सूर्यसेन(मास्टर दा): चटगाँव का नायक

“मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है, मेरा मन अनन्त की ओर बह रहा है। मेरे लिए यह वह पल है, जब मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में मैं तुम सब के लिए क्या छोड़कर जा रहा हूं? सिर्फ एक चीज- मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रों, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी।”

  • सूर्यसेन (11 जनवरी 1934 ई., फांसी के एक रात पहले एक मित्र को लिखा पत्र) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों का एक अहम योगदान रहा है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ऐसे क्रांतिकारियों के कारनामों से भरा है जिन्होंने अपनी चिंगारी से युगों को रोशन किया है। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि तमाम ऐसे शहीदों को उनका उचित सम्मान नहीं मिला जिनके प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली। अनेकों क्रांतिकारियों व शहीदों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। यह शब्द उनके लिए सटीक ही हैं-

“उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफ़न।।“
प्रारंभिक परिचय
भारत की स्वाधीनता की पृष्ठभूमि में कई महान क्रांतिकारियों ने अपने देश की आजादी की खातिर खून के कड़वे घूंट पिए हैं। ऐसे संघर्ष और वीरता की बेजोड़ गाथा में एक ऐसे क्रांतिकारी की बात करेंगे जिसे महज 41 साल की उम्र में अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। विदेशी शासन के दमन से मुक्ति दिलाने में अपना अहम योगदान देने वाले इस क्रांतिकारी का नाम है- सूर्यसेन या मास्टर दा।

          सूर्यसेन का जन्म 22 मार्च 1894 ई. को नोआपारा, चटगांव ,बंगाल (वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित) में हुआ। माता शशिबाला और पिता स्कूल शिक्षक रामनिरंजन को कम उम्र में खो देने के कारण इनका पालन-पोषण चाचा गुरिमोनी के पास हुआ। 1912 ई. में मैट्रिक उत्तीर्ण करने के पश्चात स्नातक की पढ़ाई उन्होंने बेहरामपुर कॉलेज से प्राप्त की।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ
कॉलेज के आरंभिक दिनों से ही सूर्यसेन क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। 1916 ई. में जब सूर्यसेन चटगांव कॉलेज में अपनी पढ़ाई कर रहे थे उसी समय देश की आजादी की तलाश में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के लिए उनके शिक्षक ने प्रोत्साहित किया। राष्ट्रवादी आदर्शों से प्रेरित सूर्यसेन अपने उस राष्ट्रप्रेमी शिक्षक की प्रेरणा से बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सदस्य बन गए।

       1918 ई. में अपने स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद सूर्यसेन वापस अपने गांव (चटगांव) लौट आये और गणित के शिक्षक की भूमिका में नेशनल स्कूल नंदनकानन में शामिल हो गए। अपने शिक्षण कार्य के दौरान उन्होंने चटगांव में 'युगांतर समूह' की उपस्थिति स्थापित करना आरंभ किया। सूर्यसेन अपने उदात्त आदर्शों, अद्भुत वक्तृत्व कौशल, अलौकिक संगठनात्मक क्षमता और सबसे बड़ी बात कि आम लोगों तक सरल पहुंच ने उन्हें बहुत जल्द ही समाज में एक अलग पहचान दिलाई। शिक्षक के रूप में उनकी श्रेष्ठ सामाजिक स्थिति और स्थानीय आबादी के साथ उनकी लोकप्रियता ने उन्हें 'मास्टर दा' का सम्मान दिया। अब लोग उन्हें प्यार से मास्टर दा के नाम से पुकारते थे।

             यहाँ तक आते-आते मास्टर दा सूर्यसेन के अंदर आजादी की अलख जाग गयी थी। 1928 ई. में गांधी जी के नेतृत्व में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 43वें अधिवेशन में सूर्यसेन शामिल हुए। इसमें सात हज़ार स्वयंसेवकों ने सैनिक गणवेष परिधान में सैन्य संचालन किया जिसका नेतृत्व नेताजी सुभाष चंद्र बोस कर रहे थे। इस स्वयंसेवक दल में क्रांतिकारी सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगांव के क्रांतिकारी भी शामिल हुए थे।

