रथ यात्रा महोत्सव 2019

पंडित विशाल दयानन्द शास्त्री

प्रिय पाठकों/मित्रों/दर्शकों, धाम में से एक जगन्नाथ धाम –पुरी श्री जगन्नाथ मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जग प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा अवसर पर 10 दिनों तक धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जिसमें काफी संख्या में श्रद्धालुगण भाग लेते हैं। जगन्नाथ रथ उत्सव आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया से आरंभ करके शुक्ल एकादशी तक मनाया जाता है। इस दौरान रथ को अपने हाथों से खींचना बेहद शुभ माना जाता है।
इस वर्ष भगवान जगन्नाथ 4 जुलाई 2019 को बहन सुभद्रा और भाई बलदाऊ के साथ रथ में सवार होकर नगर भ्रमण करेंगे।

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जानिए  रथ यात्रा की कुछ रोचक जानकारी–
कलियुग का पवित्र धाम है जगन्नाथपुरी—-
विश्व में बेहद लोकप्रिय शहर पुरी में 2019 की जगन्नाथ मंदिर रथ यात्रा आज से(4 जुलाई,2019 ) शुरू होने वाली है। हिंदू धर्म की पौराणिक मान्यताओं में चारों धामों को एक युग का प्रतीक माना जाता है। इसी प्रकार कलियुग का पवित्र धाम जगन्नाथपुरी माना गया है। यह भारत के पूर्व में उड़ीसा राज्य में स्थित है, जिसका पुरातन नाम पुरुषोत्तम पुरी, नीलांचल, शंख और श्रीक्षेत्र भी है। उड़ीसा या उत्कल क्षेत्र के प्रमुख देव भगवान जगन्नाथ हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा राधा और श्रीकृष्ण का युगल स्वरूप है। श्रीकृष्ण, भगवान जगन्नाथ के ही अंश स्वरूप हैं। इसलिए भगवान जगन्नाथ को ही पूर्ण ईश्वर माना गया है।

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ऐसा है मंदिर का स्वरूप—–
जगन्नाथ मंदिर का 4,00,000 वर्ग फुट में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला, और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्य स्मारक स्थलों में से एक है। मुख्य मंदिर वक्र रेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर के भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिका रूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेरे हुए अन्य छोटे पहाडिय़ों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है। मुख्य भवन एक 20 फुट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।

