भागवत के विजय-उद्बोधन की प्रेरणाएं

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-ललित गर्ग-
विजयादशमी भारतीय राष्ट्र के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशिष्ट उत्सव है। यह उत्सव प्रतिवर्ष मनाते हुए जहां शक्ति की कामना की जाती है, वहीं राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की ओर ध्यान खींचा जाता है। इससे नई प्रेरणा, नई ताजगी, नई शक्ति एवं नई दिशाएं मिलती है। सरसंचालक श्री मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शासनसूत्र को संभाले हुए है। हर विजयदशमी को याने दशहरे के दिन संघप्रमुख का नागपुर में विशेष व्याख्यान होता हैं, इस वर्ष भी हुआ। क्योंकि इस दिन संघ का जन्म-दिवस मनाया जाता है, इसलिये यह भाषण सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। इस वर्ष का उनका उद्बोधन विशेष है, क्योंकि उनके सकारात्मक क्रांतिकारी विचारों से न केवल राष्ट्र में सक्रिय नकारात्मक एवं अराष्ट्रीय ताकतों को सख्त संदेश दिया गया बल्कि पडौसी पाकिस्तान-चीन आदि देशों की कुचेष्टाओं के लिये ललकारा भी गया एवं सावधान भी किया गया है। भागवत ने पड़ौसी देशों की नीति के साथ कोरोना महामारी, कृषक नीति, शिक्षा नीति और आर्थिक नीति आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए। शिक्षा नीति पर बोलते हुए उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी सशक्त बनाने पर बल दिया। चैहत्तर वर्ष की देहरी पर खड़े होकर राष्ट्र के अतीत को देखा-परखा जाए तो ऐसा लगता है कि अब राष्ट्र का कायाकल्प हो रहा है। मूलभूत आस्थाओं एवं राष्ट्रीयता के दृढ़ीकरण के साथ देश में जो नई चेतना आई है, वह एक शक्तिशाली नेतृत्व का जीवंत साक्ष्य है। राष्ट्रीयता, स्व-पहचान, स्वदेशी-भावना, हिन्दू-संस्कृति के ऊर्जा के अक्षय स्रोतों की खोज में जो प्रयत्न किया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है। जन-आकांक्षा के अनुरूप राष्ट्र को जिस युगीन परिवेश में प्रस्तुति दी जा रही है, वह असाधारण है। इन सब परिवर्तनों-परिवर्धनों एवं राष्ट्र को सशक्त करने के बावजूद संघ की सादगी का सौन्दर्य निराला है। विजयादशमी का मोहन भागवत का विजय- उद्बोधन भारत के सांस्कृतिक, राष्ट्रीय एकता, सीमा-सुरक्षा और सैद्धांतिकता से जुड़े सवालों पर एक प्रेरक उद्बोधन है।
मोहन भागवत ने विजय-उद्बोधन में उन राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है जो सामान्य जन की चर्चा में रहे हैं और जिन पर जमकर राजनीतिक विवाद भी होता रहा है। चीन के अतिक्रमण का मामला हो या कोरोना महामारी। इन सन्दर्भों में भागवत का यह कहना कि चीन ने कोरोना काल में सीमाओं पर युद्ध जैसा माहौल बनाने का दुस्साहस किया जिससे उसकी विस्तारवादी प्रवृत्ति का पता चलता है। संघ प्रमुख चीन को दिये गये भारत-सरकार के उत्तर से सन्तुष्ट दिखते हैं और मानते हैं कि चीनी अतिक्रमण का जवाब इसी तरह आक्रामक तरीके दिया जाना जरूरी था। इससे चीन के हौसले पस्त हुए है। वास्तव में चीन की हेकड़ी ढीली करने के लिए भारत ने कई मोर्चों पर काम किया, इनमें सैनिक व आर्थिक मंच प्रमुख कहे जा सकते हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि चीन का मुकाबला करने के लिए भारत को और सशक्त होना पड़ेगा।
मोहन भागवत ने पिछले आठ दशकों में लगातार हिन्दू-संस्कृति को कमजोर करने की राजनीतिक चालों को भी इस अवसर पर आड़े हाथ लिया। दरअसल हिन्दू धर्म नहीं, विचार है, संस्कृति है। हिन्दू राष्ट्र होने का अर्थ धर्म से न होकर हिन्दू संस्कृति के सर्वग्राही भाव से है। हिन्दू संस्कृति उदारता का अन्तर्निहित शंखनाद है क्योंकि पूरे विश्व में यह अकेली संस्कृति है जो बहुविचारवाद यानी सभी धर्म, विचार एवं संस्कृतियों को स्वयं में समेटे हैं। चार्वाक जैसे भौतिकवादी विचारक को भी इस देश ने ऋषि की उपाधि दी गई जिसने कहा था कि ‘ऋणं कृत्व घृतं पीवेत’ अर्थात जो भी है वह आज है, कल किसने देखा है इसलिए आज को भरपूर ढंग से जीना चाहिए और कर्जा लेकर भी अगर यह करना पड़े तो करना चाहिए। इसके साथ ही हमारे ऋषियों ने हमें यह उपदेश भी दिया कि ‘सत्यं बूर्यात न बूर्यात सत्यं अप्रियं’ अर्थात सच बोलो मगर कड़वा सच मत बोलो। हिन्दू संस्कृति की यही महानता और विशेषता रही है कि प्रिय सत्य की वकालत तो करती है मगर इसके कटु होने पर निषेध करने को भी कहती है। यह हिन्दू संस्कृति अहिंसा की संस्कृति है पर जरूरत पड़ने पर शस्त्र उठाकर स्व-रक्षा की बात भी कहती है। हिन्दू शब्द से ही स्वराष्ट्र का बोध होता है जो कि हिन्दू संस्कृति के वृहद स्वरूप का ही सौपान है।
