संघ कार्य में प्रशिक्षण का महत्व

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इन दिनों देश भर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षण वर्ग चल रहे हैं। वैसे तो ये वर्ग साल भर में कभी भी हो सकते हैं; पर गरमी की छुट्टियों के कारण अधिकांश वर्ग इन्हीं दिनों होते हैं।
1925 में जब संघ प्रारम्भ हुआ, तो संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार स्वयंसेवकों को सैन्य प्रशिक्षण देना चाहते थे। उनकी सोच थी कि अनुशासन तथा समूह भावना के निर्माण में यह सहायक हो सकता है; पर वे स्वयं इस बारे में कुछ नहीं जानते थे। इसलिए वे अपने सम्पर्क के कुछ पूर्व सैनिकों को बुलाकर रविवार की परेड में यह प्रशिक्षण दिलवाते थे। इसीलिए प्रारम्भ के कुछ वर्ष तक संघ में सेना की तरह अंग्रेजी आज्ञाएं, क्राॅस बैल्ट, कंधे पर आर.एस.एस का बैज आदि प्रचलित थे। ऐसी ही वेशभूषा पहने डा. हेडगेवार का एक चित्र भी बहुप्रचलित हैं। संघ के विकास और विस्तार के साथ क्रमशः अंग्रेजी के बदले संस्कृत आज्ञाओं का प्रचलन हुआ।
संघ स्थापना के कुछ समय बाद डा. हेडगेवार को यह भी ध्यान में आ गया कि संगठन के विस्तार के लिए सप्ताह में एक दिन और कुछ घंटे का प्रशिक्षण काफी नहीं है। अतः जून 1927 से ‘मोहिते के बाड़े’ वाले संस्थान पर 40 दिवसीय प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी। इसमें सैन्य प्रशिक्षण के अलावा लाठी-काठी जैसी चीजें भी होती थीं। सुबह चार घंटे शारीरिक तथा दोपहर में बौद्धिक कार्यक्रम होते थे। इसी में से क्रमशः ‘संघ शिक्षा वर्ग’ का स्वरूप बना। पहले इन्हें ओ.टी.सी. (आॅफिसर्स ट्रेनिंग कैम्प या अधिकारी शिक्षण वर्ग) कहते थे। इसी क्रम में आगे चलकर दस दिवसीय वर्ग को आई.टी.सी. (इन्स्ट्रक्टर ट्रेनिंग कैम्प) कहा गया। अब एक सप्ताह तक चलने वाले इन वर्गों को ‘प्राथमिक शिक्षा वर्ग’ कहते हैं।
काफी समय बाद संघ शिक्षा वर्ग की अवधि 30 से 25 और फिर 20 दिन की हो गयी। बीच में कुछ समय के लिए 15 दिन के प्रथम वर्ष तथा 25 दिन के द्वितीय वर्ष का प्रयोग भी हुआ। पर अब काफी समय से प्रथम और द्वितीय वर्ष के वर्ग 20 दिन के ही होते हैं। तृतीय वर्ष का वर्ग अब 25 दिन का होने लगा है। प्रथम वर्ष के वर्ग प्रान्त के अनुसार, द्वितीय वर्ष के क्षेत्र के अनुसार और तृतीय वर्ष का वर्ग पूरे देश का एक साथ नागपुर में ही होता है। इसमें सभी स्वयंसेवकों को संघ के अखिल भारतीय स्वरूप का ज्ञान होता है। भिन्न-भिन्न भाषाओं वाले स्वयंसेवक जब 25 दिन एक साथ रहते हैं, तो अद्भुत अनुभव होते हैं। गत कुछ साल से विशेष वर्ग भी होने लगे हैं। इनमें प्रौढ़ तथा स्नातक वर्ग प्रमुख हैं। संघ ने संगठन के हिसाब से देश को 41 प्रांत और 11 क्षेत्रों में बांट रखा है।
एक सप्ताह वाले प्राथमिक शिक्षा वर्ग एक जिले या दो-तीन जिलों को मिलाकर लगते हैं। ये विद्यार्थी, कर्मचारी, व्यापारी, किसान आदि की सुविधानुसार हर मौसम में होते हैं। 2015-16 में 961 प्राथमिक वर्गों में 1,12,520 शिक्षार्थियों ने भाग लिया। प्राथमिक वर्ग के बाद ही स्वयंसेवक 20 दिवसीय संघ शिक्षा वर्ग में जा सकता है। 2015-16 में पूरे देश में 83 संघ शिक्षा वर्ग लगे, जिनमें 24,831 शिक्षार्थियों ने भाग लिया। इनमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय, अर्थात तीनों स्तर के वर्ग शामिल हैं। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इनमें 80 प्रतिशत शिक्षार्थी युवा और उनमें से भी अधिकांश छात्र होते हैं।
प्रशिक्षण वर्ग का स्वयंसेवक तथा संगठन दोनों को लाभ होता है। वर्ग में आकर शिक्षार्थी पूरी तरह से संघ के वातावरण में डूब जाता है। संघ के प्रान्त से लेकर केन्द्रीय स्तर के वरिष्ठ कार्यकर्ता वहां उपलब्ध रहते हैं। वे सब भी वहीं रहते, खाते और अन्य गतिविधियों में शामिल होते हैं। उनके साथ औपचारिक तथा अनौपचारिक बातचीत में शिक्षार्थी की संघ संबंधी जानकारी बढ़ती है। उसके मन की जिज्ञासाओं का समाधान होता है। जो सदा उसके जीवन में लाभ देती है।