चटगाँव की क्रांति
यहीं इसी सैन्य संचालन से प्रेरणा लेकर सूर्यसेन ने उन सभी चटगांव के क्रांतिकारी साथियों के सहयोग से अपनी एक संस्था बनाई। जिसका नाम था- इंडियन रिपब्लिकन आर्मी।
सूर्यसेन इस आर्मी के प्रमुख थे। देखते ही देखते बहुत कम समय में ही इसके सैनिकों की संख्या पांच सौ से अधिक पहुंच गयी। ये समय सूर्य सेन के लिए बहुत ही अहम रहा, इसी वक्त ये अपनी नौकरी छोड़कर क्रांतिकारियों में पूर्ण रुप से संलग्न हो गए।

          इंडियन रिपब्लिकन आर्मी स्थापित होने के पश्चात क्रांतिकारियों को हथियार की जरूरत पड़ी। सैनिकों के उचित तैयारी होने के पश्चात मास्टर दा सूर्यसेन की अध्यक्षता में लोकनाथ बल, गणेश घोष, अनंत सिंह, नरेश डे और अंबिका चक्रवर्ती की एक बैठक हुई। इस बैठक में सभी ने अपना मत रखा और निर्णय हुआ कि उनकी आगामी योजना चटगांव के शस्त्रागार को लूटना है। इसके अलावा उनकी सूची में सैन्य और पुलिस के शस्त्रागार लूटने के साथ-साथ यूरोपीय क्लब के शोध संस्थान को नष्ट करना, चटगांव के समीप की रेल की पटरी उखाड़ना, जिससे चटगांव तक रसद न पहुंच सके, टेलीफोन के तार काटना, शहर की शस्त्रों की दुकानें लूटना, डाक और तार व्यवस्था नष्ट करना, बंदरगाहों की वायरलेस व्यवस्था नष्ट करना, जेल तोड़कर कैदियों को मुक्त करना, राजनीतिक कैदियों को अपनी पार्टी में शामिल करना, पुलिस कार्यालयों को अपने कार्यालयों के रूप में रूपांतरित करना, ब्रिटिश भक्त अधिकारियों को दंड देना आदि प्रधान कार्य शामिल थे। सूर्यसेन के दूर-दृष्टिकोण का ही नतीजा था कि उन्होंने अपने दो सहयोगियों को क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के पास भेजा और आजाद को जरूरत के समय पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिलाया। 18 अप्रैल 1930 ई. को योजना अनुसार 9:45 बजे आक्रमण का आदेश दिया गया। हर टोली को अलग-अलग कार्य सौंपा गया। एक टोली ने तार व्यवस्था नष्ट की, तो बंदरगाह का वायरलेस व्यवस्था भंग करने के लिए उपेंद्र भट्टाचार्य ने 4 माह के लिए उसी विभाग में नौकरी की। गणेश घोष और अनंत सिंह के नेतृत्व में एक टोली पुलिस शस्त्रागार की ओर रवाना हुई। दोनों गणेश घोष व अनन्त सिंह ने पुलिस अधिकारी की वर्दी पहन रखी थी, कोई उनको पहचाने उससे पहले ही एक क्रांतिकारी ने पहरेदार सहित उपस्थित सिपाहियों को मार दिया और शस्त्रागार से शस्त्र लूटकर शेष शास्त्रों को जला दिया। उसी समय चटगांव में सूर्यसेन ने यूनियन ध्वज उतारकर तिरंगा झंडा फहराया।

