अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करें

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-गिरीश पंकज- sanjay dwivedi

मध्यप्रदेश ही नहीं देश के यशस्वी पत्रकार, लेखक, मीडिया शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता संजय द्विवेदी को लेकर मप्र कांग्रेस के एक प्रवक्ता की टिप्पणी बेहद शर्मनाक है। कांग्रेस ने उनके एक लेख पर आपत्ति जताते हुए उन्हें नौकरी से निकालने की मांग की है। यह घटना बताती है राजनीति किस स्तर पर पहुंचकर लेखकों को डराने धमकाने के उपक्रम में लगी है।

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और सुपरिचित सामाजिक-राजनीतिक लेखक संजय द्विवेदी के लेख पर कांग्रेस के कुछ नेताओं की बौखलाहट देख कर मैंने भी संजय द्विवेदी के लेख को ध्यान से पढ़ा और सिर पीटने लगा कि श्री द्विवेदी ने ऐसा कुछ निंदनीय नहीं लिखा है कि उनकी बर्खास्तगी की मांग कर दी जाए। क्या इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे लगे हुए हैं? क्या इस देश में दुबारा आपातकाल लग चुका है? अभी हाल ही में दो ऐसी पुस्तकें (संजय बारू की पुस्तक ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ एवं पीसी पारख की किताब -‘क्रूजेडर आर कास्पिरेटर’) आई हैं जिनसे कांग्रेस बैकफुट पर नज़र आ रही है। ये किताबें बताती हैं कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कितने कमजोर रहे हैं। इन पुस्तकों के लेखकों के खिलाफ तो कांग्रेसी कुछ कर नहीं पा रहे हैं, बस एक गंभीर-संतुलित लेखक के पीछे पड़ कर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। जबकि संजय के लेख में कांग्रेस की कोई निंदा नहीं है। वर्तमान हालात का महज विश्लेषण है जो इन दिनों अखबारों में प्रकाशित हो रहे हैं। और जिस लेख को ले कर कांग्रेसी बवाल मचा रहे हैं, उस लेख में संजय ने भाजपा की भी खबर ली है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि लेख कांग्रेस के विरुद्ध है।

लेख में भाजपा पर भी प्रहार है
संजय द्विवेदी ने भाजपा में आडवाणी के हाशिये पर जाने का भी जिक्र किया है। और यह भी बताया है कि भाजपा अचानक अभी मोदी-राग नहीं आलाप रही, इसके पहले भी भाजपा अटल जी के नाम पर चुनाव लड़ चुकी है। पिछले दौर पर नज़र डालें तो वीपी सिंह से लेकर मुलायम तक के नामों का सहारा ले कर चुनाव लड़े जाते रहे हैं ? कभी ‘इंदिरा इज इंडिया’ का नारा भी कभी खूब चला था। संजय ने इन सबका सटीक राजनीतिक विश्लेषण करते हुए वर्तमान परिदृश्य को देखने की पत्रकारीय कोशिश की है। यह लेख भाजपा की भी खबर लेेता है, उसे समझने के लिए संजय के लेख का यह अंश पर्याप्त है। संजय ने एक जगह ‘भाजपा के तथाकथित मोदी-समय’ का जिक्र किया है। इसके बाद वे आगे लिखते हैं कि ‘कोई भी दल अनंतकाल तक अपने नेता को नहीं ढोता। हर नेता का अपना समय होता है। जाहिर तौर पर आडवानी अपना सर्वश्रेष्ठ पार्टी को दे चुके थे। बाद में मोदी कार्यकर्ताओं की पसंद बने।’ संजय के लेख को विशुद्ध लेख की तरह ही देखा जाना चाहिए। राजनीति के चश्में से देखने पर पूर्वाग्रह पनपना स्वाभाविक है। पूरा लेख इस चुनावी समय का तटस्थ विश्लेषण किया है जो उनका लेखकीय धर्म था।