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ये हैं पुरी के दर्शनीय स्थल—-पुरी की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मंदिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौलागिरि और उदयगिरि की गुफाएं, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफाएं, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मंदिर दर्शनीय है। पुरी और चंद्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चंदन तालाब, जनकपुर और नंदनकानन अभयारण्य बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है।===========================================विश्व में बेहद लोकप्रिय शहर पुरी में 2019 की जगन्नाथ मंदिर रथ यात्रा कल से शुरू होने वाली है। जिसकी तैयारियों में पूरा ओड़िशा, पुरी शहर और भगवान जगन्नाथ के भक्त बड़ी श्रद्धा से जुड़े हुए हैं। हर साल की तरह इस साल भी 18 जुलाई से यह महान विशाल रथ यात्रा शुरू होने वाली है। यूँ तो यह रथ यात्रा अपने आपमें बेहद ख़ास है लेकिन इस साल इस रथ यात्रा में बहुत कुछ ख़ास होने वाला है। क्यों कि इस साल भगवान जगन्नाथ मंदिर में रथ यात्रा के भगवान बदल दिए जाएंगे।
 पुरी के जगन्नाथ मंदिर की यह परंपरा है कि हर 14/15 सालों में भगवान की मूर्तियों को बदलकल नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। यह परंपरा सदियों से चलती आ रही है, एक तरफ जगन्नाथ मंदिर अपने आश्चर्यजनक कार्यों के कारण भक्तों के बीच श्रद्धा का अटूट रिश्ता कायम किये हुए है ऊपर से इसकी परम्पराएँ इसे पूरे विश्व में लोकप्रिये बनाती हैं
आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा का शुभारंभ होता है. उड़ीसा में मनाया जायाने वाला यह सबसे भव्य पर्व होता है. पुरी के पवित्र शहर में इस जगन्नाथ यात्रा के इस भव्य समारोह में में भाग लेने के लिए प्रतिवर्ष दुनिया भर से लाखों श्रद्धालु यहां पर आते हैं. यह पर्व पूरे नौ दिन तक जोश एवं उत्साह के साथ चलता है.
भगवान जगन्नाथ का जी की मूर्ति को उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की छोटी मूर्तियाँ को रथ में ले जाया जाता है और धूम-धाम से इस रथ यात्रा का आरंभ होता है यह यात्रा पूरे भारत में विख्यात है. जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा का पर्व आषाढ मास में मनाया जाता है. इस पर्व पर तीन देवताओं की यात्रा निकाली जाती है. इस अवसर पर जगन्नाथ मंदिर से तीनों देवताओं के सजाये गये रथ खिंचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित  गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन इन्हें वापस लाया जाता है.  इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान श्री कृ्ष्ण का पूजन नौं दिनों तक किया जाता है.
इन नौ दिनों में भगवान जगन्नाथ का गुणगान किया जाता है. एक प्राचीन मान्यता के अनुसार इस स्थान पर आदि शंकराचार्य जी ने गोवर्धन पीठ स्थापित किया था. प्राचीन काल से ही पुरी संतों और महात्मा के कारण अपना धार्मिक,  आध्यात्मिक महत्व रखता है. अनेक संत-महात्माओं के मठ यहां देखे जा सकते है. जगन्नाथ पुरी के विषय में यह मान्यता है, कि त्रेता युग में रामेश्वर धाम पावनकारी अर्थात कल्याणकारी रहें, द्वापर युग में द्वारिका और कलियुग में जगन्नाथपुरी धाम ही कल्याणकारी है. पुरी भारत के प्रमुख चार धामों में से एक धाम है.
पूरी के जगन्नाथ मंदिर की सदियों से चली आ रही परंपरा— यहाँ नई मूर्तियां स्थापित करने वाली परंपरा की भी अपनी अलग विशेषतायें हैं। यह मूर्तियां अलग अलग पेड़ की बनी हुई होती हैं। जिनको बनाने में पवित्रता का खासा ध्यान रखा जाता है। यह मूर्तियां जिन पेड़ों की बनी होती हैं वह कोई आम पेड़ नहीं होता। उन्हीं पेड़ों को इन मूर्तियों के लिए चयन किया जाता है जिसमे भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और सुदर्शन के चिन्ह बने होते हैं।साथ ही साथ जिस पेड़ का चयन किया जाता है वह पूरी तरह पवित्र हो, उसपर कभी कोई चढ़ा न हो, जीव-जंतु और कोई कीड़ा भी कभी उस पेड़ तक न पहुंचा हो और उन पेड़ के नीचे सर्प (सांप) निगरानी के लिए बैठा हो। इसके साथ ही जब साथ ही इस पेड़ के बारे में किसी को स्वप्न आता है कि किस जगह पर कितनी दूरी पर कौन सा पेड़ मूर्तियों के लिए पवित्र है तभी उस पेड़ का चयन किया जाता है, और इन पेड़ों की अच्छी तरह से तहकीकात करने के बाद तब ऐसे पेड़ को इन मूर्तियों के लिए चुना जाता है….
पूरी का जगन्नाथ मंदिर के आश्चर्यों में से एक यह आश्चर्य —
जगन्नाथ मंदिर अपने आश्चर्यों के लिए भी दुनिया भर में मशहूर है। ऐसे ही इस मंदिर का सबसे आकर्षक आश्चर्य है 56 भोग (पकवान)। जिसके बारे में कहा जाता है कि 56 अलग अलग तरह के भोग एक दुसरे के ऊपर रखके, जहाँ देवी सुभद्रा निवास करती हैं उस कमरे मे बंद कर दिया जाता है, तो खाना अपने आप पाक जाता है। इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि सबसे ऊपर का खाना सबसे पहले पकता है। कहा जाता है कि देवी सुभद्रा इसे पका देती हैं, जिसे प्रसाद के रूप में लोगों में बांटा जाता है।पुरी का जगन्नाथ मंदिर न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में प्रसिध्द है, जहाँ भगवान के दर्शन के लिए दूर दूर से लोग आते हैं, और अपनी आस्था की भक्ति में डूब के सराबोर हो जाते हैं। तो दोस्तों इस बार की रथ यात्रा में आप भी पुरी की सैर कर सकते हैं।=================================ऐसे होती हैं पूरी की श्री जगन्नाथ रथ यात्रा —–जगन्नाथ जी का यह रथ 45 फुट ऊंचा भगवान श्री जगन्नाथ जी का रथ होता है. भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे अंत में होता है, और भगवान जगन्नाथ क्योकि भगवान श्री कृ्ष्ण के अवतार है, अतं: उन्हें पीतांबर अर्थात पीले रंगों से सजाया जाता है. पुरी यात्रा की ये मूर्तियां भारत के अन्य देवी-देवताओं कि तरह नहीं होती है.
रथ यात्रा में सबसे आगे भाई बलराम का रथ होता है, जिसकी उंचाई 44 फुट उंची रखी जाती है. यह रथ नीले रंग का प्रमुखता के साथ प्रयोग करते हुए सजाया जाता है. इसके बाद बहन सुभद्रा का रथ 43 फुट उंचा होता है. इस रथ को काले रंग का प्रयोग करते हुए सजाया जाता है. इस रथ को सुबह से ही सारे नगर के मुख्य मार्गों पर घुमा जाता है. और रथ मंद गति से आगे बढता है. सायंकाल में यह रथ मंदिर में पहुंचता है. और मूर्तियों को मंदिर में ले जाया जाता है.
यात्रा के दूसरे दिन तीनों मूर्तियों को सात दिन तक यही मंदिर में रखा जाता है, और सातों दिन इन मूर्तियों का दर्शन करने वाले श्रद्वालुओं का जमावडा इस मंदिर में लगा रहता है. कडी धूप में भी लाखों की संख्या में भक्त मंदिर में दर्शन के लिये आते रहते है. प्रतिदिन भगवान को भोग लगने के बाद प्रसाद के रुप में गोपाल भोग सभी भक्तों में वितरीत किया जाता है.
सात दिनों के बाद यात्रा की वापसी होती है. इस रथ यात्रा को बडी बडी रस्सियों से खींचते हुए ले जाया जाता है. यात्रा की वापसी  भगवान जगन्नाथ की अपनी जन्म भूमि से वापसी कहलाती है. इसे  बाहुडा कहा जाता है. इस रस्सी को खिंचने या हाथ लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है.==============================================धार्मिक मान्यता है कि इस रथयात्रा के मात्र रथ के शिखर दर्शन से ही व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। स्कन्दपुराण में वर्णन है कि आषाढ़ मास में पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य फल प्राप्त होता है और भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती है।
1- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये लकड़ी वजन में भी अन्य लकडिय़ों की तुलना में हल्की होती है और इसे आसानी से खींचा जा सकता है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में बड़ा भी होता है। यह रथ यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे होता है।2- भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। इस रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है, जिनका रंग सफेद होता है। इस रथ के सारथी का नाम दारुक है। भगवान जगन्नाथ के रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ के रथ पर सुदर्शन स्तंभ भी होता है। यह स्तंभ रथ की रक्षा का प्रतीक माना जाता है।इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ हैं। रथ की ध्वजा यानि झंडा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है। इसके 16 पहिए होते हैं व ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है। इसमें लगभग 1100 मीटर कपड़ा रथ को ढंकने के लिए उपयोग में लाया जाता है।3- बलरामजी के रथ का नाम तालध्वज है। इनके रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है, जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है।4- सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। सुभद्राजी के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुड़ा कहते हैं। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।5- भगवान जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा के रथों पर जो घोड़ों की कृतियां मढ़ी जाती हैं, उसमें भी अंतर होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ पर मढ़े घोड़ों का रंग सफेद, सुभद्राजी के रथ पर कॉफी कलर का, जबकि बलरामजी के रथ पर मढ़े गए घोड़ों का रंग नीला होता है।6- रथयात्रा में तीनों रथों के शिखरों के रंग भी अलग-अलग होते हैं। बलरामजी के रथ का शिखर लाल-पीला, सुभद्राजी के रथ का शिखर लाल और ग्रे रंग का, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ के शिखर का रंग लाल और हरा होता है।

