय के पहले भी पक जाते हैं। महुआ मदन रस टपकाते हैं। पछुवा और महुआ का मिलन अनूठा है। पछुवा की लू लपट कोयल को भी उकसाती है। वह सामवेद गाने लगती है और अनहद उद्गीथ ‘ओउंकार’ ध्वनि की तरह लू लपट को सरस बनाती है। पूरी प्रकृति अहैतुक गतिशील है। प्रकृति में स्वतः स्फूर्त सभवन की चिरंतन आत्मऊर्जा है।

मुझे अपने गांव के रूप, रस, गंध, अंतरंग में रमते हुए ऋग्वेद के जमाने के गांव के वर्णन याद आते हैं। गांव एक एकात्म परिवार थे। ऋग्वेद काल में वर्ण या जाति नहीं थे। उत्तर वैदिक काल में वर्णो का विकास हुआ। फिर श्रम के विशिष्टीकरण से ‘कर्म आधारित समूह’ बने, बाद में वे ही जन्मना होकर जाति बन गये। हमारे गांव में भी जाति भेद का विभाजन था लेकिन जातियां समरसता की डोर में थीं। प्रत्येक गांव का अपना जीवमान व्यक्तित्व था। पूरा गांव समवेत उत्सवों मे खिलता था और दुख मे एक साथ दुखी था। हमारा गांव प्रकृति की गोद में है। यहां सूर्य का तेजस् और चंद्रमा का मधुरस विभु और व्यापक है। ऋग्वेद में सूर्योदय के पहले ऊषा का भावुक वर्णन है – वे अप्रतिम सुंदरी हैं। सबको जगाती हैं। लेकिन गांववासी ऊषा आगमन के पहले ही जागते हैं। नगरवासी ऊषा के जगाने पर भी नहीं जागते हैं। वैदिक ऋषि भी ऊषा के पहले ही जागते रहे होंगे। जागे हुए लोग ही ऊषा काल की अरूणिमा और मधुरिमा में भावुक हुए होंगे। सविता देव तो ऊषा के बाद ही उगते हैं। प्रकृति की कार्यवाही में संविधान नहीं टूटता। पहले ऊषा फिर सूर्योदय। गंवई गंवार इस संविधान को छाती के भीतर मर्मस्थल पर धारण करते हैं। सो ऊषा के पहले ही जागरण, ऊषा का स्वागत, सूर्य को नमन फिर सतत् कर्म। मैंने अपने माँ-पिता के साथ ऊषा का आगमन और सूर्योदय का जागरण टकटकी लगाकर देखा है। गांव में दिव्यता का प्रसाद है। निर्दोष पक्षियों के कलरव हैं। छत पर, गांव के पेड़ पर पक्षी हैं। उनकी बोली गांव वालों को प्रिय है। उनके गीत छंदस् हैं। गायत्री जैसे मधुर हैं। गांव सांस्कृतिक रस में डूबी कविता हैं।

गांव की धरती माता है। गांव वाले धरती को प्रणाम करते हैं। यहां वैदिक परंपरा का निर्झर प्रवाह है। अथर्ववेद के ”भूमिसूक्त” में प्रार्थना है, ”ये ग्रामा, यदरण्यं याः सभाः- जहां गांव है, वन है, सभाएं होती हैं। हे भूमि! हम आपको प्रणाम करते हैं। (अथर्व 12.2.56) हमारे गांव में परिपूर्ण विचार स्वातांत्र्य था। बहसें थी, बकवास थे, तर्क थे, प्रतितर्क थे, कुतर्क भी थे। लेकिन मधुरता की मर्यादा थी। वेदों में मधुरता की प्यास है। अथर्ववेद में प्रार्थना है – ”यद वदामि मधुमतद्-जब भी बोले, मधुर बोलें।” ऋषियों ने मंत्रों में ग्रामीणों की सामूहिक इच्छा को ही गाया है। आसपास की नदियां मोहित करती हैं। हमारे गांव की अपनी सई नदी के प्रवाह में जीवन गति का दर्शन है। निर्मल नीर के पीछे निश्च्छल मन की धारा है। नदी में लोक मंगल की अथाह चेतना है। नदी भेदभाव नहीं करती। वह पशु, पक्षी, कीट, पतिंग, सांप, बिच्छू सबकी प्यास बुझाती है। नदी माता है। माता सबका भला चाहती है। नदी तट पर जंगल है, वनस्पतियों के झुरमुट हैं। वनस्पतियां औषधियां देती हैं। गांव की धरती ऋतंभरा है। पूरा गांव आनंद मगन है।

