कविता/ यह कैसा लोकतंत्र ?

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-राजीव दुबे

मानवीय संवेदनाओं पर होता नित निर्मम प्रहार,

सीधे चलता जन निर्बल माना जाता,

रौंदा जाता जनमत प्रतिदिन…,

यह कैसा लोकतंत्र – यह कैसा शासन ?

सत्ता के आगारों में शासक चुप क्यों बैठा,

जनता हर रोज नए सवालों संग आती है –

क्या आक्रोश चाहिए इतना कि उठ जाये ज्वाला,

पिघलेगा पाषाण हृदय तब भी , या तू चाहे विष का प्याला …?

वर्ष हजारों बिता-बिता कर,

सहज हुई जन चेतनता,

न उभरेगी तेरे सामने बन कर काल कठिन झंझानिल,

ऐसी तेरी सोच बनी क्या ?

सौंपी बागडोर तुझको,

सदियों का विश्वास दिया …,

जन प्रतिनिधि बन क्यों है लूटता,

ऐसी क्या थी, जो पी ली तूने, सत्ता मद हाला ?

मैं भारत हूँ – जो लूँ अंगड़ाई तो हो जायें खड़े,

वे दीवाने फिर से लड़ने को,

उठे नया स्वातंत्र्य युद्ध फिर,

घमासान छिड़ जाये – मिट जाये, अस्तित्व तेरा ।

ऐ शासक तू न कर भूल,

धिक्कार तेरा अंधत्व तुझे जो पीड़ा न दिखती जन की,

द्वार तेरा फौलादी तो क्या…,

दीवार तेरी फिर भी ढह सकती, फौलाद तेरा फिर भी गल सकता !

2 COMMENTS

  1. लक्ष्मी नारायण जी,
    आपको भी मेरी ओर से अभिवादन.
    अभी हाल ही में यह कविता मैंने भोपाल में संपन्न एक कवि सम्मलेन में भी सुनाई थी…यहाँ पर फोटोग्राफ्स भी देख सकते हैं…

    https://rajeev-dubey.blogspot.com

    प्रतिक्रिया के लिए आभार.
    राजीव दुबे

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