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विश्व की सबसे बड़ी रसोई है ये—
1- जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है। यह रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। यह मंदिर के दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित है। इस रसोई में भगवान जगन्नाथ के लिए भोग तैयार किया जाता है।2- इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए लगभग 500 रसोइए तथा उनके 300 सहयोगी काम करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है।3- यहां बनाया जाने वाला हर पकवान हिंदू धर्म पुस्तकों के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही बनाया जाता है। भोग पूर्णत: शाकाहारी होता है। भोग में किसी भी रूप में प्याज व लहसुन का भी प्रयोग नहीं किया जाता। भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है।4- रसोई के पास ही दो कुएं हैं जिन्हें गंगा व यमुना कहा जाता है। केवल इनसे निकले पानी से ही भोग का निर्माण किया जाता है। इस रसोई में 56 प्रकार के भोगों का निर्माण किया जाता है। रसोई में पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी यह व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं।5- मंदिर में भोग पकाने के लिए 7 मिट्टी के बर्तन एक दूसरे पर रखे जाते हैं और लकड़ी पर पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे ऊपर रखे बर्तन की भोग सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकते जाती है।================================================यहां के प्रसाद को कहते हैं महाप्रसाद—जगन्नाथ मंदिर के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतया प्रसाद ही कहा जाता है। भगवान जगन्नाथ के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मंदिर में ही किसी ने उन्हें प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ।=====================================ऐसे शुरू हुई पूरी में रथयात्रा की परंपरा—-
उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा काफी पुरानी है। इस रथ यात्रा से जुड़ी कई किवंदतियां भी प्रचलित हैं। उसी के अनुसार भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा राजा इंद्रद्युम ने प्रारंभ की थी।

