काव्यपाठ और राजनीति – दीपक चौरसिया ‘मशाल’

cartoon_1115669c” डा. विद्या क्या बेमिसाल रचना लिखी है आपने! सच पूछिए तो मैंने आजतक ऐसी संवेदनायुक्त कविता नहीं सुनी”, “अरे शुक्ला जी आप सुनेंगे कैसे? ऐसी रचनाएँ तो सालों में, हजारों रचनाओं में से एक निकल के आती है. मेरी तो आँख भर आई” “ये ऐसी वैसी नहीं बल्कि आपको सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा जी की श्रेणी में पहुँचाने वाली कृति है विद्या जी. है की नहीं भटनागर साब?”
एक के बाद एक लेखन जगत के मूर्धन्य विद्वानों के मुखारबिंद से निकले ये शब्द जैसे-जैसे डा.विद्या वार्ष्णेय के कानों में पड़ रहे थे वैसे वैसे उनके ह्रदय की वेदना बढ़ती जा रही थी. लगता था मानो कोई पिघला हुआ शीशा कानों में डाल रहा हो. अपनी तारीफों के बंधते पुलों को पीछे छोड़ उस कवि-गोष्ठी की अध्यक्षा विद्या अतीत के गलियारों में वापस लौटती दो वर्ष पूर्व उसी स्थान पर आयोजित एक अन्य कवि-गोष्ठी में पहुँच जाती है, जब वह सिर्फ विद्या थी बेसिक शिक्षा अधिकारी डा.विद्या नहीं. हाँ अलबत्ता एक रसायन विज्ञान की शोधार्थी जरूर थी.
शायद इतने ही लोग जमा थे उस गोष्ठी में भी, सब वही चेहरे, वही मौसम, वही माहौल. सभी तथाकथित कवि एक के बाद एक करके अपनी-अपनी नवीनतम स्वरचित कविता, ग़ज़ल, गीत आदि सुना रहे थे. अधिकांश लेखनियाँ शहर के मशहूर डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर और प्रिंसिपल आदि की थीं. देखने लायक या ये कहें की हँसने लायक बात ये थी की हर कलम की कृति को कविता के अनुरूप न मिलकर रचनाकार के ओहदे के अनुरूप दाद या सराहना मिल रही थी. इक्का दुक्का ऐसे भी थे जो औरों से बेहतर लिखते तो थे लेकिन पदविहीन या सम्मानजनक पेशे से न जुड़े होने की वजह से आयाराम-गयाराम की तरह अनदेखे ही रहते. गोष्ठी प्रगति पे थी, समीक्षाओं के बीच-बीच में ठहाके सुनाई पड़ते तो कभी बिस्कुट की कुरकुराहट या चाय की चुस्कियों की आवाजें. शायद उम्र में सबसे छोटी होने के कारण विद्या को अपनी बारी आने तक लम्बा इन्तेज़ार करना पड़ा. सबसे आखिर में लेकिन अध्यक्ष महोदय, जो कि एक प्रशासनिक अधिकारी थे, से पहले विद्या को काव्यपाठ का अवसर अहसान कि तरह दिया गया. ‘पुरुषप्रधान समाज में एक नारी का काव्यपाठ वो भी एक २२-२३ साल की अबोध लड़की का, इसका हमसे क्या मुकाबला?’ कई बुद्धिजीवियों की त्योरियां खामोशी से ये सवाल कर रहीं थीं.
वैसे तो विद्या बचपन से ही कविता, कहानियां, व्यंग्य आदि लिखती आ रही थी लेकिन उसे यही एक दुःख था की कई बार गोष्ठियों में काव्यपाठ करके भी वह उन लोगों के बीच कोई विशेष स्थान नहीं अर्जित कर पाई थी. फिर भी ‘बीती को बिसारिये’ सोच विद्या ने एक ऐसी कविता पढ़नी प्रारंभ की जिसको सुनकर उसके दोस्तों और सहपाठियों ने उसे पलकों पे बिठा लिया था और उस कविता ने सभी के दिलों और होंठों पे कब्ज़ा कर लिया था. फिर भी देखना बाकी था की उस कृति को विद्वान साहित्यकारों और आलोचकों की प्रशंसा का ठप्पा मिलता है या नहीं.
तेजी से धड़कते दिल को काबू में करते हुए, अपने सुमधुर कन्ठ से आधी कविता सुना चुकने के बाद विद्या ने अचानक महसूस किया की ‘ये क्या कविता की जान समझी जाने वाली अतिसंवेदनशील पंक्तियों पे भी ना आह, ना वाह और ना ही कोई प्रतिक्रिया!’ फिर भी हौसला बुलंद रखते हुए उसने बिना सुर-लय-ताल बिगड़े कविता को समाप्ति तक पहुँचाया. परन्तु तब भी ना ताली, ना तारीफ़, ना सराहना और ना ही सलाह, क्या ऐसी संवेदनाशील रचना भी किसी का ध्यान ना आकृष्ट कर सकी? तभी अध्यक्ष जी ने बोला “अभी सुधार की बहुत आवश्यकता है, प्रयास करती रहो.” मायूस विद्या को लगा की इसबार भी उससे चूक हुई है. अपने विचलित मन को सम्हालते हुए वो अध्यक्ष महोदय की कविता सुनने लगी. एक ऐसी कविता जिसके ना सर का पता ना पैर का, ना भावः का और ना ही अर्थ का, या यूं कहें की इससे बेहतर तो दर्जा पांच का छात्र लिख ले. लेकिन अचम्भा ये की ऐसी कोई पंक्ति नहीं जिसपे तारीफ ना हुई हो, ऐसा कोई मुख नहीं जिसने तारीफ ना की हो और तो और समाप्त होने पे तालियों की गड़गडाहट थामे ना थमती.
साहित्यजगत की उस सच्ची आराधक का आहत मन पूछ बैठा ‘क्या यहाँ भी राजनीति? क्या यहाँ भी सरस्वती की हार? ऐसे ही तथाकथित साहित्यिक मठाधीशों के कारण हर रोज ना जाने कितने योग्य उदीयमान रचनाकारों को साहित्यिक आत्महत्या करनी पड़ती होगी और वहीँ विभिन्न पदों को सुशोभित करने वालों की नज़रंदाज़ करने योग्य रचनाएँ भी पुरस्कृत होती हैं.’ उस दिन विद्या ने ठान लिया की अब वह भी सम्मानजनक पद हासिल करने के बाद ही उस गोष्ठी में वापस आयेगी.
वापस वर्तमान में लौट चुकी डा. विद्या के चेहरे पर ख़ुशी नहीं दुःख था की जिस कविता को दो वर्ष पूर्व ध्यान देने योग्य भी नहीं समझा गया आज वही कविता उसके पद के साथ अतिविशिष्ट हो चुकी है. अंत में सारे घटनाक्रम को सबको स्मरण करने के बाद ऐसे छद्म साहित्यजगत को दूर से ही प्रणाम कर विद्या ने उसमें पुनः प्रवेश ना करने की घोषणा कर दी. अब उसे रोकता भी कौन, सभी कवि व आलोचकगण तो सच्चाई के आईने में खुद को नंगा पाकर जमीन फटने का इन्तेज़ार कर रहे थे.

– दीपक ‘मशाल’

5 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress