सृष्टि की प्रलयावस्था में हम सभी जीव 4.32 अरब वर्ष तक बिना जन्म-मरण गहरी निद्रा में रहेंगे

0
346

मनमोहन कुमार आर्य

                मनुष्य एक चेतन आत्मा है जो अनादि, नित्य, अविनाशी तथा अमर है। यह भाव पदार्थ है। इसका कभी अभाव नहीं होता और न ही हो सकता है। भाव पदार्थ का कदापि अभाव न होना और अभाव से भाव पदार्थ का अस्तित्व में न आना वैज्ञानिक सिद्धान्त है। हम हैं, इसका अर्थ है कि हम भाव पदार्थ है। हमारा अस्तित्व है और यह अस्तित्व यथार्थ और सत्य है। हमारी आत्मा के वस्तु स्वरूप में कभी विकार नहीं आता। जैसे दूध से घृत बन जाता है और हाईड्रोजन तथा आक्सीजन से मिलकर जल बनता है, ऐसी क्रियायें आत्मा के साथ नहीं होती। आत्मा किसी पदार्थ से मिलकर कोई नया पदार्थ नहीं बनाता और न ही इसके गुणों वा स्वरूप में मौलिक परिवर्तन होता है जैसा कि दूध से घृत व हाईड्रोजन के आक्सीजन के मिलने पर होता है। संसार में तीन पदार्थ अनादि और नित्य हैं। यह हैं ईश्वर, जीव और प्रकृति। प्रकृति में विकार होने से ही यह सारा स्थूल, पार्थिव व जड़ जगत बना है। प्रकृति का गुण जड़ वा जड़ता है जो इसके सभी उत्पादों पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि में देखने को मिलता है। ईश्वर तथा जीवात्मा चेतन पदार्थ हैं। जीवात्मा का आरम्भ व उत्पत्ति नहीं है। यह सदा से हैं और सदा रहेंगे। अनन्त काल बीत जाने पर भी इनका अन्त वा नाश अर्थात् अभाव नहीं होगा। यह जीवात्मा मनुष्य जन्म लेने पर जो शुभ व अशुभ कर्म करता है, उसका फल भोगने के लिए ही ईश्वर इसको इसके कर्मों के अनुसार संसार में विद्यमान नाना प्रकार की योनियों में से किसी एक योनि में जन्म देते हैं और कर्मों का भोग कराते हैं जो सुख व दुःख रूप से दो प्रकार के होते हंै। इसी कारण से यदि मनुष्य के पाप अधिक होते हैं तो उसे मनुष्य योनि मे जन्म न मिलकर इतर पशु, पक्षी, कीट, पतंग तथा स्थावर आदि योनियों में जन्म मिलता है। वेदों से हमें इन बातों का ज्ञान परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में कराया था। सृष्टि की उत्पत्ति के बाद हमारे देश के ऋषियों व योगियों ने वेदों के अध्ययन वा स्वाध्याय सहित चिन्तन व मनन से वेद ज्ञान का सरलीकरण व विस्तार किया और देश की प्रजा के लिए दर्शन एवं उपनिषद् आदि ग्रन्थों की रचनायें की। इससे हम वेदों व उसके सिद्धान्तों एवं मान्यताओं को जान सकते हैं। वेदों, दर्शन एवं उपनिषद् आदि शास्त्रों का ज्ञान बुद्धिसंगत, तर्कसंगत एवं सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से सबके लिए मान्य एवं विश्वास करने योग्य है। ऐसा करके ही हम अपने जीवन को समझ सकते हैं तथा इसको इसके लक्ष्य ‘धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष’ की प्राप्ति में लगाकर जन्म व मरण से होने वाले दुःखों से मुक्ति व मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। सभी मनुष्यों को सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए वेदों सहित ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। ऋषि दयानन्द की मानव जाति पर अत्यन्त करूणा व दया रही कि उन्होंने समस्त वेदों तथा शास्त्रों का अभिप्राय हिन्दी भाषा में अपने विख्यात ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा संस्कार विधि में प्रस्तुत किया जिसे पढ़कर हम वेदों व शास्त्रों के स्वाध्याय से होने वाले लाभों को प्राप्त हो सकते हैं।