इसके साथ ही प्रत्येक स्वयंसेवक में कुछ प्रतिभा छिपी रहती है। कोई अच्छा वक्ता हो सकता है, तो कोई लेखक। कोई अच्छा गायक हो सकता है, तो कोई खिलाड़ी। किसी में तर्कशक्ति प्रबल होती है, तो किसी में श्रद्धा और समर्पण। वर्ग के कार्यक्रमों में उसकी यह प्रतिभा प्रकट होती है। अनुभवी कार्यकर्ता इसे पहचानकर उसे विकसित करने का प्रयास करते हैं। इसका लाभ स्वयंसेवक को जीवन भर होता है।
वर्ग में स्वयंसेवक की शारीरिक और मानसिक क्षमता बढ़ती है। इसका लाभ वर्ग के बाद उसकी शाखा को मिलता है। इससे शाखा की गुणवत्ता बढ़ती है तथा नये स्थानों पर शाखाओं का विस्तार होता है। वर्ग में सब एक साथ रहते, खेलते और खाते-पीते हैं। पड़ोसी स्वयंसेवक किस जाति और क्षेत्र का है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। वह किसान है या मजदूर, वकील है या डाक्टर, छात्र है या व्यापारी, नौकरी करता है या बेरोजगार, धनी है या निर्धन, शिक्षित है या अशिक्षित, ये सब बातें गौण हो जाती हैं। सबके मन में यही भाव रहता है कि स्वयंसेवक होने के नाते हम सब भाई हैं। भारत माता हम सबकी माता है।
वर्ग के अनुशासन और दिनचर्या का स्वयंसेवक के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। घर में वह अपने मन से सोता, जागता, खाता और रहता है; पर वर्ग में वह धरती पर अपना बिस्तर लगाकर सबके साथ रहता है। प्रातः चार बजे से रात दस बजे तक की कठिन दिनचर्या का पालन करता है। अपने बर्तन और कपड़े स्वयं धोता है। भोजन अति साधारण और निश्चित समय पर होता है। वर्ग में प्रत्येक शिक्षार्थी को अपनी बारी आने पर भोजन वितरण भी करना होता है। इस प्रकार उनमें स्वावलम्बन की भावना का विकास होता है। इससे स्वयंसेवक जीवन के किसी क्षेत्र में कभी मार नहीं खाता।
इसे पढ़कर शायद कुछ लोगों को लगे कि ये व्यवस्थाएं संघ के खर्चे से होती हैं ? जी नहीं। इसके लिए हर शिक्षार्थी से शुल्क लिया जाता है। अपने साबुन, तेल, मंजन आदि का प्रबंध भी शिक्षार्थी स्वयं ही करते हैं। वर्ग की व्यवस्था संभालने के लिए बड़ी संख्या में अनुभवी कार्यकर्ता भी वहां रहते हैं। उनमें से अधिकांश शारीरिक और बौद्धिक शिक्षण की व्यवस्था देखते हैं, जबकि बुजुर्ग कार्यकर्ता भोजनालय, जल, चिकित्सा, यातायात, कार्यालय आदि की चिन्ता करते हैं। ये सब भी अपना शुल्क देते हैं।
ग्रीष्मावकाश में ऐसे वर्ग कुछ अन्य संस्थाएं भी आयोजित करती हैं; पर वे सरकारी पैसे से पिकनिक का साधन मात्र बनकर रह जाते हैं। इनमें भाग लेने वालों का उद्देश्य जैसे-तैसे कुछ प्रमाण पत्र पाना ही होता है, जिससे भविष्य में नौकरी या पदोन्नति आदि में सहायता मिल सके। जबकि संघ के प्रशिक्षण वर्गों में शिक्षार्थी यह सोचकर आता है कि उसे अपने क्षेत्र की शाखा को प्रभावी बनाने के लिए प्रशिक्षण लेना है। इसलिए वह पूर्ण मनोयोग से प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लेता है। वह किसी के दबाव या लालच से नहीं, अपितु अपनी इच्छा से वर्ग में आता है। इसलिए अन्य संस्थाओं के वर्गों में जहां उच्छृंखलता व्याप्त रहती है, वहां संघ के प्रशिक्षण वर्ग में चारों ओर प्रेम और अनुशासन की गंगा बहती दिखायी देती है।
जिस स्थान पर वर्ग लगते हैं, वहां की शाखा और कार्यकर्ताओं को भी इससे लाभ होता है। वर्ग के लिए कई तरह की व्यवस्थाएं करनी होती हैं। समाज के प्रभावी लोगों तथा संस्थाओं से सम्पर्क कर वर्ग के लिए साधन जुटाने होते हैं। अतः निष्क्रिय कार्यकर्ता भी सक्रिय हो जाते हैं। स्थानीय कार्यकर्ता नये-नये लोगों को वर्ग दिखाने के लिए लाते हैं। इससे वे भी संघ से जुड़ते हैं। वर्ग के दौरान पथ-संचलन तथा सार्वजनिक समापन कार्यक्रम से स्थानीय हिन्दू समाज में उत्साह का निर्माण होता है।
इस प्रकार संघ शिक्षा वर्ग न केवल शिक्षार्थियों, अपितु व्यवस्थापकों और स्थानीय कार्यकर्ताओं के लिए भी वरदान बनकर आता है।
विजय कुमार

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