          सेना के शस्त्रागार को लूटने की जिम्मेदारी का निर्वहन लोकनाथ बल कर रहे थे। उनका हृष्ट-पुष्ट शरीर व गोरा रंग देखकर शस्त्रागार के रक्षक ने उन्हें सैल्यूट किया, लोकनाथ ने पहरेदार को वहीं मार दिया, गोली की आवाज सुन उपस्थित अंग्रेज अधिकारी भी आये और गोलीबारी हुई, उसी में सार्जन्ट मेजर कैरल मारा गया। लोकनाथ बल ने ताला तोड़कर शस्त्रागार लूट लिया, और जैसा कि पूर्व में नियोजित किया गया था इनका कोई भी साथी हताहत नहीं हुआ। संचार व्यवस्था भंग होने के कारण शहर प्रशासन चार दिन तक पूरी तरह क्रांतिकारियों के हाथ में रहा। इसके बाद सभी क्रांतिकारी पुलिस शस्त्रागार के सामने इकट्ठा हुए, जहां मास्टर दा सूर्यसेन ने अपनी सेना से विधिवत सैन्य सलामी ली, ध्वज फहराया गया और भारत की अस्थाई सरकार की स्थापना की गयी। इसी चटगांव आरमरी रेड की सफलता ने बंगाल में अंग्रेजी सरकार को झकझोर दिया था। मतलब साफ है कि सूर्यसेन का विद्रोह, प्लान के स्तर पर बहुत अच्छा था।

        22 अप्रैल को अंग्रेजी सरकार द्वारा पुनः सारी व्यवस्थाएं ठीक कर ली गई और उसी दिन दो हजार अंग्रेज सैनिकों के द्वारा जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया गया, जहां क्रांतिकारियों ने शरण ले रखी थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी मास्टर दा की सेना ने समर्पण नहीं किया बल्कि हथियार से बद्ध अंग्रेजी सेना के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध आरंभ कर दिया। इन क्रांतिकारियों की वीरता और गोरिल्ला युद्ध कौशल का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस जंग में जहां हथियार बद्ध अंग्रेजी सैनिकों में से 80 से ज्यादा सैनिक मारे गए जबकि वहीं मास्टर दा के मात्र 12 क्रांतिकारी ही शहीद हुए। इसके बाद मास्टर दा सूर्यसेन किसी प्रकार अपने कुछ साथियों के साथ पास के गांव में जाकर छुप गए। लेकिन दुर्भाग्य से कुछ पकड़े गए और मार दिए गए, उसी में एक थीं प्रीतिलता वाछेदार जिनको कोलकाता यूनिवर्सिटी ने 80 साल बाद 2012 ई. में डिग्री दी है, उन्होंने पकड़े जाने पर साइनाइड खाकर जान दे दी थी।

इस विद्रोह के बाद चटगांव में अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति की छोटी-छोटी झड़पें होती रही। मास्टर दा ‘सूर्यसेन’ पुलिस के हाथ नहीं लगे। लोग भी पूरी निर्भयता से उनकी सहायता करते थे। सूर्यसेन भेष बदलकर अपने साथियों की जानकारी लेते रहते थे और उन्हें उचित मार्गदर्शन देते रहते थे। उनके कुशल नेतृत्व का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्हें पकड़ने के लिए हर पाँच मील पर पुलिस और सैनिकों की टुकड़ी नियुक्त की गई थी, फिर भी मास्टर दा अंग्रेजी सैनिकों के चंगुल से बाहर थे।

मित्र का धोखा और गिरफ्तारी
सूर्यसेन को पकड़ने के लिए दस हज़ार रूपये का इनाम घोषित किया गया। दीक्षित नामक थानेदार ने एक जमीदार को लालच दिया और सूर्यसेन को घर बुलाने को कहा। उस जमीदार ने सूर्यसेन को घर बुलाकर पुलिस को सूर्यसेन के आने की खबर कर दी। 16 फरवरी 1935 की उस काली रात को सूर्यसेन अपने आठ साथियों को लेकर मोइराला गांव के जमीदार के वहां आतिथ्य स्वीकार करने पहुंचे। वहीं जमीदार के विश्वासघात के कारण अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। सैनिकों में गोलीबारी हुई लेकिन सूर्यसेन बच नहीं पाये उन्हें बंदी बना लिया गया। और बाकी साथियों की गिरफ्तारी अगली सुबह हुई।

