चार सियासी ध्रुव और उत्तर प्रदेश

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हिमांशु शेखर

देश की राजनीति अभी एक ऐसे दौर में है जब कई चुनावों ने यह साबित किया है कि एंटी-इनकंबेंसी का प्रभाव घट रहा है और कई राज्य सियासी एकाधिकार की ओर बढ़ रहे हैं. केंद्र के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, आंध्र प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में सत्ताधारियों की वापसी ने विपक्ष को कमजोर बनाकर एक ध्रुवीय राजनीति को मजबूती देने का काम किया है. ज्यादातर राज्य ऐसे हैं जहां राजनीति दो ध्रुवीय है. कहीं दो दलों के बीच तो कहीं दो गठबंधनों के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा है.

बिहार में सियासी त्रिकोण दिखता था लेकिन 2005 के पहले चुनाव में रामविलास पासवान द्वारा किसी पक्ष को समर्थन नहीं देने के बाद जब दूसरा चुनाव हुआ तो वहां भी त्रिकोण बिखर गया और दो ध्रुव ही बचे. 2010 ने तो बिहार में दूसरे ध्रुव को भी डिगा दिया. लेकिन बिहार से सटा उत्तर प्रदेश इस मामले में अपवाद है और अब भी यहां की राजनीति में चार ध्रुव बने हुए हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को बहुमत मिलने के अलावा सपा, भाजपा और कांग्रेस को भी इतनी सीटें मिली थीं कि उनका वजूद बचा रहे.

सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य की राजनीति की एक खासियत यह भी है कि यहां के चारों सियासी पक्षों ने कभी न कभी अपने बूते पंचम तल से प्रदेश पर राज किया है. 2007 में 206 सीटें बसपा को, 97 सपा को, 51 भाजपा को और 22 सीटें कांग्रेस को मिली थीं. इस चुनाव में भी ये चारो अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं. पिछले चुनाव में दस सीटें जीतने वाली अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल को अपने साथ मिलाकर कांग्रेस ने राज्य के विधानसभा क्षेत्रों में मुकाबले को पांच ध्रुवीय और सूबे की राजनीति को और जटिल बनाने से बचा लिया.

उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी जमीन को मजबूत करना भाजपा और कांग्रेस के लिए इसलिए जरूरी है ताकि उन्हें दिल्ली की सरकार बनाने में सहूलियत हो. क्योंकि सबसे ज्यादा सांसदों को चुनकर भेजने वाले इस राज्य के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की राह इधर से ही होकर गुजरती है. मायावती की पर्याय बसपा और मुलायम सिंह यादव की पर्याय सपा का अस्‍तित्व ही सूबे के जनादेश पर निर्भर करता है. इसलिए विधानसभा चुनावों में यहां हर सीट पर मारामारी दिखती है.

सूबे में अपना सांगठनिक ढांचा खो चुकी कांग्रेस को राहुल की संजीवनी का सहारा है. जब भी प्रदेश में कांग्रेसियों का हौसला टूटता है तो वे 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर निगाह डालते हैं. कांग्रेस को आम चुनावों में 21 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. वैसे ये बात पार्टी के आला नेता भलीभांति जानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदान का पैटर्न बिल्कुल अलग होता है. कांग्रेस और भाजपा को सपा और बसपा के मुकाबले मजबूत उम्मीदवारों की कमी कई सीटों पर खल रही थी लेकिन मायावती और मुलायम के बागियों के सहारे दोनों राष्ट्रीय पार्टियां चुनावी बैतरणी पार होने का ख्वाब संजोए हुए हैं.

इस चार ध्रुवीय लड़ाई में आम मतदाता इस बात को लेकर भ्रमित है कि वह किसके साथ खड़ा हो. क्योंकि कई सीटों पर सबका पलड़ा एकसमान दिखता है और नीतियों के स्तर पर भी चारों मोटे तौर पर समान दिख रहे हैं. चारों पक्षों ने जाति की राजनीति को रास्ता बनाया है, बाहबुलियों व भ्रष्टाचार के आरोपितों को गले लगाया है और धनपशुओं को टिकट देने के मामले में भी समान नीति अपनाई है. राजनीतिक विकल्प चुनने को लेकर इतनी अधिक भ्रम की स्‍थिति देश के किसी और सूबे में नहीं है. वहीं सामाजिक और आर्थिक विविधता वाले इस प्रदेश के मतदाताओं ने भी अब तक राजनीतिक विविधता को बनाए रखने के पक्ष में ही जनादेश दिया है.

यह सवाल बना हुआ है कि जब देश के दूसरे हिस्सों में राजनीतिक विविधता घट रही है तो क्या यह प्रदेश 2012 में भी उसी राह पर चलेगा या फिर चारों पक्षों को प्रदेश की राजनीति में जिंदा रखकर सूबे की राजनीतिक समीकरणों को उलझाए रखने का विकल्प ही चुनेगा.

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