हिन्दू हृदय सम्राट महाराजा सूरजमल

-अशोक “प्रवृद्ध”

उत्तर भारत में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य बनाकर इतिहास में गौरव स्थान प्राप्त करने वाले राजनीति कुशल, दूरदर्शी, सुन्दर,
सुडौल और स्वस्थ वदन के स्वामी महाराजा सूरजमल एक सुयोग्य शासक थे। ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे
प्रसिद्ध शासक, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने
जाटों में सबसे पहले राजा की पदवी धारण की थी, और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था। जिसके कारण
भारतीय इतिहास में उन्हें हिन्दू हृदय सम्राट के नाम से जाना जाता है। मुगलों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर
भारत के राजाओं में प्रमुख भूमिका निभाने वाले राजाओं में राजस्थान भरतपुर के महाराजा सूरजमल जाट का नाम बड़ी
श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1707 में हुआ था। ये राजा बदनसिंह महेन्द्र के दत्तक पुत्र थे।
उन्हें पिता की ओर से वैर की जागीर मिली थी। उन्होंने 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढ़ी पर हमला कर विजय
प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने 1743 में उसी स्थान पर भरतपुर नगर की नींव रखी तथा 1753 में वहां आकर रहने
लगे।उनके शासन का समय सन 1755 से सन 1763 है। वह सन 1755 से कई वर्ष पूर्व से अपने पिता बदनसिंह के शासन
के समय से ही राजकार्य सम्भाला करते थे। भारतीय इतिहास में सूरजमल को जाटों का प्लेटो कहकर भी सम्बोधित किया
गया है। उनके दरबारी कवि सूदन ने राजा की प्रशंसा में सुजानचरित्र नामक ग्रन्थ लिखा, जिसमें सूदन ने राजा सूरजमल
द्वारा लड़ी गई लड़ाईयों का आँखों देखा वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में सन 1745 से सन 1753 तक के समय में लड़ी गयी
सात युद्धों अर्थात लड़ाईयों का वर्णन है। इन लड़ाईयों में सूदन ने भी भाग लिया था, इसलिए उसका वर्णन विश्वसनीय
कहा जा सकता है।
सूदन कवि द्वारा लिखित सुजान चरित्र और विविध श्रोतों से प्राप्त विवरणियों के अनुसार मुगल शासक औरंगजेब की मृत्यु
की तिथि 13 फरवरी 1707 को ही महाराजा सूरजमल का जन्म हुआ। उत्तर भारत में जिन राजाओं में राजा सूरजमल को
विशेष स्थान प्राप्त है और उनका नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है ।उनके जन्म और वीरता को लेकर कई
लोकगीत काफ़ी प्रचलित है। कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी महाराजा सूरजमल राजा बदनसिंह के पुत्र थे।
सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी के कारण ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे । सूरजमल ने सन 1733 में
भरतपुर रियासत की स्थापना की थी । राजा सूरजमल का जयपुर रियासत के महाराजा जयसिंह से अच्छा रिश्ता था ।
जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में रियासत के वारिश बनने को लेकर झगड़ा शुरु हो गया
। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह को रियासत का अगला वारिस बनाना चाहते थे, जबकि उदयपुर रियासत के महाराणा
जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह को राजा बनाने के पक्ष में थे । इस मतभेद की स्थिति में गद्दी को लेकर लड़ाई शुरु हो गई ।
मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई । लड़ाई यहां पूरी तरह खत्म नहीं हुई । माधोसिंह मराठों, राठोड़ों
और उदयपुर के सिसोदिया राजाओं के साथ मिलकर वापस रणभूमि में आ गया । ऐसे माहौल में राजा सूरजमल अपने
10,000 सैनिकों को लेकर रणभूमि में ईश्वरी सिंह का साथ देने पहुंच गये । सूरजमल को युद्ध में दोनों हाथो में तलवार ले
कर लड़ते देख राजपूत रानियाँ अचम्भित उनके बारे में परिचय जानने का प्रयास करने लगी थी ।इस युद्ध में ईश्वरी सिंह
को विजय प्राप्त हुई और उन्हें जयपुर का राजपाठ मिल गया । इस घटना के बाद महाराजा सूरजमल का डंका पूरे भारत
देश में बजने लगा । 1753 तक महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला तक अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ा
लिया था । इस बात से नाराज़ होकर दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने सूरजमल के खिलाफ़ मराठा सरदारों को भड़का


