क्या पुरस्कार अब प्रकाशन-राजनीति का मोहरा बन गए हैं?

 डॉ. सत्यवान सौरभ

“साहित्य समाज का दर्पण होता है।” यह वाक्य हमने न जाने कितनी बार पढ़ा और सुना है। परंतु आज साहित्य के दर्पण पर परतें चढ़ चुकी हैं—राजनीतिक, प्रकाशकीय और प्रतिष्ठान-प्रेरित परतें। प्रश्न यह नहीं है कि कौन किससे छप रहा है। प्रश्न यह है कि क्या हिंदी साहित्य का पुरस्कार अब केवल उन्हीं लेखकों को मिलेगा जो वाणी प्रकाशन या राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगे?

पुरस्कार: साहित्यिक मान्यता या प्रकाशकीय गठजोड़?

एक समय था जब किसी लेखक को पुरस्कार मिलने पर पूरे साहित्यिक समाज में उत्सव जैसा माहौल होता था। आज स्थिति यह है कि जैसे ही किसी लेखक को प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलता है, सबसे पहला सवाल यह पूछा जाता है—“कहाँ से छपे हैं?” अगर जवाब वाणी या राजकमल है, तो चर्चा बदल जाती है—“चलो, सेटिंग होगी…!” यह कटाक्ष नहीं, आज के साहित्यिक वातावरण का यथार्थ है। क्योंकि अब पुरस्कार प्रतिभा का नहीं, प्रकाशन और पहुंच का प्रमाण बनते जा रहे हैं।

साहित्यिक ब्रांडिंग का दौर

वाणी और राजकमल जैसे संस्थान निस्संदेह हिंदी के प्रमुख स्तम्भ हैं। उन्होंने उत्कृष्ट लेखकों को छापा है और साहित्य की सेवा की है। लेकिन अब समस्या यह नहीं है कि वे छाप रहे हैं, समस्या यह है कि बाकी किसी को छापना, सुनना और पुरस्कृत करना साहित्यिक प्रतिष्ठानों को “जोखिम” जैसा लगता है।

जिस तरह फिल्मों में केवल बड़े बैनर की फिल्में ही राष्ट्रीय पुरस्कार पाती हैं, उसी तरह अब साहित्य में भी “ब्रांडेड प्रकाशन” ही पुरस्कारों का टिकट बन चुके हैं।

प्रतिभा बनाम पहुँच

हिंदी साहित्य के छोटे लेखक, ग्रामीण पृष्ठभूमि के रचनाकार, स्वतंत्र प्रकाशनों से जुड़ी प्रतिभाएँ — सब धीरे-धीरे इस “पुरस्कार तंत्र” से बाहर हो चुके हैं। उनके पास न तो साहित्यिक लॉबियों से संपर्क हैं, न दिल्ली-मुंबई जैसे केन्द्रों में मौजूदगी, और न ही ब्रांडेड कवर पृष्ठ। तो फिर पुरस्कार किसके हिस्से आएंगे? जवाब स्पष्ट है: उन्हीं के जो पहले से स्थापित हैं, और एक खास प्रकाशकीय घेरे में फिट होते हैं।

पुरस्कार चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल

जब पुरस्कारों की चयन समितियों में उन्हीं संस्थानों के प्रतिनिधि बैठें जिनके लेखक पुरस्कार जीतते हैं, तो यह नैतिकता की नहीं, तंत्र की समस्या बन जाती है। क्या कोई लेखक इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि वह किसी प्रसिद्ध प्रकाशन से छपा है? क्या एक गाँव की लड़की की कहानी इसलिए उपेक्षित है क्योंकि वह “स्व-वित्तपोषित” किताब में छपी है? क्या साहित्य केवल महानगरों में लिखा जा रहा है? यह सवाल मात्र भावुकता नहीं, साहित्य के लोकतंत्र की माँग है।

“सेटिंग और गैटिंग” का साहित्यिक संस्करण

अब साहित्यिक पुरस्कार भी वैसी ही ‘लॉबिंग’ का हिस्सा बन चुके हैं जैसे राजनीति या सिनेमा में होता है। कोई वरिष्ठ आलोचक पुरस्कार समिति में बैठता है और उसी साल उसका शिष्य पुरस्कार पाता है। कोई लेखक चर्चित होता है क्योंकि उसके प्रकाशक ने किताब के विमोचन में ‘नामचीन लोगों’ को बुला लिया। समीक्षाएँ छपती हैं—पर लेखन नहीं पढ़ा जाता, सिर्फ “प्रकाशक का नाम” देख लिया जाता है।

