गज़ल:मौसम को तो, हमे अब मनाना पड़ेगा– सत्येंद्र गुप्ता

मौसम को तो, हमे अब मनाना पड़ेगा

नाज़ नखरा सब उसका उठाना पड़ेगा।

कहीं और ही बरस रहे हैं बादल हमारे

लगता है उनको हमे , बुलाना पड़ेगा।

आखिर कब तलक रहेंगे ,हम अकेले

कभी तो साथ हमे भी निभाना पड़ेगा।

मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है

दिल को भी अब बंजारा बनाना पड़ेगा।

ख़ार की तरह चुभती हैं, मखमली बातें

उनसे तो दामन सदा ही छुड़ाना पड़ेगा।

अगर हाल कभी लिखो हमारा, तुम तो

हर दर्द को गले तुम्हे ,लगाना पड़ेगा।

 

सूख चुकी आँख में ,अब ठहरता नहीं पानी

एक आंसू दे दो तो ,रिमझिम बरस जाएगी।

बिना बरसे बिखर गये, अब्र के टुकड़े अगर

मिट्टी की सोंधी महक को धरती तरस जाएगी।

हरे भरे खेत पर अगर, पाला पड़ गया रात में

ठंडी आहें भरकर फसलें सारी झुलस जायेंगी।

उबासी लेता सूरज ,कुहरे में छिप गया अगर

निकल नहीं पाया तो सुबह ही अलस जायेगी।

सुलगती धूप के माथे ,बहता रहा पसीना अगर

शाम के तपते हुए सीने में ठहर उमस जायेगी।

छुट जाती आदत, शराब पीने की हमारी भी तो

अगर जान जाते ,ज़िन्दगी यूँ ही झुलस जायेगी।

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