राहुल गांधी का राजनैतिक सफर….. ‘एक युवराज बेअसर’ ??

‘भारतीय-राष्ट्रीय-काँग्रेस’ ने भारत की राजनीति मे आज़ादी के पूर्व एवं पश्चात मे महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। स्वतन्त्रता के बाद काँग्रेस पार्टी ही एक ऐसी राजनीतिक-दल (संगठन) है जिसने देश की सत्ता पर सबसे ज्यादा शासन किया है। स्वतंत्र-भारत के सर्वप्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर लाल बहादुर शास्त्री…..इन्दिरा गांधी….राजीव गांधी….नरसिम्हा राव….या फिर मनमोहन सिंह हो सभी काँग्रेस पार्टी से थे। अगर बात की जाए भारतवर्ष के पूर्व प्रधानमंत्रियो की सूची की तो विश्लेषण करने के बाद आप यह पाएंगे की गांधी-नेहरू परिवार ने परोक्ष रूप से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से देश की सत्ता पर ‘काबिज-सरकार’ पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखा है। अप्रत्यक्ष शब्द ‘प्रासंगिक’ है मनमोहन सिंह जिसके ‘जीवंत’ उदाहरण है।

 सोनिया गांधी ने २००४ के लोकसभा चुनावो मे काँग्रेस पार्टी का नेतृत्व किया और अपने दल को सत्ता की चोखट पर पुनः खड़ा कर दिया यह वही दौर था जब तत्कालीन सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी ने सोनिया गांधी के ‘विदेशी-मूल’ के मुद्दे को खूब भुनाया था अंततः वही ‘मुद्दा’ काँग्रेस पार्टी एवं सोनिया गांधी के लिए फायदेमंद साबित हुआ और भारत की जनता ने अपनी सहानुभूति के साथ काँग्रेस पार्टी को वोट के रूप मे समर्थन देकर २००४ के आम चुनाव मे विजयी बनाया। सुषमा स्वराज….बाल ठाकरे….पी॰ए॰ संगमा जैसे बड़े नेताओ ने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर अपना कडा ऐतराज जताया था। बीजेपी के वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज ने तो दो कदम आगे बढ़ते हुए यहाँ तक कहा कि ‘अगर सोनिया भारत की प्रधानमंत्री बन जाती है तो मैं इसके विरोध मे गंजी हो जाऊँगी”।

 फलस्वरूप, स्वयं को त्याग और बलिदान की देवी के रूप मे प्रस्तुत करते हुये सोनिया गांधी ने ‘स्वच्छ-छवि’ वाले राज्य सभा के तत्कालीन विपक्ष के नेता एवं विख्यात अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए मनोनीत कर किया? आपको बताना चाहूँगा कि उस समय प्रधानमंत्री की रेस मे भारत के वर्तमान राष्ट्रपति एवं तत्कालीन काँग्रेस के वरिष्ठतम नेता प्रणब मुखर्जी का नाम सबसे आगे था परंतु सोनिया गांधी ने ‘प्रणब-दा’ को ‘नजरंदाज’ कर मनमोहन सिंह पर अपना अति-विश्वास दिखाते हुए सभी ‘राजनीतिक-पंडितो’ एवं विशेषज्ञो को आश्चर्यचकित कर दिया था। यह वही दौर था जब गांधी परिवार (काँग्रेस) के युवराज राहुल गांधी राजनीति के गुर सीखने मे अध्ध्यनरत थे। उस समय शायद वह प्रधानमंत्री के पद के लिए ‘सक्षम’ एवं ‘परिपक्व’ नहीं थे। मनमोहन सिंह के नेतृत्व मे काँग्रेस एवं अन्य सहयोगी दलो के सहयोग से यूपीए-गठबंधन की सरकार केंद्र मे स्थापित हुयी। वाम-दलो से लेकर बीएसपी…एसपी…..ने भी यूपीए-१ को (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ) अपना बाह्य-समर्थन दिया।

 २००९ के लोकसभा के चुनाव आते-आते काँग्रेस के कई सहयोगी दल जैसे वाम-दल, आरजेडी, लोजपा एवं अन्य उसका साथ छोड़ चुके थे। सभी ने अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय लिया था। उन चुनावो मे काँग्रेस कि उत्तर प्रदेश और बिहार की बागडोर राहुल गांधी ने संभाली थी और वहाँ पर आशाओ के विपरीत काँग्रेस ने ऐतिहासिक-प्रदर्शन किया था। मीडिया से लेकर राजनीति के जानकारो ने इसका पूरा क्ष्रेय राहुल गांधी की कड़ी-मेहनत को दिया। गौरतलब है कि सच मायनों मे राहुल गांधी ने यूपी और बिहार मे अपनी पूरी ताकत झोक दी थी। उन्होंने काँग्रेस के संगठन-स्तर पर भी कई महत्वपूर्ण फेरबदल किए थे। भारतीय युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव से अपने करियर की शुरुआत करने वाले राहुल गांधी ने ही भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (एनएसयूआई) के आंतरिक चुनावो की पहल की थी। इस बात का उन्हे पूरा क्ष्रेय देना भी चाहिए।

