
आज विजयदशमी के दिन आपको मैं अतीत में 14 वर्ष पीछे ले चलता हूं। यह बात वर्ष 2007 की है, तब मैं गोविन्दजी के साथ सुदूर दक्षिण किष्किंधा गया था। हम वहां बसवराज पाटिल जी, सेडम के बुलावे पर गए थे। उद्देश्य था कि पंपा सरोवर के पवित्र तट पर बैठकर आगे की दशा-दिशा तय की जाए। आज बहुत कम लोग जानते हैं कि रामायण में वर्णित किष्किंधा अब कर्नाटक के कोप्पल जिले में स्थित है।
भगवान राम की कथा में अयोध्या प्रारंभ है, लंका परिणाम है लेकिन किष्किंधा प्रक्रिया है। वह प्रारंभ और परिणाम दोनों को जोड़ती है। प्रायः हम सब कोई काम प्रारंभ करते ही परिणाम को लेकर चिंतित हो जाते हैं। प्रक्रिया को लेकर हम उतने सचेत नहीं रहते। तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य में किष्किंधा को एक अध्याय (कांड) के रूप मे स्थापित कर यह संदेश दिया है कि प्रक्रिया का कितना महत्व है। बिना प्रक्रिया (किष्किंधा) को साधे शुभ परिणाम (लंका विजय और रामराज्य) असंभव है।
तुलसीदास जी के लिए किष्किंधा अर्थात प्रक्रिया का कितना महत्व था, इसे इस बात से समझिए कि उन्होंने केवल 3 स्थानों के नाम से अपने अध्यायों का नामकरण किया है। एक अयोध्या, दूसरा लंका और तीसरा किष्किंधा। जैसे लंका और अयोध्या के बिना राम और रामायण अधूरी है, वैसे ही किष्किंधा के बिना भी राम और रामायण की तस्वीर पूरी नहीं होती है।
किष्किंधा यात्रा के दौरान ये सारी बातें सहज ही अवचेतन मन में कहीं गहरे बैठ गईं। दस साल बाद जब गोविन्दाचार्य जी और बसवराज पाटिल जी, सेडम की प्रेरणा से एक औपचारिक संस्था बनाने की बात चली तो मैंने किष्किंधा को आधार बनाकर नाम रखने का सुझाव दिया। सबने मेरा यह सुझाव मान लिया और इस प्रकार 2017 में “सनातन किष्किंधा मिशन” का गठन हुआ। गोविन्दजी के विचारों को आधार बनाकर टैक्टिकल लेवल पर काम करना ही इस संस्था का मुख्य उद्देश्य निर्धारित किया गया।
मुझे खुशी है कि किष्किंधा यात्रा के 14 वर्ष बाद आज विजयदशमी के दिन गोविन्दजी ने मिशन तिरहुतीपुर के संचालन की जिम्मेदारी औपचारिक रूप से “सनातन किष्किंधा मिशन” को सौंप दी है। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस बदलाव से मिशन को लेकर मेरी जिम्मेदारी में कोई कटौती नहीं हुई है। हां, इस बदलाव से आप सभी की जिम्मेदारी जरूर बढ़ गई है।
आदर्श स्थिति में समाज का काम समाज के ही सहयोग से ही होना चाहिए। किसी एक या कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के बल पर समाज का काम शुरू तो हो सकता है, लेकिन उसे शीघ्र ही जनता के बीच ले जाया जाना चाहिए। जन-जन की भागीदारी के बिना कोई सामाजिक कार्य व्यापक बदलाव का माध्यम नहीं बन सकता। रामायण में भी इसी बात को रेखांकित किया गया है।
ध्यान से देखें तो भगवान राम का संघर्ष तीन चरणों में बंटा हुआ है। सबसे पहले वे अपने भाई और पत्नी के साथ अकेले वन में संघर्ष करते हैं। उसके बाद दूसरे चरण में वे सामान्य जन (किष्किंधा के लोगों) से सहयोग लेते हैं। जब किष्किंधा की जन-सेना के साथ राम का संघर्ष निर्णायक दौर में पहुंचता है, तब तीसरे चरण में उन्हें इंद्र का सहयोग मिलता है और वह भी बिना मांगे।
भगवान राम के जीवन से सीख लेते हुए मैंने मिशन तिरहुतीपुर को तीन चरणों में बांटा है। पहला चरण जो इस दशहरा को पूरा हो गया, वह काफी हद तक मेरा व्यक्तिगत उपक्रम था। इसमें मैंने अपनी व्यक्तिगत क्षमता को आधार बनाकर काम किया और समाज का सक्रिय सहयोग लेने से बचता रहा। दूसरा चरण जो इसी दशहरा से शुरू हो रहा है, उसमें मैं प्रत्येक भारतीय को मिशन के काम में भागीदार बनाने का प्रयास करूंगा। जिस आर्थिक सहयोग से मैं अब तक बचता रहा, उसे भी मांगने में अब मुझे कोई संकोच नहीं होगा। जब आप सबकी मदद से यह अभियान थोड़ी गति पकड़ लेगा तब इसका तीसरा चरण शुरू होगा। मुझे विश्वास है कि उस चरण में हमें भी इंद्र (सरकार और कारपोरेट सेक्टर) का सहयोग बिना मांगे मिलेगा। लेकिन अभी हम जिस दौर में हैं, उसमें इंद्र से दूरी बनाकर रखना ही उचित है।