समय के साथ बदली हिन्दी पत्रकारिता

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web-journalismहिमकर श्याम

हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार और विकास अभिभूत करनेवाला है। 30 मई, 1826 को पं0 युगुल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन आरम्भ किया था। उदन्त मार्तण्ड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने लायक पैसे पं युगुल किशोर शुक्ल के पास नहीं थे। उस दौर में किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि हिन्दी पत्रकारिता इतना लम्बा सफर तय करेगी। 187 वर्षों में हिन्दी अखबारों एवं हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी तेजी आई है।  नई तकनीक और प्रौद्योगिकी ने अखबारों की ताकत और ऊर्जा का व्यापक विस्तार किया है। समय के साथ-साथ हिन्दी पत्रकारिता की प्रकृति, स्वरूप और व्यवहार में व्यापक बदलाव आया है।

बदलाव के इस दौर में पत्रकारिता के क्षेत्र में दिन प्रतिदिन गिरावट आ रही है, जो चिंता का विषय है। बीते कुछ वर्षों में के दौरान हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां बढ़ी हैं, वहीँ मुक्त बाजार का कुप्रभाव भी इस पर देखने को मिला है। गुणवत्ता व विश्वसनीयता का संकट भी सामने खड़ा है। उदारीकरण के बाद जिस तरह नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ, पत्रकारिता भी उससे अछूती नहीं रह पायी। पत्रकारिता में आये बदलाव के कारण पत्रकारिता की मिशनरी भावना पर बाजारबाद हावी हो गया। पत्रकारिता एक मिशन न होकर व्यवसाय में तब्दील गई। बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों ने इस क्षेत्र में कदम रख दिया है। जिनका उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना है। इस कारण से पत्रकारिता अपने मूलभूत सि़द्धांतों का उल्लंघन करने लगी है और उसने उत्तेजना, सनसनी और खुलेपन को पूरी तरह से अपना लिया है। वर्तमान दौर की पत्रकारिता में तथ्यपरक्ता, यथार्थवादिता, निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता, सत्यनिष्ठा और संतुलन का अभाव दिखता है। संपादकीय विभाग की भूमिका  गौण हो गई है और उसका स्थान मार्केटिंग विभाग ने ले लिया है। अखबारों को ख़बरों का गंभीर माध्यम बनाने के बजाय इन्हें लोक लुभावन बनाया जा रहा है। यहां भी जो बिकता है वहीं दिखता है वाली कहावत चरितार्थ होने लगी है। पैकेज पत्रकारिता के उद्भव के साथ ही अखबारों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिहृ लगने लगा है।

पत्रकारिता लोकभावना की अभिव्यक्ति एवं नैतिकता की पीठिका है। भारत में पत्रकारिता की शुरूआत एक मिशन के रूप में हुई थी। स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि यहां के पत्रों एवं पत्रकारों ने ही तैयार की थी। आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता देशभक्ति और समग्र राष्ट्रीय चेतना के साथ जुड़ी रही। इसमे देशभक्ति के अलावा सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना भी शामिल है। स्वाधीनता से पहले देश के लिए संघर्ष का समय था। इस संघर्ष में जितना योगदान राजनेताओं का था उससे तनिक भी कम पत्रों एवं पत्रकारों का नहीं था। स्वतंत्रता पूर्व का पत्रकारिता का इतिहास तो स्वतंत्रता आन्दोलन का मुख्य हिस्सा ही है। तब पत्रकारिता घोर संघर्ष के बीच अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए प्रयत्नशील थी। व्यावसायिक विस्तार के साथ ही वह साख के संकट से गुजरने लगी है। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ सीमाएं भी होतीं हैं। पत्रकारिता की सबसे बड़ी पूँजी उसकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। साख ही पत्रकारिता का प्राण है लेकिन इसकी रक्षा तभी संभव है जब पूर्णरूप से निष्पक्ष समाचारों का प्रकाशन हो। पत्रकारिता कर यह दायित्व है कि वह सही और संतुलित खबरें पाठकों तक पहुंचाए।

यह बड़े अफ़सोस की बात है कि मुख्यधारा की मीडिया में भारत का वास्तविक चेहरा दिखलाई नहीं देता है। ख़बरों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है। मीडिया को वही दिखता है जो उसके द्वारा तैयार बाजार पसंद करता है। जब तक प्रिंट की पत्रकारिता थी, पत्रकारिता में कुछ हद तक मिशनरी भावना बची हुई थी। पत्रकारिता के क्षेत्र में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के आगमन से मिशन पूरी तरह से प्रोफेशन में बदल गया। मुख्यधारा की पत्रकारिता से मोहभंग की स्थिति है और विकल्पों की तलाश शुरू हुई हो गयी है। वैकल्पिक मीडिया के रूप में अलग-अलग प्रयोग किये जाने लगे हैं। वेब पत्रकारिता और सोशल मीडिया का विस्तार ने पत्रकारिता को नया रूप दिया है। नागरिक आधारित पत्रकारिता के विभिन्न मंचों की सुगबुगाहट बढ़ रही है। इसके साथ ही नेटवर्किंग और सोशल साइट्स की उपस्थिति एक दीवानगी के रूप में बढ़ रही है।

मीडिया पर बढ़ते बाजारवाद और उपभोक्तावाद के कारण ही आम आदमी हाशिए पर है। आमलोगों की समस्याओं और जरूरतों के लिए मीडिया में जगह और सहानुभूति नहीं दिखलाई देती है। हर जगह पाठकों को हासिल करने की भीषण स्पर्धा दिखाई देती है। पत्रकारिता में ऐसे लोग आ गए हैं जिनका लक्ष्य सीधे सीधे पैसा कमाना और पावर पाना है, उस पर एक सतर्क नजर रखने की भी जरूरत है। अब समय आ गया है कि पत्रकारिता की जवाबदेही तय की जाये और उसमें पारदर्शिता लायी जाये। साख बेचकर और पाठकों का विश्वास खोकर पत्रकारिता को बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रखा जा सकता है।

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