स्वतंत्र प्रकाशकों की उपेक्षा: एक अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति

हिंदी में आज कई स्वतंत्र, ईमानदार, मेहनती प्रकाशक सक्रिय हैं। वे बिना किसी शोर-शराबे के अच्छे लेखकों को प्रकाशित कर रहे हैं, नए विषय ला रहे हैं, जोखिम ले रहे हैं। लेकिन उन्हें पुरस्कारों की सूची में शायद ही जगह मिले। क्या इसलिए कि उनके पास प्रचार का पैसा नहीं है?

या इसलिए कि वे किसी पुरस्कार समिति के सदस्य के ‘प्रकाशकीय मित्र’ नहीं हैं?

पुरस्कार नहीं, पाठक चाहिए

आज कई लेखक इस पुरस्कार-तंत्र से परेशान होकर कहते हैं—“हमें पुरस्कार नहीं चाहिए, हमें पाठक चाहिए।” यह बदलाव एक क्रांतिकारी सोच है। क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब पाठक पूछेगा—“क्या यह लेखक अच्छा है, या बस पुरस्कार मिला हुआ है?”

क्या राजकमल या वाणी में छपना गुनाह है?

बिलकुल नहीं। वाणी, राजकमल या अन्य बड़े प्रकाशकों से छपना एक उपलब्धि हो सकती है, लेकिन वह एकमात्र रास्ता नहीं होना चाहिए। समस्या तब होती है जब पुरस्कार देने वाले संस्थान यह मान बैठते हैं कि अच्छा साहित्य वहीं छपता है।

इस मानसिकता को बदलना होगा, क्योंकि एक समाज का साहित्य उसकी विविधता, भूगोल, बोली और संघर्षों का समुच्चय होता है — न कि केवल दिल्ली की प्रेस या कॉफी टेबल रीडिंग।

नवलेखकों के लिए क्या संदेश है?

आज का नवलेखक यह देख रहा है कि अगर उसकी किताब किसी “ब्रांडेड” प्रकाशक से नहीं छपी, तो उसके पुरस्कार पाने की संभावना लगभग समाप्त है। यह मानसिक अवसाद और हतोत्साहन की स्थिति है। उसे यह समझाना ज़रूरी है कि —

पुरस्कार अंतिम सत्य नहीं हैं। साहित्य एक दीर्घकालीन संवाद है, जिसमें पाठक का प्रेम, समाज की प्रतिक्रिया और लेखकीय ईमानदारी सबसे महत्वपूर्ण है।

साहित्यिक लोकतंत्र की आवश्यकता

हमें ऐसे मंचों और पुरस्कार संस्थाओं की आवश्यकता है जो छोटे, स्वतंत्र, स्थानीय और डिजिटल प्रकाशकों से छपने वाली पुस्तकों को भी समान अवसर दें। हमें “साहित्यिक समानता” की बात करनी होगी, जहाँ प्रकाशन का नाम नहीं, रचना की संवेदना और सामाजिक प्रासंगिकता मूल्यांकन का आधार हो।

प्रश्न जो रह गए हैं:

क्या साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कार चयन से पहले अंधभक्ति की परत हटा पाएँगी? क्या आलोचक अपने संपर्कों से ऊपर उठकर नए साहित्य को खोजने का साहस दिखाएँगे? क्या हम अपने बच्चों को बताएँगे कि “सच्चा साहित्य पुरस्कारों से नहीं, अनुभवों से उपजता है?”

पुरस्कार नहीं, ईमानदारी चाहिए

पुरस्कार मिलना अच्छा है, लेकिन ईमानदारी से लेखन करना उससे कहीं ज़्यादा बड़ा पुरस्कार है। वह पुरस्कार जो आत्मा देती है, पाठक देते हैं, और समय देता है। साहित्य वह नहीं जो पुरस्कार पाता है, साहित्य वह है जो मनुष्य को भीतर से झकझोर दे — चाहे वह किसी भी प्रकाशक से छपा हो।

तो अगली बार जब कोई आपसे पूछे – “कहाँ से छपे हो?”,

तो जवाब हो — “जहाँ मेरी आत्मा ने कलम चलाई और पाठकों ने उसे पढ़ा।”

डॉ. सत्यवान सौरभ

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