द्रौपदी की हँसी

draupadiमहाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। हस्तिनापुर के सिंहासन पर युधिष्ठिर का अभिषेक भी संपन्न हो चुका था। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शर-शैया पर यातना सहते हुए लेटे हुए थे। उस युग में श्रीकृष्ण और विदुर के बाद भीष्म पितामह ही राजनीति, धर्म और शास्त्र के सबसे बड़े ज्ञाता थे। श्रीकृष्ण की सलाह पर एक दिन सभी पाण्डव उनसे ज्ञान का संचित भंडार प्राप्त करने के लिए उनके समीप बैठे। श्रीकृष्ण के आग्रह पर पितामह ने अपने ज्ञान का कोष पाण्डवों के समक्ष खोल दिया। उस समय पाण्डवों के साथ द्रौपदी भी वहाँ उपस्थित थीं। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्रों में वर्णित समस्त ज्ञान से छोटी-छोटी रोचक कहानियों के माध्यम से पितामह ने पाण्डवों को प्रवीण किया। श्रीकृष्ण भी बड़े ध्यान से पितामह का प्रवचन सुन रहे थे। सर्वत्र शान्ति थी। एकाएक द्रौपदी खिलखिलाकर हँसीं। सभी लोग आश्चर्य से द्रौपदी का मुंह देखने लगे। द्रौपदी को अपनी गलती का एहसास हुआ और शीघ्र ही चुप हो गईं। लेकिन पितामह द्रौपदी की हँसी का रहस्य जानने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने द्रौपदी से प्रश्न किया –
” प्रिय द्रौपदी। इतने गंभीर विचार-विमर्श के दौरान तुम्हारी हँसी का कारण क्या है। तुम इस पृथ्वी की सबसे बड़ी विदुषी महिला हो। तुम अकारण हँस नहीं सकती। मृत्यु के पूर्व तुम्हारी हँसी का कारण जानना चाहता हूँ।”
द्रौपदी ने कोई कारण न बताते हुए कहा कि उसे अनायास हँसी आ गई थी। इसके पीछे कोई कारण नहीं था। परन्तु भीष्म कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि द्रौपदी जैसी विदुषी और नीति की ज्ञाता महिला कभी भी अकारण नहीं हँस सकती, और वह भी अपने श्रेष्ठ जनों के सामने। श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी से अपनी हँसी का रहस्य उद्घाटित करने का आग्रह किया। कोई चारा न पाकर द्रौपदी ने अपने मन की बात कह ही दी —
“पूज्य पितामह! आपके श्रीमुख से हमने ज्ञान की वे बातें श्रवण और मनन की जो अभी तक हमें ज्ञात नहीं था। आपने महाराज युधिष्ठिर को धर्म, सत्य और न्याय का पाठ पढ़ाया। मुझे इस बात पर हँसी आई कि सबकुछ जानते हुए भी आपने कुरुओं की भरी सभा में मेरे अपमानजनक चीरहरण का विरोध क्यों नहीं किया। मुझे आपकी कथनी और करनी में जब स्पष्ट अन्तर दीख पड़ा तो अनायास ही मेरे मुँह से हँसी फूट पड़ी। मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें।”
भीष्म पितामह मुस्कुराए और बोले –
“पुत्री! मनुष्य जिस प्रकार का भोजन करता है, उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। उस समय मैं अन्याय और अधर्म से प्राप्त धृतराष्ट्र और दुर्योधन द्वारा प्रदत्त भोजन करता था, जिसके कारण मेरा रक्त अशुद्ध हो गया था और बुद्धि भी न्याय-अन्याय का विचार करने में असमर्थ हो गई थी और मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रति हो रहे अन्याह का विरोध नहीं कर सका। मेरा मन पाण्डवों के साथ था और शरीर दुर्योधन के साथ। मैं चाहकर भी उस महा अन्याय को रोक नहीं पाया। पुत्री! यह पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का भी दास नहीं। इसी अर्थ से कौरवों ने मुझे बाँध रखा था और मैं नपुंसकों जैसी बातें करने लगा था। अब महाधनुर्धर अर्जुन के बाणों से बींधकर मेरा दूषित रक्त शरीर से बाहर आ चुका है और मेरी आत्मा शुद्ध हो गई है। इसीलिए अब मैं धर्म, सत्य और न्याय की भाषा बोल रहा हूँ। पुत्री मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कर देना।”
द्रौपदी ने पितामह के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपने आँसुओं से उन्हें प्रच्छालित कर दिया। द्रौपदी के मन का सन्देह सदा के लिए मिट गया था।

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

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