साइलेंट किलर ‘ध्वनि प्रदूषण’ के आगोश में मानवजाति

सुनील कुमार महला


ध्वनि प्रदूषण की समस्या भारत में आज एक बड़ी शहरी समस्या है, जो एक अदृश्य प्रदूषण है। सच तो यह है कि ध्वनि प्रदूषण एक साइलेंट किलर है। बढ़ती जनसंख्या, लगातार बढ़ते शहरीकरण, अंधाधुंध औधोगिकीकरण, लगातार बढ़ते ट्रैफिक, विकास के आयामों के कारण आज ध्वनि प्रदूषण की समस्या ने बहुत ही विकराल रूप धारण कर लिया है। औधोगिक घरानों में मशीनों से होने वाला ध्वनि प्रदूषण,वाहनों के हॉर्न बजाने से होने वाला प्रदूषण, सड़क पर काम करने वाले लोगों द्वारा ड्रिलिंग करने से होना वाला प्रदूषण, डीजे, बैंड व लाउडस्पीकरों से होने वाला प्रदूषण तथा अन्य चीजों से पैदा होने वाला शोर हमारे शांत वातावरण में जहां एक ओर व्यवधान पैदा करता है वहीं दूसरी ओर जैसा कि विशेषज्ञ बताते हैं, ध्वनि प्रदूषण प्रजनन चक्र बाधित होने के साथ ही साथ प्रजातियों के विलुप्त होने को भी तेज करता है। आज प्लंबिंग, बॉयलर, जनरेटर, एयर कंडीशनर और पंखे, कूलर शोर का कारण बनते हैं।बायलर, टरबाइन, क्रशर तो बड़े कारक हैं ही, परिवहन के लगभग सभी साधन तेज ध्वनि पैदा कर, कोलाहल के साथ वायु प्रदूषण भी बढ़ाते हैं। विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों के पैदा होने वाला शोर भी बड़ा कारण है। इतना ही नहीं,बिना इन्सुलेशन वाली दीवारें और छतें पड़ोसी इकाइयों से आने वाले संगीत, आवाज़ें, कदमों और अन्य गतिविधियों को प्रकट करतीं हैं। विमान, ड्रिलिंग , विभिन्न आपातकालीन वाहन यथा एंबुलेंस, अग्निशमन यंत्र व गाड़ियां, पटाखों का फोड़ना भी शोर के कारण बनते हैं। मनोरंजन के साधन टीवी, रेडियो भी ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं। जेट विमान तो शोर के कारण हैं ही।

विभिन्न धार्मिक, वैवाहिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक कार्यक्रमों में भी ध्वनि विस्तारकों का प्रयोग शोर को बढ़ावा देता है। इतना ही नहीं बिजली कड़कने, ज्वालामुखी, भूकंप , विस्फोट अन्य कारण हैं। यहां तक कि वैक्यूम क्लीनर और विभिन्न रसोई उपकरण शोर पैदा करते हैं। आज के समय में विवाह शादियों में खानपान, डीजे डांस और नाइटलाइफ़, आउटडोर बार, रेस्तरां और छतों पर 100 डीबी से ज़्यादा शोर सुनने को मिलता है। सच तो यह है कि पब और क्लब शोर करते हैं। यहां तक कि मस्जिदों, मंदिरों, चर्चों और अन्य संस्थानों में भी आज निश्चत डेसिबल स्तरों से ऊपर शोर सुनने को मिलता है। इतना ही नहीं,पशु-पक्षियों तक की भूमिका भी बहुत बार शोर में होती है।उल्लेखनीय है कि ध्वनि प्रदूषण एक अवांछित ध्वनि है जो पशु (वन्य जीवों ) और मानव व्यवहार को प्रभावित कर सकती है, हालांकि यह भी एक तथ्य है कि सभी शोर प्रदूषण नहीं होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन 65 डेसिबल से ऊपर के शोर को प्रदूषण के रूप में वर्गीकृत करता है। 75 डेसिबल पर शोर हानिकारक है और 120 डेसिबल पर कष्टदायक है।