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 यह कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
कलयुग के प्रारंभिक काल में मालव देश पर राजा इंद्रद्युम का शासन था। वह भगवान जगन्नाथ का भक्त था। एक दिन इंद्रद्युम भगवान के दर्शन करने नीलांचल पर्वत पर गया तो उसे वहां देव प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए। निराश होकर जब वह वापस आने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि शीघ्र ही भगवान जगन्नाथ मूर्ति के स्वरूप में पुन: धरती पर आएंगे। यह सुनकर वह खुश हुआ।
एक बार जब इंद्रद्युम पुरी के समुद्र तट पर टहल रहा था, तभी उसे समुद्र में लकड़ी के दो विशाल टुकड़े तैरते हुए दिखाई दिए। तब उसे आकाशवाणी की याद आई और उसने सोचा कि इसी लकड़ी से वह भगवान की मूर्ति बनवाएगा। तभी भगवान की आज्ञा से देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा वहां बढ़ई के रूप में आए और उन्होंने उन लकडिय़ों से भगवान की मूर्ति बनाने के लिए राजा से कहा। राजा ने तुरंत हां कर दी।
तब बढ़ई रूपी विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि वह मूर्ति का निर्माण एकांत में करेगा यदि कोई वहां आया तो वह काम अधूरा छोड़कर चला जाएगा। राजा ने शर्त मान ली। तब विश्वकर्मा ने गुण्डिचा नामक स्थान पर मूर्ति बनाने का काम शुरू किया। एक दिन भूलवश राजा बढ़ई से मिलने पहुंच गए। उन्हें देखकर विश्वकर्मा वहां से अन्तर्धान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी रह गईं। तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। तब राजा इंद्रद्युम ने विशाल मंदिर बनवा कर तीनों मूर्तियों को वहां स्थापित किया।
भगवान जगन्नाथ ने मंदिर निर्माण के समय राजा इंद्रद्युम को बताया था कि वे वर्ष में एक बार अपनी जन्मभूमि अवश्य जाएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है।एक अन्य मत के अनुसार सुभद्रा के द्वारिका दर्शन की इच्छा पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग-अलग रथों में बैठकर यात्रा की थी। सुभद्रा की नगर यात्रा की स्मृति में ही यह रथयात्रा पुरी में हर साल होती है।

