अंधविश्वास की गिरफ़्त में ज़िंदगी

विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारा समाज अंधविश्वास के गर्त से बाहर नहीं निकल पाया है। कहने को तो हमारे देश की साक्षरता 74 प्रतिशत है लेकिन इसके विपरीत आए दिन अंधविश्वास के नाम पर घटित होने वाली प्रताड़ना व मारपीट की घटनाएं हमारे देश के खोखले विकास की पोल खोलकर रख देती है। एक ओर इसरो के सफल प्रक्षेपण की ख़बरें हमें खुश कर रही है तो वहीं दूसरी ओर अंधश्रद्धा की ख़बरें हमारी खुशी को ग़म में तब्दील कर रही है। ये अजीब कशमकश है जिसमें हमारा समाज और देश पीसता जा रहा है। सोचने की बता तो यह भी है कि समय के साथ विज्ञान के विकास के बाद जिस आडंबर और अंधविश्वास का अंत होना चाहिए था, वो अब तक नहीं हो सका है। बल्कि दुःख इस बात का है कि आधुनिक व शिक्षित पीढ़ी भी इस मार्ग का अंधानुकरण करती जा रही है। काला जादू, भूत-प्रेत, मानव व पशु बलि, डायन प्रथा, बाल विवाह से लेकर कांच के टूटने, बिल्ली के रास्ते काटने, पीछे से टोकने व कई गणितीय अंकों को भी अंधविश्वास के नजरिये से परखा और जांचा जा रहा हैं। दिन व कपड़ों में भी आपको अंधविश्वास का असर देखने को मिल जाएगा।

यह बताते हुए मन आक्रोश से भर उठता है कि आज भी राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में बंकाया देवी के मंदिर में अंधविश्वास के नाम पर महिलाओं के साथ शर्मसार करने वाले काम हो रहे हैं। यहां भूत-प्रेत भगाने के लिए महिलाओं को पति के जूतों को सिर पर उठाने व उनमें पानी पीने जैसे कृत्य करवाकर उन्हें लज्जित किया जा रहा हैं। यह एक उदाहरण मात्र है बल्कि देश के कई गांवों व शहरों में इससे भी ख़ौफ़नाक व गलत काम अंधविश्वास के नाम पर धड़ल्ले से अंजाम ले रहे हैं। डायन प्रथा के नाम पर आज भी स्त्रियों की देह के साथ तरह-तरह के टोटके आजमाएं जा रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 1991 से लेकर 2010 तक देशभर में लगभग 1,700 महिलाओं को डायन घोषित कर उनकी हत्या कर दी गई। हालांकि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2001 से लेकर 2014 तक देश में 2,290 महिलाओं की हत्या डायन बताकर कर दी गई। 2001 से 2014 तक डायन हत्या के मामलों में 464 हत्याओं में झारखंड अव्वल रहा तो ओडिशा 415 हत्याओं के साथ दूसरे स्थान पर है। वहीं 383 हत्याओं के साथ आंध्र प्रदेश तीसरे स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार, 1987 से लेकर 2003 तक 2,556 महिलाओं की हत्या डायन के शक पर कर दी गई है। रिपोर्ट बताती है कि हर साल कम से कम 100 से लेकर 240 महिलाएं डायन बताकर मार दी जाती हैं। इनमें ज्यादातर मामलों के पीछे संपत्ति विवाद होता है या फिर ऐसी हत्या के पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य साधा जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, असम सहित कई अन्य राज्यों में डायन प्रथा के नाम पर अंधविश्वास का मकड़जाल फैला हुआ हैं।

अब अगर कानून की बात करें तो डायन हत्या का मामला गैरजमानती, संज्ञेय और समाधेय है। इसकी सजा 3 साल से लेकर आजीवन कारावास या 5 लाख रुपए तक का जुर्माना या दोनों हो सकती है। किसी को डायन ठहराया जाना अपराध है और इसके लिए कम से कम 3 साल और अधिकतम 7 साल की सजा हो सकती है। वहीं, डायन बताकर किसी पर अत्याचार करने की सजा 5-10 साल तक की है। किसी को डायन बताकर बदनाम कर दिए जाने के कारण अगर कोई आत्महत्या कर लेता है तो आरोपी का जुर्म साबित होने पर 7 साल से लेकर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है। किसी को डायन बताकर उसके कपड़े उतरवाने की सजा 5-10 साल की कैद तय की गई है। किसी बदनीयती से डायन करार दिए जाने की सजा 3-7 साल और डायन बताकर गांव से निष्कासित किए जाने की सजा 5-10 साल की तय की गई है। बंगाल, महाराष्ट्र में अभी तक इस संबंध में कोई पुख्ता कानून नहीं है। अभी तक इन दोनों ही राज्यों में कानून का मसौदा ही तैयार हो रहा है। कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां डायन हत्या की रोकथाम के लिए विशेष कानून बनाया गया है। ऐसे राज्यों में राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ और असम के नाम आते हैं। छत्तीसगढ़ में 2005 में टोनही प्रताड़ना निवारण अधिनियम बनाया गया, जिसके तहत डायन बताने वाले शख्स को 3 से लेकर 5 साल तक की सजा का प्रावधान किया गया है। राजस्थान सरकार ने महिला अत्याचार रोकथाम और संरक्षण कानून 2011 में डायन हत्या के लिए अलग से धारा 4 को जोड़ा है। इस धारा के तहत किसी महिला को डायन, डाकिन, डाकन, भूतनी बताने वाले को 3-7 साल की सजा और 5-20 हजार रुपए के जुर्माने को भरने का प्रावधान किया गया है। अगस्त 2015 में असम विधानसभा ने डायन हत्या निवारक कानून पारित किया, क्योंकि इस राज्य में डायन हत्या एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रही थी। वहीं, बिहार में 1999 और झारखंड में 2001 में डायनप्रथा रोकथाम अधिनियम आया। खेद का विषय यह है कि देश में डायन हत्या का चलन अभी भी खत्म नहीं हुआ।

ऐसे में सवाल तो यह भी है कि जिन राज्यों में कानून मौजूद है वहां भी इन अपराधों में गिरावट नहीं आंकी जा रही हैं। क्या महज़ कानून बनाने से अंधविश्वास का अंत हो सकेगा ? दरअसल इस अंधविश्वास का एक ही इलाज है वो है – विश्वास। जब हमारा विश्वास डगमगाने लगता है तो हमे अंधविश्वास की बैसाखियों की जरूरत पड़ती हैं। हमें समझना होगा किसी बाबा के द्वारा दी गई मालाएं, अंगूठी व ताबीज़ धारण करने व पकौड़े के साथ लाल और हरी चटनी खाने से किस्मत नहीं बदलेगी। बल्कि गीता के अनुसार स्पष्ट तौर पर कहा गया है – ‘​​कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन’ अर्थात् कर्म योग में आस्था रखनी चाहिए। आज की इक्कीसवीं सदी में हम यदि भूत-प्रेत और डायन प्रथाओं का बोझ ढो रहे है तो यह हमारे देश के लिए सबसे बड़ा कलंक है। ये डिजिटल और स्मार्ट इंडिया के अरमानों पर पानी फेरने जैसा है। इस विकृत सोच को मिटाना होगा तभी भारत आगे बढ़ पाएगा।

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