दिया । मराठों ने भरतपुर पर चढ़ाई कर दी । उन्होंने कई महीनों तक कुम्हेर के किले को घेर कर रखा । मराठा इस
आक्रमण में भरतपुर पर तो कब्ज़ा नहीं कर पाए, बल्कि इस हमले की कीमत उन्हें मराठा सरदार मल्हारराव के बेटे
खांडेराव होल्कर की मौत के रूप में चुकानी पड़ी । कुछ समय बाद मराठों ने सूरजमल से सन्धि कर ली ।

उल्लेखनीय है कि अठारहवीं सदी के महान योद्धा महाराजा सूरजमल का जन्म ऐसे समय में हुआ जब उत्तर भारत की
राजनीति जबर्दस्त हिचकोले खा रही थी और देश विनाशकारी शक्तियों द्वारा जकड़ लिया गया था। नादिरशाह तथा
अहमदशाह अब्दाली ने उत्तर भारत में बहुत बड़ी संख्या में मनुष्यों तथा पशुओं को मार डाला और तीर्थों तथा मंदिरों को
नष्ट कर दिया था । देश पर चढ़कर आने वाले आक्रांताओं को रोकने वाला कोई नहीं था।उस काल में उत्तर भारत के
शक्तिशाली राजपूत राज्य, मराठों की दाढ़ में पिसकर छटपटा रहे थे। होलकर, सिंधिया, गायकवाड़ और भौंसले, उत्तर
भारत के गांवों को नौंच-नौंच कर खा रहे थे। बड़े-बड़े महाराजाओं से लेकर छोटे जमींदारों की बुरी स्थिति थी। जाट और
मराठे निर्भय होकर भारत की राजधानी दिल्ली के महलों को लूटते थे। भारत की आम जनता करुण क्रंदन कर रही थी।
चारों ओर मची लूट-खसोट के कारण कृषि, पशुपालन, कुटीर धंधे, व्यापार, शिक्षण, यजन एवं दान आदि जन-जीवन की
प्रत्येक गतिविधियाँ ठप्प हो चुके थे। शिल्पकारों, संगीतकारों, चित्रकारों, नृतकों और विविध कलाओं की आराधना करने
वाले कलाकार भिखारी होकर गलियों में भीख मांगते फिरते थे। निर्धनों, असहायों, बीमारों, वृद्धों, स्त्रियों और बच्चों की
सुधि लेने वाला कोई नहीं था। ऐसे घनघोर तिमिर में महाराजा सूरजमल का जन्म उत्तर भारत के इतिहास की एक
अद्भुत घटना थी। उन्होंने हजारों शिल्पियों एवं श्रमिकों को काम उपलब्ध कराया। ब्रजभूमि को उसका क्षीण हो चुका
गौरव लौटाया। गंगा-यमुना के हरे-भरे क्षेत्रों से रूहेलों, बलूचों तथा अफगानियों को खदेड़कर किसानों को उनकी धरती
वापस दिलवाई तथा हर तरह से उजड़ चुकी बृज भूमि को धान के कटोरे में बदल लिया। उन्होंने मुगलों और दुर्दान्त
विदेशी आक्रान्ताओं को भारतीय शक्ति से परिचय कराया तथा चम्बल से लेकर यमुना तक के विशाल क्षेत्रों का स्वामी बन
कर प्रजा को अभयदान दिया।