छत्तीसगढ़ में यादगार पत्रकारिता
संजय द्विवेदी को मैं एक दशक से जानता हूँ जब वे छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता कर रहे थे। ‘भास्कर’, ‘स्वदेश’ और ‘हरिभूमि’ के संपादक के रूप में उनकी यादगार पारी कोई भूल नहीं सकता। सेटेलाइट चैनल जी-24 घंटे छत्तीगढ़ (अब आइबीसी) वगैरह में संपादक के रूप में कार्य करते हुए संजय ने जो पत्रकारिता की उसने इतिहास रचा। निष्पक्ष पत्रकारिता की। यही कारण था कि वे कांग्रेस नेताओं के भी उतने चहेते थे, जितने भाजपा नेताओं के। स्वर्गीय नंदकुमार पटेल से उनकी निकटता थी। कांग्रेस के पूर्व मंत्री बीआर यादव पर तो संजय द्विवेदी की एक पुस्तक ”कर्मपथ’ पिछले साल ही प्रकाशित हुई थी। जिसके लोकार्पण समारोह में कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह भी शरीक हुए थे। कांग्रेस के महेंद्र कर्मा उनकी लेखनी के कायल थे। मुझे याद है जब संजय ‘हरिभूमि’ में संपादक थे, तो कांग्रेस के कद्दावर नेता, भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण के निधन पर मुझसे ही एक लेख लिखवाया था. एक नहीं, अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, जो साबित करते हैं कि संजय ने केवल पत्रकारिता की। बाद में कुछ घटनाक्रम ऐसे हुए कि उन्हें पत्रकारिता छोड़ कर प्राध्यापकीय भूमिका में आना पड़ा। और उस भूमिका को भी संजय ने बेहतर ढंग से निभाया और अनेक संभावनाशील युवा पत्रकारों की टीम खड़ी कर दी। ये पत्रकार देश के विभिन्न अखबारों और चैनलों में कार्य कर रहे हैं।

प्राध्यापक होने के मतलब यह तो नहीं
भारतीय संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि विश्वविद्यालय का कोई प्राध्यापक कोई राजनीतिक लेख नहीं लिख सकता। वैसे भी विश्वविद्यालय स्वायत्तशासी होते है, इनके प्राध्यापक लोकसेवक नहीं होते जो बेचारे अपनी कलम ही नहीं चला सकते। देश के अनेक प्राध्यापक राजनीतिक विषय पर लेख लिखते रहे हैं, और वक्त आने पर चुनाव भी लड़ते आए हैं। भाजपा के मुरलीमनोहर जोशी इसके उदाहरण हैं। बिहार की प्राध्यापक उषा सिन्हा इन दिनों ‘जेडयू’ की विधायक हैं। वे नालंदा के एक कालेज में प्राध्यापक है। जेएनयू के प्राध्यापकों की राजनीतिक सक्रियता सब जानते हैं। प्रो आनंद कुमार और शिक्षक कुमार विशवास अभी चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस की रीता बहुगुणा उ प्र कांग्रेस की अध्यक्ष है, वे भी iइलाहाबाद की प्राध्यापक हैं,. लखनऊ से विधायक भी हैं और अभी लोकसभा का चुनाव भी लड़ रही हैं. इस देश में अनेक विश्वविद्यालयों के बुद्धिजीवी प्राध्यपक चुनाव भी लड़ते रहे हैं और राजनीतिक लेख लिखते रहे हैं। जब राजनीतिक लेख लिखा जाएगा, तो उसमें समग्र और तटस्थ विश्लेषण ही होगा।

वर्तमान का विश्लेषण
संजय द्विवेदी के लेख में वर्तमान का विश्लेषण ही तो है। और अगर आज कांग्रेस कुछ पीछे नज़र आ रही है, तो यह स्थिति देश के सामने भी हैं। मनमोहन सिंह की कांग्रेस में क्या हालत है, उसका वर्णन संजय द्विवेदी ने किया है। और भी जितना कुछ लिखा है वो कहीं से अतिरंजित भी नहीं है। देश का आम नागरिक जो महसूस कर रहा है, वो सब संजय के लेख में है। क्या प्राध्यापक होने के मतलब है कि एक लेखक खामोश रहे और कांग्रेस के गुण गाए? कांग्रेसी तो यही चाहते रहे हैं। उनका बस चले तो इस देश में एक बार फिर देश में अभिव्यक्ति का गला घोट दें। लेकिन ऐसा होने नहीं दिया जाएगा। अगर इस लेख के लिए संजय द्विवेदी जैसे पत्रकार-प्राध्यपक का दमन करने की कोशिश होगी तो पत्रकारों, लेखकों को भी सड़कों पर उतरना पड़ेगा। इसलिए ऐसी नौबत नहीं आनी चाहिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए कांग्रेसियों को आत्म मंथन करके खामोश हो जाना चाहिए। ऐसा करके वे कांग्रेस की छवि खराब कर रहे हैं, और कुछ नहीं।

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