सूरज की एक किरण को देखकर सूरज बनने का सपना संजोने वाला महान् होता है, वह और भी महान होता है, जो सूरज बनने का सपना देखकर परिपूर्ण सूरज बन जाता है। कोई-कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो अपनी रोशनी से एक समूची परम्परा, राष्ट्रीयता को उद्भासित कर देता है। मोहन भागवत ऐसे ही संघ-सरसंचालक है, महान् राष्ट्रवादी व्यक्तित्व है। उनकी विरलता या महत्ता के दो मानक है- राष्ट्रवादी सोच एवं लोकहितकारी प्रवृत्तियां। उन दो सोपानों के आधार पर वे के विरलता-महानता ऊंचे शिखर पर आरूढ़ है। मोहन भागवत एक महान् क्रांतिकारी युगपुरुष हैं। सामान्यतः क्रांति शब्द से रक्त-क्रांति या हिंसात्मक-क्रांति का बोध होता है लेकिन संघ की क्रांति इसके वितरीत है। तथाकथित सत्तालालसा की राजनीति करने वालों ने इस शब्द का अपकर्ष किया है। किन्तु इसका अर्थबोध इतना सीमित नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसका निरन्तर ही उत्कर्ष ही किया गया है, विचार-क्रांति, कृषि-क्रांति, अन्तरिक-क्रांति, व्यक्ति-क्रांति आदि शब्द प्रयोग इसी तथ्य के सूचक है।
क्रांति का फलित है व्यापक स्तर पर होने वाला कोई बड़ा परिवर्तन। व्यक्ति जिस समाज में जीता है, उसकी व्यवस्थाओं, नीतियों और परम्पराओं में जब घुटन का अनुभव करता है जो वह किसी नए मार्ग का अनुसरण करता है। आज आजादी के बाद की राजनीतिक विसंगतियों से पनपी ऐसी ही घुटन से बाहर निकालने के प्रयत्न वर्तमान सरकार द्वारा हो रहे हैं। ऐसा ही एक विशिष्ट उपक्रम है नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए। इसको लेकर भी गुमराह किया जा रहा है, राष्ट्र की एकता को विखंडित करने के प्रयास हो रहे हैं। अपने संबोधन में भागवत ने इसकी सचाई को व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को लेकर मुस्लिम समाज को भ्रमित करने की साजिश हुई, वह एक ऐसी सच्चाई है, जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि अभी भी कुछ लोग सीएए को मुस्लिम विरोधी बताने में लगे हुए हैं। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि जिस कानून का किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं, उसे लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में लोगों को सड़कों पर उतार दिया गया। यह काम इसीलिए संभव हो सका, क्योंकि एक सुनियोजित साजिश के तहत लोगों को गुमराह किया गया। यह साजिश जिस किसी ने भी रची हो, लोगों और खासकर मुस्लिम समाज को भड़काने का काम अनेक विपक्षी दलों ने किया। इनमें कांग्रेस सरीखे वे दल भी थे, जो एक समय इस कानून में वैसे ही संशोधन करने की मांग कर रहे थे, जैसे किए गए। राजनीतिक दलों के साथ-साथ तथाकथित सेक्युलर तत्वों और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने भी यह भ्रम फैलाया कि सीएए कुछ लोगों की नागरिकता छीनने का काम कर सकता है, जबकि यह कानून तो नागरिकता देने के लिए है।
मोहन भागवत ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाये जाने का जिक्र भी अपने सम्बोधन में किया। इस मुद्दे पर संघ की राय स्पष्ट है। यह एक राष्ट्र, एक संविधान का प्रबल समर्थक रहा है जो कि अधिसंख्य भारतवासियों की भावना रही है। यह भावना राष्ट्र प्रेम के सापेक्ष है क्योंकि आम भारतवासी इस विषय को राष्ट्रीय एकात्मता के दायरे में रख कर देखता है। यह एकात्मता समानता की इच्छा से जुड़ी हुई है जिसका सबसे बड़ा संपोषक हमारा संविधान ही है। इसी संविधान में धारा 370 एक अस्थायी प्रावधान के रूप में जुड़ी हुई थी। अतः संघ प्रमुख के उद्गार सामान्य भारतीय के विचार से ही मिलते-जुलते हैं। राम मन्दिर निर्माण को भी संघ प्रमुख ने पिछले एक वर्ष में घटित प्रमुख घटनाओं में शामिल किया है और इस पर प्रसन्नता व्यक्त की है। यह कार्य सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद हुआ और सामाजिक सद्भाव के माहौल में हुआ। यह भारत के लोगों की विशाल हृदयता और सहिष्णुता का ही परिचायक कहा जायेगा। मोहन भागवत के इस वर्ष के विजय-उद्बोधन का हर बोल अनमोल है, हर चरण एक मंजिल है और हर क्रिया एक सन्देश है। इसलिये पल-पल, पग-पग पर उनसे सीखा जा सकता है। उनका जीवन और दर्शन, विचार और सोच अन्तरमन को कुरेदने वाली ऐसी प्रेरणा है जो जागृत अवस्था में सोने वाले लोगों का झकझोर देती है।
प्रे्रेषक-

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