कश्मीर में आतंकवादियों को हतोत्साहित करने की जरूरत

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hangजम्मू कश्मीर में आतंकवादियों को हतोत्साहित किये बिना कोई सुधार होने की उम्मीद नहीं है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी की कश्मीर यात्रा के ठीक एक दिन पहले सेना पर आतंकी हमला इस बात का संकेत है कि आतंकवादियों को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से प्रोत्साहन तो मिल ही रहा है, भारत सरकार भी ऐसे कोई उपाय नहीं कर पा रही है जिससे आतंकवादी हतोत्साहित हो और उनकी घुसपैठ आसान न रह जाये। ऐसा तभी संभव है, जब कश्मीर के बहुसंख्यक चरित्र में अल्पसंख्यक विस्थापितों का पुर्नवास किया जायें जनसंख्यात्मक घनत्व की समावेशी अवधारणा सामने आये। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वीपी सिंह से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक ऐसी कोई इच्छाशक्ति सामने नहीं आई जिससे विस्थापितों के पुनर्वास की बहाली होती। यहीं वजह है कि कश्मीर आतंकवादियों का एक आसान ठिकाना बनकर रह गया हैं। और जब भी देश का कोई प्रमुख पदाधिकारी कश्मीर का दौरा करता है, तो बतौर चेतावनी आतंकी घटना को अंजाम दे दिया जाता है, जिससे कश्मीर में जो सांप्रदायिक एकरूपता आई है उसके चरित्र को कोई हानि न पहुंचे।

कश्मीर का इकतरफा सांप्रदायिक चरित्र तब से गढ़ना शुरू हुआ, जब 22 साल पहले नेशनल कांफ्रेस के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री डॉ. फारूख अब्दुल्ला के घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या हुई थी। अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे थे, तब अल्पसंख्यक हिन्दुओं के सामूहिक पलायन का सिलसिला शुरू हुआ था। उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य में कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार थी और खुद डॉ. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस बेकाबू हालत को नियंत्रित करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की बजाय 20 जनवरी 1990 को एकाएक डॉ. अब्दुल्ला कश्मीर को जलता छोड़ लंदन भाग खड़े हुए थे। अभी भी एक तरह से सत्ता उन्हीं के हाथ है। कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार है और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हैं। लेकिन हकीकत यह है कि कश्मीर के नेता विस्थापितों की बहाली का विलाप तो करते हैं, किंतु ऐसी कोई कारगर पहल नहीं करते जिससे पुनर्वास का सिलसिला शुरू हो।

जाहिर है, केन्द्र में सरकार वीपी सिंह, पीवी नरसिंहराव, अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहनसिंह की रहीं। इनमें से किसी भी प्रधानमंत्री की ऐसी कोशिश सामने नहीं आई जिससे यह लगे कि कश्मीर में आतंकवाद के खात्में की और विस्थापितों की बहाली की कोई कारगर नीति अमल में लाई जा रही हो ? अलबत्ता नासूर खत्म करने के जितने भी उपाय किए गए, उनमें अलगाववाद को पुष्ट करने, कश्मीर को और अधिक स्वायत्तता देने और पंडितों के लिए केंद्र शासित अलग से ‘पनुन कश्मीर’ राज्य बना देने के प्रावधान ही सामने आते रहे हैं। एक संप्रभुता वाले राष्ट्र-राज्य की संकल्पना वाले नागरिक समाज में न तो ऐसे प्रस्तावों से कश्मीर की समस्याएं हल होने वाली हैं और न ही कश्मीर का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहाल होने वाला है, जो भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है। इसके उलट ये प्रावधान आतंकवादियों को तो प्रोत्साहित करते ही हैं, अलगाववादी कश्मीरी संगठनों को भी ऐसे उपायों से संजीवनी मिलती हैं।

1990 में शुरू हुए पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ति में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला उदाहरण अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं।

कश्मीर की महिला शासक कोटा रानी पर लिखे मदन मोहन शर्मा ‘शाही’ के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘कोटा रानी’ पर गौर करें तो बिना किसी अतिरिक्त आहट के कश्मीर में शांति और सद्भाव का वातावरण था। प्राचीन काल में कश्मीर संस्कृत, सनातन धर्म और बौद्ध शिक्षा का उत्कृष्ठ केंद्र था। ‘नीलमत पुराण’ और कल्हण रचित ‘राजतरंगिनी’ में कश्मीर के उद्भव के भी किस्से हैं। कश्यप ऋषि ने इस सुंदर वादी की खोज कर मानव बसाहटों का सिलसिला शुरू किया था। कश्यप पुत्र नील इस प्रांत के पहले राजा थे। कश्मीर में यहीं से अनुशासित शासन व्यवस्था की बुनियाद पड़ी। 14 वीं सदी तक यहां शैव और बौद्ध मतों ने प्रभाव बनाए रखा। इस समय तक कश्मीर को काशी, नालंदा और पाटली पुत्र के बाद विद्या व ज्ञान का प्रमुख केंद्र माना जाता था। कश्मीरी पंडितों में ऋषि परंपरा और सूफी संप्रदाय साथ-साथ परवान चढ़े। लेकिन यही वह समय था जब इस्लाम कश्मीर का प्रमुख धर्म बन गया।