 

हम कह सकते है कि राहुल गांधी की मेहनत और सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के कुशल नेतृत्व के साथ २००९ के लोकसभा चुनावो मे अप्रत्यसित जीत के साथ काँग्रेस सत्ता मे पुनः काबिज हो गई। यह एक ऐसा दौर था जब काँग्रेस के भीतर से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए आवाज़ उठने लगी थी पर ऐसा हुआ नहीं, मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली और यूपीए-२ सरकार का गठन हुआ। काँग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओ से लेकर राजनीतिक पंडितो, विशेषज्ञो, बड़े-बड़े आला नेताओ का मानना था कि राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री नहीं बनते है तो उन्हे कम से कम मनमोहन-कैबिनेट मे शामिल होना चाहिए था और सत्ता को चलाने के गुर, विभिन्न राजनीतिक परिस्थितियो से रूबरू हो उससे जूझने की कला सीख सीखनी चाहिए थी, पर इतने भारी दबाव के बाद भी काँग्रेस अध्यक्षा (राहुल गांधी की माँ) ने उन्हे मनमोहन-सरकार मे ‘कैबिनेट-बर्थ’ नहीं लेने दिया। राहुल गांधी ने तर्क दिया कि वो सरकार के बाहर रह कर सरकार के काम-काज पर ध्यान रखेंगे और काँग्रेस के ‘आंतरिक-संगठन’ को मजबूत करेंगे।

२०१० के बाद जब मनमोहन सिंह की सरकार के सीडबल्यूजी से लेकर…. कोल ….इसरो….२जी स्पेकट्रूम …..जैसे एक के बाद एक ‘विकराल-घोटाले’ उजागर होने लगे तब लोग पुनः राहुल गांधी को सत्ता सौपने की बात करने लगे। फिर भी ऐसा नहीं हुआ शायद राहुल गांधी को ‘स्वयं’ की क्षमता एवं कुशलता पर एवं सोनिया गांधी को अपने ‘युवराज’ की ‘काबिलियत’ एवं ‘नेतृत्व-क्षमता’ पर अभी भी संदेह था? मानो श्रीमति गांधी को लगता था कि ‘उन्हे’ इतनी बड़ी बागडौर सौपने का उपयुक्त-समय अभी नहीं आया हो? यह भी एक कटु सत्य है कि स्वयं राहुल गांधी इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी संभालने के लिए ‘मानसिक तौर” पर तैयार नहीं थे। गौरतलब है एक बार सोनिया गांधी ने ‘राहुल-बाबा’ को ‘सत्ता एक जहर’ है इसका एक उपदेश भी दिया था।

 बहुत माथापच्ची के बाद राहुल गांधी को २०१४ के लोकसभा के चुनावो से पहले पार्टी का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। २०१४ के लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष सोनिया गांधी को ही बनाया गया यहाँ भी राहुल गांधी को सीधे ज़िम्मेदारी देने से बचते हुए उन्हे समिति का उपाध्यक्ष बनाया गया। वैसे २०१४ के काँग्रेस पार्टी के आम चुनाव का सारा कार्यभार और प्रचार राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ही घूमा और पार्टी को अब तक कि सबसे बड़ी-हार का सामना करना पड़ा था। चुनाव से पूर्व ही शायद काँग्रेस ने हार मान ली थी। काँग्रेस आलाकमान नहीं चाहता था कि ‘हार-का-धब्बा’ उनके युवराज के ‘राजनीतिक-करियर’ पर लगे। इससे पहले भी राहुल गांधी भारत के मतदाता के ‘मानस’ पर कोई खास प्रभाव नहीं डाल पाए थे उनके नेतृत्व मे काँग्रेस पार्टी को बिहार एवं उत्तर प्रदेश के विधान-सभा चुनावो मे करारी हार झेलनी पड़ी थी।

