चीनी आक्रामकता के विरुद्ध करारा जवाब

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chinaलद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में अवैध घुसपैठ का सिलसिला जारी रखते हुए चीनी सैनिक अब उत्तराखण्ड में भी घुसे चले आए हैं। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बयान दिया है कि ‘चीनी सैनिक उस जगह तक आ गए थे, जहां वे भारत को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचा सकते थे। अच्छी बात यह रही कि उन्होंने वहां मौजूद नहर के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की।‘ साफ है, चीनी सैनिक चमौली जिले में बाराहोटी के पास तक घुस आए थे। भारत-चीन सीमा दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में 350 किलोमीटर लंबी है। इसलिए यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि कोई सीमा रेखा नहीं होने के कारण फौजी इधर-उधर इंसानी भूल के चलते भटक गए होंगे ?

किन्तु इसे गलती समझ लेना इसलिए मुमकिन नहीं है, क्योंकि चीनी फौज लद्दाख में जहां दौलता वेग ओल्डी तक चली आई थी, वहीं अरुणाचल में तो ये सैनिक कभी भी घुसपैठ कर जाते हैं। इस लिहाज से उत्तराखण्ड में घुसपैठ चिंताजनक पहलू है। दरअसल चीन दक्षिण एशिया में व्यापार और निवेष के बहाने अपनी भौगोलिक ताकत के साथ साम्राज्यवादी नीति को भी बढ़ाने का इच्छुक है। इस क्षेत्र में भारत ही एक ऐसा देश है, जो चीन की इन कूटनीतियों और विस्तारवादी मंसूबों के खिलाफ रणनीतिक जवाब देने की ताकत रखता है। इसलिए भारत को उत्तराखण्ड की इस हरकत को गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि चीन भारत को आक्रामकता दिखाकर उसकी करतूतों के बीच में नहीं आने का संकेत घुसपैठ की हरकतों से देता है।

चीन की ओर से भारत को चुनौती लगातार बढ़ रही हैं। कुछ माह पहले चीनी सैनिकों ने भारतीय लद्दाख सीमा में घुसकर तंबू गाढ़कर डेरा ही डाल दिया था। इसके बाद वह विवादित नियंत्रण रेखा पार कर अरूणाचल के चागलागम क्षेत्र में घुस आया था। भारतीय सैनिकों से मुंहबाद और धक्का-मुक्की के बाद चीनी सैनिक पीछे हटे। दरअसल चीन भारत के बरक्ष बहरूपिया का चोला ओढ़े हुए है। एक तरफ वह पड़ोसी होने के नाते दोस्त की भूमिका में पेश आता है और पंचशील का राग अलापता है। किंतु पंचशील के सिद्धांतों का उल्लंघन का आदी वह अब बेशर्मी की हद तक हो गया है। वहां के प्रधानमंत्री ली केकीयांग चुने जाने के तत्काल बाद भारत आते हैं। नरेंद्र मोदी उनके स्वागत में दिल्ली से लेकर अहमदाबाद तक पलक पांवड़े बिछा देते हैं। और अंततः चीन ढाई हजार साल पुराने भारत-चीनी सांस्कृतिक संबंधो के बहाने भारत से अपने कारोबारी हित साध लेता है। बावजूद इसके चीन का मूखौटा दुष्मनी का ही दिखाई देता है, जिसके चलते वह पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकता है। अरुणाचल को अपने नक्षे में शामिल कर लेता है। अपनी वेबसाइट पर भारतीय नक्षे से अरुणाचल को गायब कर देता है। साथ ही उसकी यह मंषा भी रहती है कि भारत विकसित न हो, उसके दक्षिण एशियाई देशों से द्विपक्षीय संबंध मजबूत न हों। और न ही चीन की तुलना में भारतीय अर्थवयवस्था मजबूत हो। इस दृष्टि से वह पाक अधिकृत कश्मीर, लद्दाख और अरूणाचल में अपनी नापाक मौजदूगी दर्ज कराकर भारत को परेशान करता रहता है। उसकी इन बेजा हरकतों में उत्तराखण्ड भी शामिल हो गया है। प्रतिक्रिया में भारत द्वारा विनम्रता दिखाते जाने का लंबा इतिहास रहा है, इसी का परिणाम है कि चीन आक्रामकता दिखाने से बाज नहीं आता।