मास्टर दा सूर्यसेन की गिरफ्तारी की खबर सुनकर चटगांव में बहुत लोगों के वहां चूल्हा नहीं जला। हालांकि कुछ ही दिनों में क्रांतिकारियों ने ज़मींदार मित्र सेन और थानेदार माखनलाल दीक्षित को मार डाला। मित्रसेन को मारने के बाद तारकेश्वर दस्तीदार ने सूर्य सेन को अंग्रेजों से छुड़ाने की योजना बनाई, लेकिन योजना पर अमल होने से पहले ही यह भेद खुल गया और तारकेश्वर व अन्य साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय भारतीय क्रांतिकारियों की भारत माता के पैरों में बंधी बेड़ियों को तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखंड परंपरा थी, देश-रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाये और इसका साक्षात उदाहरण मास्टर दा सूर्यसेन व उनके साथियों के रूप में देखा जा सकता है।

शहादत को सलाम
12 जनवरी 1934 ई. को सूर्यसेन को फांसी देने का निर्णय किया गया। उस रात कड़क और सतर्क पहरे में उन्हें फांसी के तख्ते की ओर ले जाया जा रहा था, तभी उन्होंने जोर से वंदे मातरम का नारा लगाया। नारा सुनकर जेल में बंद अन्य क्रांतिकारियों को ज्ञात हुआ कि उनके मास्टर दा की विदाई की आखिरी घड़ी आ गई है। जेल में बंद अन्य क्रांतिकारियों ने भी उतने ही जोर से वंदे मातरम का नारा लगाया। जेल-अधीक्षक व अंग्रेजी सैनिकों को यह पसंद नहीं आया, उन्होंने सूर्यसेन के मस्तक पर लाठी प्रहार किया। इसके बावजूद भी सूर्यसेन और तेज आवाज में वंदे मातरम का उद्घोष करने लगे। फिर तो कठोर अंग्रेजी शासकों के निर्दयी अधिकारियों ने लाठी का प्रहार किया और जब तक मास्टर दा सूर्यसेन की आवाज बंद नहीं हुई तब तक लाठी का प्रहार जारी रहा। फांसी से पूर्व अनेक अमानवीय यातनाएं दी गई, निर्दयतापूर्वक हथौड़े से उनके दांत तोड़ दिए गए, नाखून खींचकर उखाड़ दिया गया और ऐसी अचेतन अवस्था में खींच कर फांसी के तख्ते तक ले जाया गया। फांसी के तख्ते तक पहुँचने से पहले ही उनकी देह निष्प्राण हो चुकी थी, फिर भी निर्दयी-निष्ठुर जेल अधिकारियों ने उनकी निष्प्राण देह को फांसी के फंदे पर लटका दिया। सूर्यसेन के साथी तारकेश्वर को भी उसी रात फांसी दी गई।

            फांसी के बाद इनके मृत शरीर को भी उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया बल्कि इनके शव को लोहे की सांकलों से बांधकर अंधेरे में ही युद्धपोत में ले जाकर समुद्र में डुबोया गया। अंग्रेजी शासन इस महान क्रांतिकारी से इतनी आतंकित थी कि मृतदेह के लिए युद्धपोत का उपयोग किया गया और लोगों को ज्ञात होने के पहले ही मृतदेह बांधकर अंधेरे में ही समुद्र में डूबा दिया गया। इस प्रकार इस महान क्रांतिकारी ने अपना सर्वस्व भारत माता की आजादी पर न्यौछावर कर दिया।

        ऐसे तमाम क्रांतिकारी हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत माता पर न्यौछावर कर दिया लेकिन देश के लोग उन्हें नहीं जान पाये। आज देश उन्हें फिल्मों के माध्यम से देख व जान रहा है। फिल्म निर्देशक आशुतोष गोवारिकर ने  'खेलें हम जी जान से (2010)' नामक फिल्म सूर्यसेन के जीवन पर आधारित बनाया, जिसमें अभिनेता अभिषेक बच्चन ने सूर्यसेन की भूमिका निभाई। वहीं एक अन्य फिल्म 'चिटगांव (2012)' जो बेदब्रत पाइन द्वारा निर्देशित थी, इनके जीवन पर आधारित है।

           महान क्रांतिकारी सूर्यसेन (मास्टर दा) का जीवन बहुत छोटा रहा लेकिन अपने इस छोटे जीवन को भारत माता पर न्यौछावर कर खुद को अमर कर लिया। लोक सदियों तक इस महान नायक को नमन करेंगे।

अंकित कुमार राय
शोधार्थी, हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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