राजभाषा हिन्दी और संवैधानिक सीमाएं

-हरिकृष्ण निगम

क्या हमारे देश के करोड़ों हिंदी प्रेमियों को इस बात का अहसास है कि संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत हिंदी को यद्यपि संघ की राजभाषा का दर्जा मिला है, पर उसके ऊपर जो अंकुश प्रारंभ से ही लगाए गए हैं वे इसके सर्वांगीण विकास में आज भी रोड़ा बने हुए हैं। संविधान का यह दायित्व कई अर्थों में अनोखा है, आज के बदले परिदृश्य में हमारे गले नहीं उतर रहा है।

हमारे संविधान के अनुच्छेद, 343(1) के अनुसार हिंदी को राजभाषा का स्थान प्रदान किया गया है पर राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) के अनुसार संघ की राजसभा के रूप में अंग्रेजी को हमारे ऊपर अनिश्चित काल के लिए थोप दिया गया है। संसद ने न समझ में आने वाले प्रावधान को जन्म दिया जिस पर आज सहसा विश्वास नहीं होता है। जब देश के समस्त राज्यों की विधान सभाएं अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को स्वीकार करने का प्रस्ताव नहीं पारित करती हैं तब तक अंग्रेजी का प्रयोग रहेगा। क्या यह व्यावहारिक हैं, संभव हैं? आज के परिदृश्य में या किसी भी राजनीतिक संभावनाओं में ऐसा नहीं होगा यह हम जानते हैं। हम अपना मन कितना ही बहला लें कि ऐसा होगा नहीं, यह तो अनंतकाल तक संविधान द्वारा हिंदी को अंग्रेजी की अनुचरी बनाना हुआ। अनुच्छेद, 343(2) के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी 15 वर्ष की अवधि के बाद उसी सम्मान की अधिकारिणी थी जो हमारे राष्ट्रगीत और राष्ट्रीय झंडे को दिया जाता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हम भारतीय राजभाषा हिंदी के साथ-साथ दूसरी भारतीय भाषाओं के समर्थक भी हैं। क्या अब वह समय नहीं आ चुका है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को पूरी स्वीकृति मिले? सरकारी स्तर पर हिंदी के उन्नयन हेतु प्रयास जारी हैं पर क्या अंग्रेजी मीडिया के दुराग्रहों के बीच, पर्याप्त है? क्या संविधान के अनुच्छेद, 343(1) को पूरी तरह लागू करने और राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित 1967) को निरस्त कराने हेतु एक स्वर से आवाज उठाना आवश्यक नहीं है? एक ओर हम हिंदी को जनसाधारण की भाषा, आधुनिक युगबोध व समन्वय की भाषा, देश को बांधने की क्षमता रखने वाली वाणी कहते हैं पर दूसरी ओर संविधान निर्माताओं के निर्णय और मूल उद्देश्यों को भुलाकर 1967 के अधिनियम संशोधन से अपने पैरों में बेड़ियां डाल चुके हैं। मौलिक निर्णय सन 1949 में 14 सितंबर को इतिहास की आवश्यकता के रूप में लिया गया था। उसे न सामने रख कर तत्कालीन विकृत वातावरण व दबावों के कारण मात्र एक ऐसे अधिनियम में संशोधन किया गया है बल्कि उस रूप में जैसे संविधान के मूल उद्देश्य को ही नकार दिया गया हो। आज उसकी पुनर्वीक्षा की आम सहमति से जरूरत है। अनेक न्यायविदों का मत है कि राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) की व्यवस्था हमारे संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात हैं। हमारा संविधान हमारे प्रजातंत्र को सदैव दिशा-निर्देश देने के लिए हैं। पर किसी अधिनियम का एक संशोधन हमारी भावी पीढ़ियों को नहीं बांध कर रख सकता हैं। संसद का कोई भी नियम सामान्य बहुमत से पास होना चाहिए-अधिक से अधिक तीन-चौथाई बहुमत से। यह एक आश्चर्य है और अविश्वसनीय तथ्य भी है कि हमारे भाषायी संवैधानिक अधिकारों के लिए शत्-प्रतिशत विधान सभाओं के लिखित प्रस्ताव की शर्त क्यों? आगे आने वाली पीढ़ी कदाचित इसे समझ नहीं सकेगी? हिन्दी का अंग्रेजी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं से कोई बैर नहीं है पर यह भी एक क्रूर विडंबना है कि अंग्रेजी मीडिया का एक वर्ग हिंदी का उपहास उड़ाने, उसे-अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता हैं। हिंदी प्रेमी एवं राष्ट्रभक्त सदैव इस बात को रेखांकित करते रहे हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं की संप्रभुता को चोट न पहुंचे जिसका स्वयं महात्मा गांधी ने दृढ़तापूर्वक समर्थन किया था। आज जब हम मुड़कर देखते हैं तब इस बात पर विस्मय और घोर व्यथा होती है कि 25 जनवरी, 1965 को 15 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले ही राजभाषा अधिनियम 1963 के जरिए हिंदी के पर कुतर दिए गए थे और हमारा भाषायी स्वाभिमान लहूलुहान हो गया था। वह कौन-सी राजनीतिक विकृति है कि संविधान पुनर्समीक्षा की न्यूनतम अवधि 15 वर्ष देता है और हम दबावों व कुचक्रों के कारण उसके पहले ही हिंदी पर अंकुश लगा बैठे थे। हमें याद है कि इस अधिनियम के पारित होने पर लालबहादुर शास्त्री व डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी ने खुलेआम अपनी असहमति प्रकट की थी और अनेक प्रतिष्ठित लेखकों व बुध्दिजीवियों ने सरकारी अलंकरण व सम्मान ठुकरा दिए थे। आज की परिचर्चा जरूरी है कि क्या राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) को संसद द्वारा सामान्य बहुमत के बल पर निरस्त किया जा सकता है? राष्ट्रपति से देशवासी आग्रह करें कि हिंदी को उसकी मूल संवैधानिक स्वीकृति से वंचित न रखा जाए। कुछ दुराग्रही लोगों के राजनीतिक विरोध को अनदेखा करते हुए आज हमें पुनः देश की अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए व हिंदी व भारतीय भाषाओं की प्रमुखता स्थापित करने के लिए एकजुटता अनिवार्य प्रतीत होती हैं।

* लेखक वरिष्ठ स्तंभकार तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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