दरअसल चीन का स्वांग उस सिंह की तरह है जो गाय का मुखैटा ओढ़कर धूर्तता से दूसरे प्राणीयों का शिकार करने का काम करता है। इसका नतीजा है कि चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करता है और पूर्वोत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प लेता है। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आराधना स्थल के नाम से हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में दर्ज हैं, सभी ग्रंथों में इसे अखंड भारत का हिस्सा बताया गया है। लेकिन भगवान भोले भंडारी अब चीन के कब्जे में हैं। यही नहीं गूगल अर्थ से होड़ करते हुए चीन ने एक ऑनलाइन मानचित्र सेवा शुरू की है। जिसमें भारतीय भू-भाग अरूणाचल और अक्षाई चिन को चीन ने अपने हिस्से में दर्षाया है। विश्व मानचित्र खण्ड में इसे चीनी भाषा में दर्षाते हुए अरूणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से ही बना हुआ है। वह अरुणाचलवासियों को चीनी नागरिक भी मानता है। यही नहीं चीन की एक साम्यवादी रुझान की पत्रिका में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता का लेख छपा कि भारत को पांच टुकड़ों में बांट देना चाहिए। अब सवाल उठता है कि भारत इस कुटिल मंशा का जबाव किस लहजे और भाषा में दे? यहां यह भी गौरतलब है कि साम्यवादी देशों की हड़प नीति के चलते ही छोटा सा देश चेकोस्लोवाकिया बरबाद हुआ। चीनी दखल के चलते बरबादी की इसी राह पर नेपाल है। पाकिस्तान में भरपूर निवेष करके चीन ने मजबूत पैठ बना ली है। बांग्लादेश को भी वह बरगलाने में लगा है। ऐसा करके वह सार्क देशों का सदस्य बनने की फिराक में है। ऐसा संभव हो जाता है तो उसका क्षेत्रीय दखल दक्षिण एशियाई देशों में और बढ़ जाएगा। इन कूटनीतिक चालों से इस क्षेत्र के छोटे-बड़े देशों में उसका निवेष और व्यापार तो बढ़ेगा ही सामरिक भूमिका भी बढे़गी। यह रणनीति वह भारत से मुकाबले के लिए भी रच रहा है।

चीन की यह दोगली कूटनीति तमाम राजनीतिक मुद्दों पर साफ दिखाई देती है। चीन बार-बार जो आक्रामकता दिखा रहा है, इसकी पृष्ठभूमि में उसकी बढ़ती ताकत और बेलगाम महत्वाकांक्षा है। यह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए चिंता का कारण बनी हुई है। दुनिया जानती है कि भारत-चीन की सीमा विवादित है। सीमा विवाद सुलझाने में चीन की कोई रुची नहीं हैं। वह केवल घुसपैठ करके अपनी सीमाओं के विस्तार की मंशा पाले हुए है। चीन भारत से इसलिए नाराज है, क्योंकि उसने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब भारत ने तिब्बत के धर्मगुरू दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बतियों को भारत में शरण दी थी। जबकि चीन की इच्छा है कि भारत दलाई लामा और तिब्बतियों द्वारा तिब्बत की आजादी के लिए लड़ी जा रही लड़ाई की खिलाफत करे। दरअसल भारत ने तिब्बत को लेकर शिथिल व असंमजस की नीति अपनाई है। जब हमने तिब्बतियों को शरणर्थियों के रूप में जगह दे ही दी थी, तो तिब्बत को स्वंतत्र देश मानते हुए अंतराश्ट्रीय मंच पर समर्थन की घोषणा करने की भी जरुरत थी ? डॉ राममनोहर लोहिया ने संसद में इस आशय का बयान भी दिया था। लेकिन ढुलमुल नीति के कारण नेहरु ऐसा नहीं कर पाए ? इसके दुष्परिणाम भारत आज भी झेल रहा है?

चीन कूटनीति के स्तर पर भारत को हर जगह मात दे रहा है। पाकिस्तान ने 1963 में पाक अधिकृत कश्मीर का 5180 वर्ग किमी क्षेत्र चीन को भेंट कर दिया था। तब से चीन पाक का मददगार हो गया। चीन ने इस क्षेत्र में कुछ सालों के भीतर ही 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेष किया है। चीन की पीओके में शुरू हुई गतिविधियां सामरिक दृश्टि से चीन के लिए हितकारी हैं। यहां से वह अरब सागर पहुंचने की जुगाड़ में जुट गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुँचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा भी मानना शुरू कर दिया है। यही नहीं चीन ने भारत की सीमा पर हाइवे बनाने की राह में आखिरी बाधा भी पार कर ली है। चीन ने समुद्र तल से 3750 मीटर की ऊंचाई पर बर्फ से ढके गैलोंग्ला पर्वत पर 33 किमी लंबी सुरंग बनाकर इस बाधा को दूर कर दिया है। यह सड़क सामरिक नजरिए से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि तिब्बत में मोषुओ काउंटी भारत के अरूणाचल का अंतिम छोर है। अभी तक यहां कोई सड़क मार्ग नहीं था। अब चीन इस मार्ग की सुरक्षा के बहाने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को सिविल इंजीनियर के रूप में तैनात करने की कोशिश में है। मसलन वह गिलगित-ब्लुचिस्तान में सैनिक मौजदूगी के जरिए भारत पर एक ओर दवाब की रणनीति को अंजाम देने के प्रयास में है।

