कस्तूरी और विकास दोनो भ्रम

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अब्दुल रशीद

जादुई आँकड़े से न ही हकीक़त बदल सकता है,और न ही समाज का विकास हो सकता है। क्योंकि भ्रम चाहे हिरण को कस्तूरी का हो और आम जनता को विकास का लेकिन सच तो यह है की अंत दोनों का दुःखद ही होता है। न जाने कितनी ही योजनाएं बनी और उन योजनाओं कि बदौलत योजना के कर्ताधर्ता अकूत दौलत के मालिक भी बने,नही हुआ तो बस इतना सा नही हुआ के जिन गरीबों के लिए योजना बनी थी उनके लिए भरपेट भोजन का इंतज़ाम नही हुआ। अब सुना है मुफ्त मोबाईल मिलेगा, आखिर यह जले पर नमक छिड़कना नहीं तो और क्या है? भूखा पेट मौत कि बाट जोह रहा है क्या मोबाईल से यमराज से बात करेगा के उसका दुःख तुरंत हर ले? अफसोस करें या हंसे या इसे नियति मान लें। अन्नदाता अन्न को मोहताज़ है और गले में फांसी का फंदा डालकर मौत को गले लगाने को विवश है। यह हाल तब है जब हमारी सरकार यह मानती है और कहती है के यह देश किसानों का देश है।तो फिर इतनी मौतें क्यों हो रही है? दरअसल राजनीति का यह दस्तूर है जिसको राजनीतिज्ञ नारा बना लेते हैं वह चुनावी उत्पाद में तबदील हो जाता है। cचुनाव के वक्त इन्हीं उत्पादों का प्रदर्शनी लगता है आम जनता को लुभाया जाता है मक्सद एक ही होता है वोट लेना और वोट लेने के बाद इस देश के मध्यमवर्गीय व्यक्ति से कर के रुप में चूसा गया पैसा इन बेचारों के नाम पर योजना बनाकर अपने लिए महल बनाने का ख्वाब पूरा किया जाता है। हकीक़त से वाकिफ सभी हैं लेकिन अगर कुछ कह देंगे तो कहीं कहर हम पर ही न टूट पड़े इसलिए चुप रहते हैं या फिर इसी व्यवस्था के हिस्सेदार बन जाते हैं। अन्ना नें ख्वाब दिखाया और कथित मसीहा बन गये बाबा ने योग सिखाया और कथित राजयोगी बन बैठे। किसी ने यह नहीं सोंचा के जिसके नाम पर हम हल्ला मचा रहें हैं उसी गरीब के नाम पर तो राजनेता भी राजनीति करते हैं तो आप में और राजनेता में फर्क क्या? कोई यह क्यों नहीं सोंचता के जितना पैसा हल्ला मचाने के लिए तामझाम जुटाने में खर्च किया जाता है उतना पैसा उन पर खर्च कर दिया जाए तो बेहतर होता कम से कम कुछ लोगों कि बेचारगी तो खत्म होती। असल बात तो यह है की सबको अपना ही दिखता है औरों से क्या लेना देना। जब हम चुपचाप बेचारे कि बेचारगी दूर करेंगे तो हम कितनों का कर पाएँगें और कितने लोग हमें जान पाएँगें फिर मतलब क्या निकलेगा पैसा भी गया और नाम भी नहीं हुआ। बाबा और अन्ना कहते हैं करोड़ों भक्त और समर्थक हैं हमारे इस देश में,हो सकता है उनका दावा सही भी हो लेकिन वे लोग अपने दावे के साथ यह क्यों नहीं जोड़ते के हमारे भक्त भ्रष्टाचार से मुक्त हैं और हमारे समर्थक भ्रष्टाचार से मुक्त हैं। वे लोग चाह कर भी शायद यह नहीं कह सकते क्योंकि असलियत उन्हें भी मालूम है, मालूम तो बेचारों को भी है लेकिन कुपोषण के शिकार उन लोगों के आवाज़ में इतना दम ही नहीं के उनकी आवाज़ कोई सुन सके। मान भी लिया जाए कि भ्रष्टाचारीयों को बेनकाब करने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा तो आप ही बताएँ राजा साहब का क्या हुआ,निर्मल बाबा का क्या बिगड़ा और भी हैं बताइए किसी का कुछ बिगड़ा है। जो हो रहा है वह होगा ही ऐसा मान लेना ही गलत है और भ्रष्टाचार कि जड़ है। आजकल चर्चा इस बात की होती है के भ्रष्टाचार में यह देश डूबा हुआ है। ऐसे हालात में यह देश कैसे चलेगा। कोई यह सोंचने को तैयार ही नहीं कि यह देश कैसे बनेगा। क्योंकि चलेगा और बनेगा में बारीक सा फर्क होता है चलाने वाले चंद लोग होंगें जो भ्रष्टाचारी हो सकते हैं लेकिन बनाने वालों में सबकी हिस्सेदारी और जवाबदेही होगी तब जब कोई भ्रष्टाचार का खुलासा होगा तब बली के बकरे को जिम्मेदार कहने के बजाए उन सभी को दोषी माना जाएगा जिसका ज़रा सा भी हिस्सेदारी होगा भले उसने फायदा उठाया हो या नहीं। आजादी के छः दसक बाद भी बेरोजगारी और गरीबी अहम मुद्दा है। और देश के प्रधानमंत्री लाल किले पर झंडा फहराने के बाद अपने भाषण में गरीबी हटाने की योजना का बखान करते नहीं थकते क्या कभी ऐसा भी समय आएगा जब हम स्वतंत्रता दिवस का भाषण गरीबी शब्द के बिना सुन सकेंगे । ऐसा हो सकता है जब हम आप सब मिलकर अपनी अपनी जिम्मेंदारी निभाएंगे बिना बेइमानी के यदि आप मेरे बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हों तो देर किस बात की है आज से अहद कीजिए,बदलाव यकीनन आएगा जब आप और हम बदलेंगे काश ऐसा हो आमीन।

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