कविता:आखिरी दिन-खुशबू सिंह

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 ये बात उस दोपहर की है

जब शहर से भागता हुआ शोर एकाएक

गाँव की सरहदों को ताकने लगा था

देख रहा था यूं ही

जैसे देखते है गली मे टहलते आवारा कुत्ते

घरो के खुले दरवाजो को अक्सर

फिराक मे

ठीक उसी नियत से

शहर से खदेड़ा हुआ शोर

हाँफता हुआ

दाखिल होने को आतुर

लबलबया सा सोच रहा था

दबे पाँव जाऊं क्या….

तभी किसी आवाज़ ने

उस शोर की पीठ

थपथपाई और कहा बड़ों

मैं तुम्हारे साथ हूँ

ये गाँव आजकल खामोश है

डरो मत जरा भी

कभी होते थे यहाँ भी ठहाके ओर रोबीले बोल

मगर आज वो सब

चुप हैं

क्योंकि

इन्हे कहने सुनने वाले

सब

वंही पर चले गए हैं

जंहा से तुम अभी अभी आ रहे हो

वो तुम्हारे लिए अपने घरो के

सभी दरवाजे तक खुले छोड़ गए

कुछ ज्यादा ही जल्दी थी

उन्हे शायद

शोर को मानो एहसास हुआ

अपनी अचेतन शक्ति का

और ऐंठ मे तन गया

कदम दर कदम बड़ाते बड़ाते

पहुँच चुका था वो

भीतर तक जो कभी चौपाल थी

और इलाके की शांति

सहमी सी खड़ी थी कोने मे

उसे खबर हो गई थी

आज उसका आखिरी दिन है

 

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