गांव वाले गंवई हैं लेकिन उन्हें गंवार भी कहते हैं। गंवार गांव वाले का पर्यायवाची है। गांवो का अपना संसार है, अपनी देशज संस्कृति। वे रिश्तों में डूबे हुए प्रायद्वीप हैं। गांव की परिभाषा करना सचमुच में बड़ा कठिन काम है। यहां प्रेम रस से लबालब उफनाते रिश्ते हैं, अपने होने का स्वाभिमान है, गरीबी और अभाव के बावजूद संतोष के छंद है, सबका साझा व्यक्तित्व है, संक्षेप में कहें तो प्रीतिरस की झील में रिश्तों नातों की मनतरंग नाव ही हमारे गांव हैं। दुनिया के सभी महानगर गांव वालों की उत्पादन शक्ति और श्रमशक्ति से ही बने। प्राचीन महानगरीय हड़प्पा सभ्यता के पीछे भी सिंधु सरस्वती के विशाल भूभाग में फैले गांवों की श्रमशक्ति का ही कौशल है। सभी महानगर गांववालों की कॉलोनी-उपनिवास हैं। गांव रोटी, दाल, दूध, सब्जी की गारंटी है। औद्योगिक उत्पादन की श्रमशक्ति का मूल केंद्र भी गांव ही हैं। गांवों को यों ही भारत की आत्मा नहीं कहा गया। गांव का जीवन ममता और समता में ही रमता है। यहां ईश भक्ति के साथ दर्शन का भी विविध आयामी सौंदर्य हैं। यहां आस्थावादी हैं, अंधआस्थावादी भी हैं, खांटी भौतिकवादी हैं, तो अध्यात्मवादी भी हैं।

हमारे गांव में सभी ऋतुओं की पुलक थी। मधुरस भरा बसंत था। आम्र मंजरियों की सुगंध थी। चहुं तरफा मदन रस था। जल-रस भरा सावन था। चैती थी, विरहा था, कजरी थी, रक्षा बंधन का नेह था, कजरी तीज थी, करवा चौथ थी। जगमग दीप पर्व थे। रावण दहन वाला दशहरा था। उत्तरायण/दक्षिणायन के मिलनसंधि पर मकर संक्रांति थी। सहभोज था। महाभोज था। ब्रह्मभोज था। ज्ञानदान था, दीपदान था, भूमिदान था, कन्यादान थे। बिटिया की बिदाई पर पूरा गांव रोता था, मैंने अपनी अम्मा को गांव की सभी कन्याओं के विवाह में रोते देखा है। उनका रोना-धोना सहज प्रीति का अश्रुप्रवाह था। बरात की अगवानी और स्वागत में पूरा गांव लहालोट था। नदियां माताएं थीं, नीम का पेड़ देवी था, बरगद का पेड़ देव था। पीपल का पेड़ ब्रहम था। कुलदेवता थे, चांद और सूरज भी देवता थे, ग्राम देवता भी थे। मुखिया गांव का मुख था। हमारे गांव में भी मुखिया थे। वे पुलिस-दरोगा और सरकारी अफसरों से गांव का कष्ट बताते थे। बाद में प्रधान होने लगे। गांव पंचायते सरकारी हो गयीं। चुनाव हुए तो गांव लड़ाई-झगड़े में फंस गये। अब हर माह लट्ठम्-लट्ठा है। जनतंत्र के उपवन में कांटे ही कांटे हैं, फूलों का कहीं अतापता नहीं। लेकिन गांव में सामंतवाद भी था। छूत-छात भी थी, जांत-पांत भी। पुलिस का गुंडाराज था ही। सो मैं सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष का सिपाही बना। बाद में विधायक होने लगा। मेरा जीवन जनसंघर्षो में कटा। 64 बरस का हो गया। मंत्री हुआ। सत्ता भोगी, सम्मान मिला। लेकिन पद एेंषणा नहीं मरी। वेदांत पढ़ा, सारी दुनिया का दर्शन भी। आत्मविश्लेषण करता हूँ, आत्म दर्शन में रमता हूं। प्रतिपल सक्रिय हूं। लेकिन अपने होने का वास्तविक कारण नहीं जान पाया। आत्म गंध तो मिलती है लेकिन आत्म तत्व नहीं मिलता। मैं गहन आर्तभाव में हूं। सृष्टि के कर्ताधर्ता यदि कोई हों।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

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