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रथयात्रा में इसलिए नहीं होता रुक्मणी व राधा का रथ—-विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा को अलग-अलग रथों में विराजित कर नगर भ्रमण कराने की परंपरा है। यहां यह बात विचारणीय है कि श्रीकृष्ण के साथ राधा या रुक्मणी का रथ क्यों नहीं होता? इसका जवाब हिन्दू पौराणिक कथा में मिलता है। जिसके अनुसार -एक बार द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण रात्रि में शयन कर रहे थे। समीप ही रुक्मणी भी सो रही थीं। निद्रा के दौरान श्रीकृष्ण ने राधा के नाम का उच्चारण किया। यह सुनकर रुक्मणी अचंभित हुई। सुबह होने पर रुक्मणी ने यह बात अन्य पटरानियों को बताकर कहा कि हमारे इतने सेवा, प्रेम और समर्पण के बाद भी स्वामी राधा को याद करना नहीं भूलते।
इस बात का रहस्य जानने के लिए सभी रानियां माता रोहिणी के पास गई और उनसे राधा और श्रीकृष्ण की लीला के बारे में जानना चाहा क्योंकि माता रोहिणी वृंदावन में राधा और श्रीकृष्ण की रास लीलाओं के बारे में बहुत अच्छे से जानती थीं। रानियों के आग्रह और जिद करने पर माता ने यह शर्त रखी कि मैं जब तक श्रीकृष्ण-राधा के प्रसंग को सुनाऊं, तब तक कोई भी कक्ष के अंदर न आ पाए। इसके लिए श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा को द्वार पर निगरानी के लिए रखा गया।
इसके बाद माता रोहिणी ने श्रीकृष्ण व राधा लीला पर अपनी बात शुरू की। कुछ समय बीतते ही सुभद्रा ने देखा कि उनके भाई बलराम और श्रीकृष्ण माता के कक्ष की ओर चले आ रहे हैं। तब सुभद्रा ने किसी बहाने उन्हें माता के कक्ष में जाने से रोका किंतु कक्ष के द्वार पर खड़े होने पर भी श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा को श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला के प्रसंग सुनाई दे रहा था। तीनों राधिका के नाम और कृष्ण के प्रति अद्भुत प्रेम व भक्ति भावना को सुनकर इतने भाव विभोर हो गए कि श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के शरीर गलने लगे, उनके हाथ-पैर आदि अदृश्य हो गए। यह भी कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ने गलकर लंबा आकार ले लिया।इसी दौरान वहां से देवर्षि नारद का गुजरना हुआ। वह भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के अलौकिक स्वरूप के दर्शन कर अभिभूत हो गए। किंतु तीनों नारद को देखकर अपने मूल स्वरूप में आ गए, यह सोचकर कि नारद ने संभवत: यह दृश्य न देखा हो। किंतु नारद मुनि ने तीनों से प्रार्थना की कि मैंने अभी आपके जिस स्वरूप के दर्शन किए हैं, उसी स्वरूप के दर्शन कलयुग में सभी भक्तों को भी हो। तब भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा ने नारद की विनय को मानकर ऐसा करना स्वीकार किया।यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं में भगवान जगन्नाथ को श्रीकृष्ण और राधा का दिव्य युगल स्वरुप मानकर उनके साथ भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की अधूरी बनी काष्ठ यानी लकड़ी की प्रतिमाओं के साथ रथयात्रा निकालने की परंपरा है।