राजनीति के विश्लेषणकर्ताओ का मानना है कि राहुल गांधी की राजनीतिक-शैली मे ‘करिश्माई-व्यक्तित्व’ एवं ‘परिपक्वता’ का अभाव है। कई मौको पर ‘प्रैस वार्ता’ के दौरान पत्रकारो के समक्ष ‘वह’ घबराए हुये से दिखते है। दिलचस्प बात ये है कि उन्हे वही ‘करिश्माई-व्यक्तित्व’ गांधी परिवार की बेटी ‘प्रियंका गांधी वढेरा’ मे दिखता है। उनकी तुलना गाहे-बेगाहे ‘इन्दिरा गांधी’ से भी की जाती है। अब काँग्रेस की विडम्बना यह है कि अगर किसी तरह वो प्रियंका को ‘मान-मनव्वल’ के साथ ‘सक्रिय-राजनीति’ मे ले भी आए तो उनके सामने मानो ‘राहुल-गांधी’ नामक मजबूरी सामने आ जाती है? क्या काँग्रेस कि ‘मजबूरी-का-नाम’ बन गए है ‘राहुल गांधी’? काँग्रेस के शीर्ष नेताओ एवं आलाकमान को अंदेशा है प्रियंका के राजनीति के कदम रखने के बाद राहुल गांधी का राजनीतिक-भविष्य अधर ओर समाप्ति की ओर अग्रसर हो जाएगा?

कुछ राजनीतिक-पंडितो का मानना है कि की राहुल गांधी राजनीति के लिए बने ही नहीं है? उन्हे राजनीति मे जबर्दस्ती ठूसा जा रहा है? उनकी गलती ये है कि उन्होने ‘नेहरू-गांधी’ परिवार मे जन्म लिया और उनके नाम के पीछे ‘गांधी’ लगा है? अगर किसी के परनाना-दादी-पापा-चाचा-माँ राजनीति मे है (थे) तो अनिवार्य हो जाता है कि आप भी ‘राजनेता’ ही बने? और हा अगर आप का सरनेम ‘गांधी’ है तो आपको सीधा प्रधानमंत्री बनना है? क्या ऐसी परम्परा सैद्धांतिक रूप से पूर्णतः ‘तार्किक’ एवं ‘व्यावहारिक है? कभी-कभी तो ऐसे प्रतीत होता है राहुल गांधी स्वयं ही ‘मजबूर’ है? उन्हे राजनीति मे बिलकुल रुचि नहीं है?

 मानो उनका सबसे बड़ा गुनाह यह है कि वह देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने नेहरू-गांधी परिवार मे जन्मे है और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी एवं स्वतंत्र-भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक-पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी के सुपुत्र है? क्या सत्य है वो तो ईश्वर या राहुल गांधी ही जानते है पर हमारी सहानुभूति राहुल गांधी और काँग्रेस पार्टी के साथ है, भगवान उन्हे लोकसभा मे पार्टी का जो हश्र हुआ उस क्षति से उबरने की ‘शक्ति’ एवं ‘संयम’ दें।

2 COMMENTS

  1. जी महेंद्र जी जैसा मैंने अपने लेख मे कुछ ऐसे उल्लेखित भी किया है “काँग्रेस के शीर्ष नेताओ एवं आलाकमान को अंदेशा है प्रियंका के राजनीति के कदम रखने के बाद राहुल गांधी का राजनीतिक-भविष्य अधर ओर समाप्ति की ओर अग्रसर हो जाएगा?”

    विडम्बना यह है की काँग्रेस पार्टी की दिशा और दशा दोनों बिगड़ती जा रही है और अगर जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो सच मानिए काँग्रेस का खत्म निश्चित है।

    प्रियंका को राजनीति मे लाकर काँग्रेस आखिरी दांव खेल सकती है और उसे जल्दी खेलना भी चाहिए वरना ऐसा न हो जब तक पार्टी मन बनाए उससे पहले ही पार्टी का अस्तित्व ही खत्म हो जाए।

    खैर किसी को तो गांधी का नाम मिले ….. वादरा के नाम से तो ‘गांधी’ अच्छा ही है। राहुल गांधी जी ने अभी शादी तक नहीं की तो बच्चों की उम्मीद लगाना बेमानी जैसा होगा। अब किसी को तो ‘गांधी-नेहरू’ का नाम आगे बढ़ाना ही है। 🙂 😀

  2. आखिर कहीं तो विराम लगना ही है, और यदि वह विराम राहुल बाबा लगा दे तो क्या बुरा है?कांग्रेसी यह नहीं सोच रहे हैं कि प्रियंका को ले आये तो राहुल क्या करेंगे? फिर प्रियंका के बच्चों को भी गांधी सरनेम देना ही होगा , नहीं तो वोट कैसे मिलेंगे?फिर भी बहुमत नहीं मिला तो। …क्या होगा?

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