                वेदों में हमें ईश्वर सहित जीव तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप एवं ईश्वर द्वारा प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति तथा सृष्टि की उत्पत्ति के प्रयोजन सहित मनुष्यों के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान भी होता है। वेद व शास्त्रों की मान्यता है कि ईश्वर अनन्त जीवों को उनके पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों का फल देने के लिए सृष्टि की उत्पत्ति व इसका पालन करते हैं। इस सृष्टि की आयु एक कल्प होती है जो 4.32 अरब वर्षों के बराबर होती है। इसके बाद इस कार्य सृष्टि की प्रलय या मृत्यु हो जाती है जो प्रलय व रात्रि कहलाती है। प्रलय की अवधि भी 4.32 अरब वर्ष होती है। सृष्टि काल में जीवात्मायें अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेती व मृत्यु को प्राप्त होती रहती हैं। जन्म के बाद मृत्यु व मृत्यु के बाद जन्म होता रहता है। इसे आवागमन वा जन्म-मरण चक्र कहा जाता है। यह जन्म-मरण व पुनर्जन्म का सिद्धान्त सत्य सिद्धान्त है। यदि मृत्यु के बाद पुनर्जन्म न मानें तो फिर यह प्रश्न होता है कि अमर व अविनाशी आत्मा कहां रहता है व क्या करता है। पुनर्जन्म न हो तो ईश्वर पर भी दोष आता है कि वह जीवों को सुख नहीं दे रहा है। कर्म फल व्यवस्था भी पुनर्जन्म न होने से भंग हो जाती है। यदि मृत्यु के बाद जन्म न हो तो यह संसार में प्रतिदिन हो रहे बच्चों के जन्म को देखकर असत्य सिद्ध होता है तथा पुनर्जन्म होने की पुष्टि होती है। सृष्टि के आदि काल से जो जन्म व मृत्यु का क्रम वा चक्र चल रहा है उससे भी पुनर्जन्म होने के सिद्धान्त की पुष्टि होती है। जन्म उन्हीं आत्माओं का होता है जिनकी पूर्वजन्म में मृत्यु होती है अन्यथा बिना मृत्यु व आत्मा की उपलब्धता के मनुष्य व किसी प्राणी का जन्म नहीं हो सकता। सृष्टि जब 4.32 अरब वर्ष की हो जाती है तो ईश्वरीय व प्राकृतिक नियमों के अनुसार इसकी प्रलय हो जाती है। प्रलय अवस्था होने पर सृष्टि की रात्रि अवस्था आरम्भ होती है जो 4.32 अरब वर्ष की होती है। इसके बाद ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करते व इसका पालन करते हैं। इन चार अरब बत्तीस लाख वर्षों की प्रलय अवस्था में किसी भी जीवात्मा का किसी भी योनि में जन्म नहीं होता। जिस प्रकार हम रात्रि में गहरी नींद में सोये होते हैं और आत्मा का सम्बन्ध ज्ञान व कर्म इन्द्रियों से पृथक हो जाता है, मनुष्य को किसी भी प्रकार से सुख व दुःख का अनुभव नहीं होता, कुछ इसी प्रकार से प्रलय अवस्था में भी जीवात्मायें बिना किसी प्राणी योनि में जन्म लिये सुप्तावस्था में होती हैं। उनको किसी प्रकार के सुख व दुःख की प्राप्ति नहीं होती। यह अवस्था सभी जीवों की समान रूप से होती है। इस सृष्टि व प्रलय से पूर्व अनन्त बार सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय हुई है। हम भी सृष्टि अवस्था में कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते रहे हैं और प्रलय अवस्थाओं में बिना जन्म लिये शरीर रहित होकर हमने 4.32 अरब वर्षों की प्रलय अवस्था में निद्रा व सुप्तावस्था में अपना समय बिताया है। इस सृष्टि की प्रलय व उसके बाद पुनः सृष्टि व प्रलय होने पर हमारा जन्म होता रहेगा। प्रलय अवस्था में हम प्रलय की अवधि में 4.32 अरब वर्षों तक बिना जन्म लिये सुप्त व निद्रावस्था के समान अवस्था में रहेंगे। हमें अपनी व अन्य जीवात्माओं विषयक इस सिद्धान्त, तथ्य व स्थिति का ज्ञान होना चाहिये, इसलिये हमने यह लेख लिखा है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक मित्र इससे लाभान्वित होंगे। हमें जीवात्मा की स्थिति विषयक इस रहस्य को जानकर ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए हमें वेद व ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये जिसमें सत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इन सिद्धान्तों के अनुसार आचरण करके ही हमें अपने मुक्ति वा मोक्ष के लिए प्रयत्न करने चाहियें जिससे हम आवागमन के चक्र से छूट कर ईश्वर के आनन्दस्वरूप में मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक सुखपूर्वक रह सके। मोक्ष की प्राप्ति ही सभी जीवात्माओं का लक्ष्य है। हमें इसके लिये अवश्य प्रयत्न करने चाहिये। ऐसा करने पर ही हमारा विश्व सुख का धाम बन सकेगा। अन्याय व शोषण न्यूनतम स्थिति में आ सकते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति,स्थिति एवं प्रलय तथा आवागमन विषयक वैदिक सिद्धान्तके विपरीत जो ज्ञान-अज्ञान व बातें हैं, वह सब अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञान है। अविद्या का त्याग तथा विद्या को प्राप्त होकर विद्या के अनुसार कर्म एवं व्यवहार करना ही हम सब जीवों का कर्तव्य एवं धर्म है। हम यह भी बता दें कि जिस दिन संसार से अविद्या दूर हो जायेगी, उस दिन अविद्यायुक्त सभी मत एक सत्य-मत व धर्म में विलीन हो जायेंगे। वह मत विद्या पर आधारित होगा जिसे हम वेदों पर आधारित वैदिक धर्म कह सकते हैं। वेद में अविद्या नहीं है और जो कुछ ज्ञान है उसे ही विद्या कहते हैं। यह भी जान लें कि वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थ ऋषि दयानन्द की पोषक संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति से करने पर ही प्राप्त होते हैं, अन्यथा नहीं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here