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इसलिए कहते हैं गुंडिचा मंदिर को ब्रह्मलोक—-भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि को निकाली जाती है। यह यात्रा गुंडिचा मंदिर तक जाकर पुन: आती है। ऐसी मान्यता है कि इसी गुंडिचा मंदिर में देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्राजी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था इसलिए गुंडिचा मंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुरी भी कहा जाता है। रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ कुछ समय इस मंदिर में बिताते हैं। इस समय गुंडिचा मंदिर में भव्य महोत्सव मनाया जाता है। इसे गुंडिचा महोत्सव कहते हैं।
इस प्रकार गुंडिचा नगर में जाकर भगवान विन्दुतीर्थ के तट पर सात दिन तक निवास करते हैं क्योंकि प्राचीन काल में उन्होंने राजा इंद्रद्युम को यह वर दिया था कि मैं तुम्हारे तीर्थ के किनारे प्रतिवर्ष निवास करुंगा। मेरे वहां स्थित रहने पर सभी तीर्थ उसमें निवास करेंगे। उस तीर्थ में विधिपूर्वक स्नान करके, जो लोग सात दिनों तक गुंडिचा मंडप में विराजमान मेरा, बलराम व सुभद्रा का दर्शन करेंगे, वे मेरी कृपा प्राप्त कर लेंगे।गुंडिचा मंडप से रथ पर बैठकर दक्षिण दिशा की ओर आते हुए श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्राजी के जो दर्शन करता है, वे मोक्ष के भागी होते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार जो प्रतिदिन सुबह उठकर इस प्रसंग का पाठ करता है या सुनता है वह भी भगवान विष्णु की कृपा से गुंडिचा महोत्सव के फलस्वरूप वैकुण्ठधाम में जाता है।

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✍?✍?नीम की लकड़ी की बनीं है मूर्तियां—भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलदाऊ की मूर्तियां नीम की लकड़ी से बनीं हैं। जो अपने आप में अदभुत हैं। ऐसी ही मूर्तियां होशंगाबाद के जगन्नाथ मंदिर में स्थापित हैं। जो प्राचीन कालीन हैं।

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हर 12 साल में बदलीं जाती हैं मूर्तियां–परंपरा के अनुसार जगन्नाथ पुरी में इन मूर्तियों को हर 12 साल बाद बदल दिया जाता है ।

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तीनों मूर्ति में हाथ और पैर के पंजे नहीं होते—भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलदाऊ की मूर्तियां जो बनाई जाती हैं। उनकी हाथ और पैर के पंजे नहीं होते हैं। इन मूर्ति में कमर से नीचे का हिस्सा नहीं होता है। 

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4 जुलाई 2019 को निकलेगी रथ यात्रा–आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को स्वस्थ होकर भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा बलदाऊ सहित रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण करेंगे। 
पण्डित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि यह परंपरा प्राचीन है पहले जनकपुरी में यात्रा सात दिनों तक रूकती थी। 

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महास्नान से रथयात्रा तक का सफर—17 जून 2019 को जेष्ठ पूर्णिमा पर भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा, भाई बलदाऊ का महास्नान पंचामृत से किया जाता है। शीत लगने के कारण बीमार हो जाते हैं इसके बाद मूल सिंहासन से हटकर भगवान शयन कक्ष में चले गए थे। जहां वैद्य आयुर्वेदिक औषधियों से उनका उपचार करते हैं। इस दौरान भगवान को हल्का भोजन दिया जाता है।
आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को ओडिशा के पुरी नगर में होने वाली भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के सबसे विशाल और महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सवों में से एक है जिसमें भाग लेने के लिए पूरी दुनिया से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। इस साल यह रथयात्रा (गुरुवार) 4 जुलाई से आरम्भ होगी। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है वह और कहीं दुर्लभ है। तो आइए जानते हैं इस रथयात्रा की क्‍या है कहानी

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जानिए कहां से मिली जगन्‍नाथ जी की मूर्ति–/जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। कहते हैं कि राजा इंद्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मंदिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली। इसके बाद राजा-रानी ने इन मूर्तियों को स्‍थापित करके पूजा अर्चना शुरु कर दी। तभी से हर वर्ष यह रथयात्रा नगर में निकाली जाती है।

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भगवान रास्‍ते में रुकते हैं मौसी के घर–जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर पुरी नगर से गुजरते हुए ये रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को ‘आड़प-दर्शन’ कहा जाता है। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। 
इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था। कहते हैं कि रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और ‘हेरा गोहिरी साही पुरी’ नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ द्वारा रुष्ट देवी लक्ष्मी मनाने की परंपरा भी है। यह मान-मनौवल संवादों के माध्यम से आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है।
10वें दिन होती है रथ वापसी—आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है। वास्तव में रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती है और न ही किसी प्रकार का उपवास रखा जाता है। एक अहम् बात यह कि रथयात्रा के दौरान यहां किसी प्रकार का जातिभेद देखने को नहीं मिलता है। समुद्र किनारे बसे पुरी नगर में होने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव के समय आस्था और विश्वास का जो भव्य वैभव और विराट प्रदर्शन देखने को मिलता है, वह दुनिया में और कहीं दुर्लभ है।