यह ठीक है कि भारत और चीन की सभ्यता 5000 साल से भी ज्यादा पुरानी है। भारत ने संस्कृति के स्तर पर चीन को हमेशा नई सीख दी है। अब से करीब 2000 साल पहले बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था। वहां पहले से कनफ्यूषिस धर्म था। दोनों को मिलाकर नवकनफ्यूजनवाद बना। जिसे चीन ने अंगीकार किया। लेकिन चीन भारत के प्रति लंबे समय से आंखे तरेरे हुए है। इसलिए भारत को भी आंख दिखाने के साथ कूटनीतिक परिवर्तन की जरूरत है। भारत को उन देशों से मधुर व सामरिक संबंध बनाने की जरूरत है, जिनसे चीन के तनावपूर्ण संबंध है। ऐसे देशों में जापान, वियतमान और म्यांमार हैं। जिस तरह से चीन जम्मू-कश्मीर और अरूणाचल के निवासियों को भारतीय पार्सपोर्ट की बजाए, अलग से सादा कागज पर नत्थी वीजा देने का सिलसिला जारी रखे हुए है, उसकी काट के लिए भारत को तिब्बत, मंगोलिया और शिक्यांग के अल्पसंख्यकों को नत्थी वीजा देने की जरूरत है। क्योंकि चीन को उसी की भाषा में उत्तर देने की जरूरत है। इस लिहाज से भारत ने हाल ही में वास्तविक नियंत्रण रेखा से आठ किमी दूर दौलत ओल्डी हवाई पट्टी पर अपने सी-130 जे सुपर हरक्युलिस मालवाहक विमान को उतारकर और लद्दाख के हिमालयी शिखरों पर 32 टैंक तैनात करके चीन को ईंट का जबाब पत्थर से दिया है ! काश यही रणनीति पूर्ववर्ती सत्ताधीशों ने भी अपनाई होती, तो चीन की हिम्मत न बढ़ती ।

2 COMMENTS

  1. कब तक हम अतितजीवी बन कर भूराजनैतिक विश्लेषण करते रहेंगे. कब तक हम विश्व रंगमंच पर बदलते दृश्यों के प्रति अनिभिज्ञ रहेंगे. कब तक हम अपना दिमाग पश्चिम परस्त मिडिया द्वारा परोसे गए विचारो के हवाले करते रहेंगे. इस सम्बन्ध में मेरे विचार बिलकुल अलग है. साउथ एशिया के देशों और चीन में आपस में झगड़ा करवाने का काम अमेरिका और उसके एलाइ करते है, इसके लिए वे मिडिया, आई.एन. जी.ओ. और तथाकथित एक्सपर्ट्स का प्रयोग करते है. भारत , पाकिस्तान जैसे देशो की ब्यूरोक्रेसी में उनकी गहरी पकड़ है. राजनेता उनके एजेंट है. अगर साउथ एशिया के देश + चीन एक हो जाए तो सामरिक (strategic) और आर्थिक रूप से ये अमेरिका और यूरोप को पीछे छोड़ सकते है. जरूरत है कि चीन और भारत में आपसी विश्वास बढे. मोदी और जिनपिंग को दोनों देशों के बीच विश्वास बढ़ाने के लिए सार्थक कदम उठाने चाहिए. मोदी ने सभी पड़ोसियो के साथ सम्बन्ध बेहतर बनाने की इमानदार कोशिस किए थे. लेकिन पश्चिमी शक्तियां इसमें बाधा बनी हुई है. और हम अनाहक दोष चीन के ऊपर मढ रहे है.

  2. श्री. प्रमोद भार्गव जी का यह आलेख अनेक आवश्यक पहलुओं पर प्रकाश फेंकता है।
    चीन की कूटनीति का, और भविष्य की अपेक्षित दिशाका अध्ययन भी आवश्यक है।
    एक शत्रु के नाते,चीन हमारे लिए पाकिस्तान से भी अधिक महत्त्व रखता है।
    मॉर्गन थाउ की Politics Among Nations पुस्तक के प्रकाश में चीन की कूट-रणनीति समझ कर मौलिक चिन्तकॊं को इस काम में तुरंत लगाने की आवश्यकता है।
    देर नहीं होनी चाहिए।
    चीन निर्दय है।
    {शायद इसका प्रबंध पहले हो गया हो।}

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