सिंध पर सातवीं शताब्दी में अरबियों ने हमला कर, उसे कब्जा लिया। सिंध के राजा दाहिर के पुत्र जयसिंह ने भागकर कश्मीर में शरण ली। तब यहां की शासिका रानी कोटा थीं। कोटा रानी के आत्म-बलिदान के बाद पार्शिया से आए इस्लाम के प्रचारक शाह मीर ने कश्मीर का राजकाज संभाला। यहीं से जबरन धर्म परिवर्तन करते हुए कश्मीर का इस्लामीकरण शुरू हुआ। जिस पर आज तक स्थायी विराम नहीं लगा है। विस्थापित पंडितों के घरों पर स्थानीय मुसलमानों का कब्जा है। इन्हें निष्कासित किए बिना भी पंडितों की वापिसी मुश्किल है।

कश्मीर घाटी में विस्थापितों का संगठन हिन्दुओं के लिए अलग से पनुन कश्मीर राज्य बनाने की मांग उठाता चला आ रहा है। हालांकि पनुन कश्मीर के संयोजक डॉ. अग्नि शेखर पृथक राज्य की बजाय घाटी के विस्थापित समुदाय की सुरक्षित वापिसी की मांग अर्से से कर रहे हैं। जायज भी यही है। डॉ. अब्दुल्ला और गिलानी भी इसी सुर में सुर मिलाते रहे हैं। हाल ही में नौकरी के बहाने तकरीबन 350 युवक व युवतियों की घाटी में वापिसी भी हुई है। यदि उमर अब्दुल्ला सरकार इनका पुश्तैनी घरों में पुनर्वास करने की मंशा जताती तो वाकई कश्मीर के अभिन्न अंग विस्थापित हिन्दुओं के लौटने की उम्मीद बढ़ती और आतंकवादी एक हद तक हतोत्साहित भी होते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

दुर्भाग्य से जबसे केन्द्र में मनमोहन और कश्मीर में उमर सरकार वजूद में आई है, तब से वह ऐसी कोई राजनीतिक इच्छा-शक्ति जताती नहीं दिखी, जिससे विस्थापितों के पुनार्वास का मार्ग सरल होता। केंद्र सरकार द्वारा 25 अप्रैल 2008 को हिन्दुओं के पुनर्वास और रोजगार हेतु 1618.40 करोड़ रूपए मंजूर किए गये थे, किंतु राज्य सरकार ने इस राशि का कतई उपयोग नहीं किया। इस राशि को खर्च न किए जाने के सिलसिले में उमर अब्दुल्ला का बहाना है कि अमरनाथ यात्रा के लिए जो भूमि आंदोलन चला था, उस वजह से आवास और रोजगार के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सका ? जबकि यही वह समय है जब घाटी में रेल परियोजना पूरी हुई और मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी ने उसे हरी झंडी दिखाई। इस परियोजना के तहत 11 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाई गई है जो देश की सबसे लंबी रेल सुरंग है। जब इस काम के लिए हालात अनुकूल रहे तो पुर्नवास के लिए क्यों नहीं अनुकूल हालात बनाने के प्रयास हुए ? जिस दिन कश्मीर में विस्थापितों की बहाली हो जायेगी उस दिन से आतंकवाद लगभग खत्म जैसा हो जायेगा। क्योंकि आतंकवादी इसी विजय से आत्ममुग्ध हैं कि उन्होंने कश्मीर से गैर मुस्लिमों को लगभग विस्थापित कर दिया है।

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  1. इस्लाम और आतंक एक ही सिक्के के दो पहलु हैं …जहाँ भी मुसलमानों की संख्या बढ़ जाती है …काफिरों की खैर नहीं ….इस्लाम ने सारे विश्व को आतंक की भट्टी में झोंक दिया है …हमारे सेकुलर शैतानों में इस पर अंकुश लगाने की इच्छा शक्ति कहाँ ? हमारे से तो मियान्मार बेहतर ढंग से निपट रहा है इनसे …चीन ने भी इनके खतरे को सही ढंग से निपटा है…

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