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प्रतिवर्ष ओडिशा के पूर्वी तट पर स्थित श्री जगन्नाथ पूरी में भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का उत्सव बड़े ही धूमधाम से आयोजित किया जाता है। यह पर्व आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया से आरम्भ होकर शुक्ल पक्ष की एकादशी तक मनाया जाता है। तदनुसार इस वर्ष रथ यात्रा (गुरुवार) 4 जुलाई 2019 को प्रारम्भ होकर 5 जुलाई 2019 को समाप्त होगी। रथ यात्रा में रथ को अपनी हाथों से खीचना अति शुभ माना जाता है। 

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जानिए रथयात्रा का इतिहास –पौराणिक मान्यताओं के अनुसार द्वापर युग में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा, उस समय भगवान श्री कृष्ण उन्हें रथ पर बैठाकर नगर का भर्मण करते है। इसी उपलक्ष्य में ओडिशा राज्य के पूर्वी तट पर स्थित जगन्नाथ मंदिर में हर वर्ष जगन्नाथ जी, बलराम जी एवम श्री सुभद्रा जी की प्रतिमूर्ति को रथ पर बैठाकर नगर के दर्शन कराए जाते है। ✍?✍?

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इस होता हैं रथ का रूप –जगन्नाथ पूरी रथ यात्रा में श्री कृष्ण जी, बलराम जी एवम बहन सुभद्रा का रथ बनाया जाता है। यह रथ लकड़ी से कुशल कारीगर के द्वारा तैयार किया जाता है। जगन्नाथ रथ यात्रा में जगन्नाथ जी के रथ को ‘गरुड़ध्वज’ बलराम जी के रथ को ‘तलध्वज’ एवम सुभद्रा जी के रथ को “पद्मध्वज’ कहा जाता है।

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?रथयात्रा महोत्सव —रथ यात्रा महोत्सव में पहले दिन भगवान जगन्नाथ जी, बलराम जी एवम बहन सुभद्रा जी के रथ को आषाढ़ माह में द्वितीया की शाम तक जगन्नाथ मंदिर से खींचकर कुछ दूर पर स्थित गुडींचा मंदिर तक लाया जाता है। तत्पश्चात आषाढ़ माह की तृतीया को भगवान की मूर्ति को विधि पूर्वक रथ से उतारकर गुंडिचा मंदिर में स्थापित किया जाता है तथा अगले सात दिन तक जगन्नाथ जी, बलराम जी एवम बहन सुभद्रा के साथ इसी मंदिर में निवास करते है।

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पौराणिक कथा—वैसे तो जगन्नाथ रथ यात्रा के संदर्भ में कई धार्मिक-पौराणिक मान्यताएँ जुड़ी हुई हैं जिनमें से एक कथा का वर्णन कुछ इस प्रकार है – एकबार गोपियों ने माता रोहिणी से कान्हा की रास लीला के बारे में जानने का आग्रह किया। उस समय सुभद्रा भी वहाँ उपस्थित थीं। तब माँ रोहिणी ने सुभद्रा के सामने भगवान कृष्ण की गोपियों के साथ रास लीला का बखान करना उचित नहीं समझा, इसलिए उन्होंने सुभद्रा को बाहर भेज दिया और उनसे कहा कि अंदर कोई न आए इस बात का ध्यान रखना। इसी दौरान कृष्ण जी और बलराम सुभद्रा के पास पधार गए और उसके दाएँ-बाएँ खड़े होकर माँ रोहिणी की बातें सुनने लगे। इस बीच देव ऋषि नारद वहाँ उपस्थित हुए। उन्होंने तीनों भाई-बहन को एक साथ इस रूप में देख लिया। तब नारद जी ने तीनों से उनके उसी रूप में उन्हें दैवीय दर्शन देने का आग्रह किया। फिर तीनों ने नारद की इस मुराद को पूरा किया। अतः जगन्नाथ पुरी के मंदिर में इन तीनों (बलभद्र, सुभद्रा एवं कृष्ण जी) के इसी रूप में दर्शन होते हैं।