शोर का उच्च स्तर मनुष्य और प्राणियों दोनों के ही स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है।शोर का उच्च स्तर बच्चों और बुजुर्गों में टिनिटस या बहरापन पैदा कर सकता है। चिकित्सकों का मानना है कि 80 डीबी(डेसिबल) वाली ध्वनि कानों पर अपना प्रतिकूल असर डालती है। 120 डीबी की ध्वनि कान के पर्दों पर भीषण दर्द उत्पन्न कर देती है और यदि ध्वनि की तीव्रता 150 डीबी अथवा इससे अधिक हो जाए तो कान के पर्दे फट सकते हैं, जिससे व्यक्ति बहरा हो सकता है। गौरतलब है कि मानव कान अनुश्रव्य (20 हर्ट्ज से कम आवृत्ति) और पराश्रव्य (20 हजार हर्ट्ज से अधिक आवृत्ति) ध्वनि को सुनने में अक्षम होता है। आज लगातार शोर के संपर्क में रहने से मानव कान कमजोर होते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, दुनियाभर में लगभग डेढ़ अरब लोग इस समय कम सुनाई देने की अवस्था के साथ जीवन गुजार रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि 2050 तक दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति यानी लगभग 25 प्रतिशत आबादी किसी न किसी हद तक श्रवण क्षमता में कमी की अवस्था के साथ जी रही होगी। अत्यधिक तेज, लगातार शोर के कारण श्वसन संबंधी उत्तेजना, नाड़ी का तेज चलना, उच्च रक्तचाप, माइग्रेन, गैस्ट्राइटिस, कोलाइटिस और दिल का दौरा पड़ना आदि हो सकता है। शोर परेशानी, थकान, अवसाद, चिंता, आक्रामकता और उन्माद पैदा कर सकता है। यह हमारी एकाग्रता में कमी लाता है। अध्ययन में विशेष व्यवधान पैदा करता है। 45 डेसिबल से अधिक शोर नींद में खलल(अनिद्रा की शिकायत) डालता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) 30 डेसिबल की सिफारिश करता है। बहरहाल, आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि हर वर्ष योरोपीय संघ में ध्वनि प्रदूषण के कारण 12 हजार लोगों की असामयिक मौत हो जाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वायु प्रदूषण के बाद शोर स्वास्थ्य समस्याओं का दूसरा सबसे बड़ा पर्यावरणीय कारक है। शोर हमारे हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के साथ ही हमारी जीवनशैली को भी प्रभावित करता है। अवांछित और अप्रिय शोर मनुष्य में तनाव, अवसाद लाता है और चिड़चिड़ापन पैदा करता है। यहां यह गौरतलब है कि वर्ष 2018 में जारी अपने दिशा-निर्देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिन के समय ध्वनि प्रदूषण के विभिन्न स्रोतों के लिए पृथक मापदंड जारी किये थे, जिसके अनुसार सड़क यातायात में दिन के समय शोर का स्तर 53 डेसिबल, रेल परिवहन में 54, हवाई जहाज और पवन चक्की चलने के दौरान 45 डेसिबल से अधिक नहीं होना चाहिए।

आज लोग भले ही ध्वनि विस्तारकों को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानने लगें हों लेकिन ये प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है। वर्ष 2005 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लाउडस्पीकरों पर आदेश देते हुए यह कहा था कि ऊंची आवाज़ सुनने के लिए मजबूर करना मौलिक अधिकारों का हनन है। आज सार्वजनिक स्थलों पर रात दस बजे से सुबह छह बजे तक शोर मचाने वाले उपकरणों पर पाबंदी है लेकिन बावजूद इसके लोग ऐसा करते हैं। आज आबादी, अस्पताल और स्कूली क्षेत्र में प्रेशर हार्न बजाने,तेज पटाखों को छोड़ने पर रोक है।ध्वनि प्रदूषण नियम, 2000 के अनुसार व्यावसायिक, शांत और आवासीय क्षेत्रों के लिए ध्वनि तीव्रता की सीमा तय है।औद्योगिक क्षेत्रों में दिन में 75 और रात न 70 डेसिबल की सीमा सुनिश्चित है। व्यावसायिक क्षेत्रों के लिए दिन में 65 और रात में 55, आवासीय क्षेत्रों में दिन में 55 और रात में 45 तो शांत क्षेत्रों में दिन में 50 और रात में 40 डेसिबल तीव्रता की सीमा तय है।

यह ठीक है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) एक मौलिक अधिकार है, जो किसी को भी बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांति से इकट्ठा होने, भारत के किसी भी हिस्से में रहने आदि की स्वतंत्रता की गारंटी देता है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि कोई भी अपने मौलिक अधिकारों का दुरूपयोग करे। जीवन को शांति और संयम के साथ जीने का अधिकार धरती के प्रत्येक प्राणी को है, इसलिए इस धरती का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होते हुए हमें यह चाहिए कि हम ऐसा कोई भी व्यवहार न करें जिससे दूसरों की ज़िंदगी में खलल, व्यवधान अथवा कोई परेशानियां पैदा हों।

सुनील कुमार महला

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