स्मरणीय है कि महाराजा बदनसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र महाराजा सूरजमल जाट 1756 ईस्वी में भरतपुर राज्य के
शासक बने। आगरा, मेरठ, मथुरा, अलीगढ़ आदि उनके राज्य में सम्मिलित थे। अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दुस्तान के
सर्वाधिक शक्तिशाली शासक गिने जाने वाले महाराजा सूरजमल की सेना में 1500 घुड़सवार व 25 हजार पैदल सैनिक
थे। उन्होंने अपने पीछे 10 करोड़ का सैनिक खजाना छोड़ा।मराठा नेता होलकर ने 1754 में कुम्हेर पर आक्रमण कर
दिया। महाराजा सूरजमल ने नजीबुद्दोला द्वारा अहमद शाह अब्दाली के सहयोग से भारत को मजहबी राष्ट्र बनाने को
कोशिश को भी विफल कर दिया। इन्होने अफगान सरदार असंद खान, मीर बख्शी, सलावत खां आदि का दमन किया।
अहमद शाह अब्दाली 1757 में दिल्ली पहुंच गया और उसकी सेना ने ब्रज के तीर्थ को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया।
इसको बचाने के लिए केवल महाराजा सूरजमल ही आगे आये और उनके सैनिको ने बलिदान दिया, जिससे अब्दाली पुनः
लौट गया। जब सदाशिव राव भाऊ अहमद शाह अब्दाली को पराजित करने के उद्देश्य से आगे बढ़ रहा था, तभी स्वयं
पेशवा बालाजी बाजीराव ने भाऊ को परामर्श दिया कि उत्तर भारत में मुख शक्ति के रूप में उभर रहे महाराजा सूरजमल
का सम्मान कर उनके परामर्श पर ध्यान दिया जाए, लेकिन भाऊ ने युद्ध सम्बन्धी इस परामर्श पर ध्यान नही दिया और
अब्दाली के हाथों पराजित हो गया। 14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तिओं का संघर्ष
अहमदशाह अब्दाली से हुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था
और न ही इस क्षेत्र की उन्हें विशेष जानकारी थी। यदि सदाशिव भाऊ के महाराजा सूरजमल से मतभेद न होते, तो इस
युद्ध का परिणाम भारत और हिन्दुओं के लिए शुभ होता। इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने अपनी मित्रता निभाई।
उन्होंने शेष बचे घायल सैनिकों के अन्न, वस्त्र और चिकित्सा का प्रबंध किया। महारानी किशोरी ने जनता से अपील कर
अन्न आदि एकत्र किया। ठीक होने पर वापस जाते हुए हर सैनिक को रास्ते के लिए भी कुछ धन, अनाज तथा वस्त्र दिये।


अनेक सैनिक अपने परिवार साथ लाए थे। उनकी मृत्यु के बाद सूरजमल ने उनकी विधवाओं को अपने राज्य में ही बसा
लिया। उन दिनों उनके क्षेत्र में भरतपुर के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक,
मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव और मथुरा सम्मिलित थे। मराठों की पराजय के बाद भी महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद,
रोहतक और झज्जर को जीता। वीर की सेज समरभूमि ही है। 25 दिसम्बर, 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हुए युद्ध
में गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर महाराजा सूरजमल ने वीरगति पायी। उनके युद्धों एवं वीरता
का वर्णन सूदन कवि ने सुजान चरित्र नामक रचना में किया है। सूरजमल ने अभेद लोहागढ़ किले का निर्माण करवाया था,
जिसे अंग्रेज 13 बार आक्रमण करके भी भेद नहीं पाए । मिट्टी के बने इस किले की दीवारें इतनी मोटी बनाई गयी थी कि
तोप के मोटे-मोटे गोले भी इन्हें कभी पार नहीं कर पाए । यह देश का एकमात्र किला है, जो हमेशा अभेद रहा । हमारे
इतिहास को गौरवमयी बनाने का श्रेय सूरजमल जैसे वीर योद्धाओं को ही जाता है । जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए
अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए. ऐसे सच्चे सपूतों को हमेशा वीर गाथाओं में स्मरण किया जाता रहेगा, इसमें संदेह नहीं

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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