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ये हैं रथ यात्रा के दौरान मनायी जाने वाली परंपराएँ–पहांडी: पहांडी एक धार्मिक परंपरा है जिसमें भक्तों के द्वारा बलभद्र, सुभद्रा एवं भगवान श्रीकृष्ण को जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक की रथ यात्रा कराई जाती है। कहा जाता जाता है कि गुंडिचा भगवान श्रीकृष्ण की सच्ची भक्त थीं, और उनकी इसी भक्ति का सम्मान करते हुए ये इन तीनों उनसे हर वर्ष मिलने जाते हैं।
छेरा पहरा: रथ यात्रा के पहले दिन छेरा पहरा की रस्म निभाई जाती है, जिसके अंतर्गत पुरी के गजपति महाराज के द्वारा यात्रा मार्ग एवं रथों को सोने की झाड़ू स्वच्छ किया जाता है। दरअसल, प्रभु के सामने हर व्यक्ति समान है। इसलिए एक राजा साफ़-सफ़ाई वाले का भी कार्य करता है। यह रस्म यात्रा के दौरान दो बार होती है। एकबार जब यात्रा को गुंडिचा मंदिर ले जाया जाता है तब और दूसरी बार जब यात्रा को वापस जगन्नाथ मंदिर में लाया जाता है तब। जब जगन्नाथ यात्रा गुंडिचा मंदिर में पहुँचती है तब भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र जी को विधिपूर्वक स्नान कराया जाता है और उन्हें पवित्र वस्त्र पहनाएँ जाते हैं। यात्रा के पाँचवें दिन हेरा पंचमी का महत्व है। इस दिन माँ लक्ष्मी भगवान जगन्नाथ को खोजने आती हैं, जो अपना मंदिर छोड़कर यात्रा में निकल गए हैं।

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जानिए रथ यात्रा का धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व—इस यात्रा का धार्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों महत्व है। धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो पुरी यात्रा भगवान जगन्नाथ को समर्पित है जो कि भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। हिन्दू धर्म की आस्था का मुख्य केन्द्र होने के कारण इस यात्रा का महत्व और भी बढ़ जाता है। कहते हैं कि जो कोई भक्त सच्चे मन से और पूरी श्रद्धा के साथ इस यात्रा में शामिल होते हैं तो उन्हें मरणोपरान्त मोक्ष प्राप्त होता है। वे इस जीवन-मरण के चक्र से बाहर निकल जाते हैं। इस यात्रा में शामिल होने के लिए दुनियाभर से लाखों श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। देश-विदेश के शैलानियों के लिए भी यह यात्रा आकृषण का केन्द्र मानी जाती है। इस यात्रा को पुरी कार फ़ेस्टिवल के नाम से भी जाना जाता है। ये सब बातें इस यात्रा के सांस्कृतिक महत्व को दर्शाती हैं।
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देवशयनी एकादशी की कथा एवम इतिहास–
तत्पश्चात आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन वापसी यात्रा का आयोजन किया जाता है। इस यात्रा को बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। यात्रा के दौरान पुनः गुंडीचा मंदिर से भगवान के रथ को विधिवत खींचकर जगन्नाथ मंदिर तक लाया जाता है। मंदिर पहुँचने के पश्चात प्रतिमाओं को पुनः मंदिर गृह में स्थापित कर दिया जाता है।

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?महाप्रसाद –जगन्नाथ पूरी मंदिर में रथयात्रा का एक मुख्य आकर्षण महाप्रसाद होता है। जो मंदिर में स्थित रसोई घर में बनाया जाता है। महाप्रसाद में मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से मिलता है। इसके आलावा मिश्रित खिचड़ी का प्रसाद भक्तो में बांटा जाता है ।
इस प्रकार जगन्नाथ जी की रथ यात्रा की कथा सम्पन्न हुई। प्रेम से बोलिए बाँके बिहारी कृष्ण कनैहया लाल की जय।
इस प्रकार जगन्नाथ जी की रथ यात्रा की कथा सम्पन्न हुई। 
प्रेम से बोलिए बाँके बिहारी कृष्ण कनैहया लाल की जय । 

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