कसौटी पर भारत-भूटान संबंध

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india and bhutanअरविंद जयतिलक

भारत की यूपीए सरकार अपने वैदेशिक कुटनीतिक संबंधों को लेकर हमेशा सवालों के घेरे में रही है। उस पर आरोप लगता रहा है कि उसकी अदूरदर्शी नीतियों की वजह से पड़ोसी देशो से संबंध खराब हुए हैं और सुरक्षा को आघात पहुंचा है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान देखा भी गया कि सरकार की कुटनीतिक विफलता की वजह से चीन, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव से संबंधों में खटास उपजा है। गत दिनों भारत सरकार एक और अदूरदर्शी निर्णय तब देखने को मिला जब उसने भूटान को दी जाने वाली करोसिन तेल और र्इंधन सबिसडी पर रोक लगा दी। इसकी सर्वत्र आलोचना हुर्इ। अब भूटान की नर्इ सरकार से कर्इ मसलों पर विचार-विमर्ष के बाद भारत एक बार फिर उसे सबिसडी दरों पर केरोसिन और रसोइ गैस देने को तैयार हो गया है। लेकिन अहम सवाल यह है कि सबिसडी रोकने की रणनीतिक कवायद से भारत को उपहास और आलोचना के सिवाय क्या हासिल हुआ है? क्या नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे की सफार्इ से भूटान की नीयत को लेकर उपजी आशंकाएं खत्म हो गयी है? या भूटान के यह कह देने से कि वह सुरक्षा परिषद में अस्थायी सीट हासिल करने के लिए चीन की मदद नहीं लेगा, सब कुछ ठीक हो गया है? शायद भारत संतुष्ट हो गया है। लेकिन अहम सवाल यह कि जब भूटान को सबिसडी दी जानी ही थी तो फिर नवीनीकरण की आड़ लेकर उस पर रोक क्यों लगाया गया। क्या संसदीय चुनाव को देखते हुए कुछ और दिन की उसे मोहलत नहीं दी जा सकती थी? लेकिन भारत ने इस पर गौर न फरमाकर अपनी कुटनीतिक विफलता को रेखांकित करने पर ज्यादा जोर दिया। अब देखना दिलचस्प होगा कि भूटान की नर्इ सरकार भारत के प्रति जतायी जा रही प्रतिबद्धता पर कितना कायम रहती है। उल्लेखनीय है कि भूटान के संसदीय चुनाव में मुख्य विपक्षी दल पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) सत्तारुढ़ फेनसुम शोगपा पार्टी (डीपीटी) को पराजित कर सत्ता पर कब्जा कर लिया है। नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने दोनों देशो के बीच संबंध मधुर बनाने की बात कही है। उन्होंने दोहराया है कि पुरानी बातों को भूलकर आगे बढ़ेगे। उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री को भूटान आने का न्यौता भी दिया है। लेकिन मौंजू सवाल जस का तस बना हुआ है कि सबिसडी रोकने की टीस को भूटान आसानी से भूल जाएगा? क्या इस घटना के बाद उसके मन में भारत के प्रति निष्ठा और विश्वास ज्यों का त्यों बना रहेगा? कहना मुश्किल है। भले ही भारत पुन: सबिसडी देने को तैयार हो गया हो लेकिन उसके विगत निर्णय से सात लाख की आबादी वाले भूटान की बेचैनी कम नहीं हुर्इ है। भूटान की जनता भारत को अब शक की निगाह से देखने लगी है। कारण उसके आत्मसम्मान को चोट पहुंचा है। 1987 में राजीव गांधी की सरकार ने भी नेपाल के साथ कुछ इसी तरह का व्यवहार किया था। उसने नेपाल को अनाज, तेल और गैस की आपूर्ति बंद कर दी थी। सिर्फ इसलिए कि काठमांडों सिथत पशुपतिनाथ मंदिर में राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया गांधी को प्रवेश और पूजा-अर्चना की अनुमति नहीं मिली। भारत के प्रतिबंध के बाद नेपाल की जनता सड़क पर उतरी और भारत विरोधी नारे लगाए। चीन ने आगे बढ़कर नेपाल की मदद की और आज नेपाल चीन के साथ खड़ा है। केरोसिन और गैस की सबिसडी रोके जाने के बाद सत्ताधारी फेनसुम षोगपा पार्टी (डीपीटी) ने भी चुनाव में खूब प्रचारित किया कि सालाना 50 करोड़ की कीमत पर तेल और गैस उपलब्ध कराने की ताकत भारत की नहीं रही। दरअसल उसका मकसद भूटानी जनता में भारत के प्रति आक्रोश पैदा कर दुबारा सत्ता पर काबिज होना था। यह अलग बात है कि उनकी रणनीति बेकार गयी। लेकिन अगर डीपीटी सत्ता में लौटने में सफल रहती तो क्या यह भारत के हित में होता? कतर्इ नहीं। भारत को अपनी कुटनीतिक विफलता पर माथा पीटना पड़ता। यह तथ्य है कि 2008 के बाद से भूटान की राजनीति करवट ले रही है और उसकी प्राथमिकता में भारत के साथ-साथ चीन भी शुमार होने लगा है। भूटानी प्रधानमंत्री थिनले की चीन से आत्मीयता किसी से छिपा नहीं है। याद होगा पिछले वर्ष रियो द जेनेरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री से मुलाकात की और 20  बसों का सौदा किया। इससे भारत बेहद नाराज हुआ और माना जा रहा है कि इसी वजह से उसने भूटान को दी जाने वाली सबिसडी पर रोक लगायी। कहा तो यह भी जा रहा है कि भूटान अब भारत की छाया से मुक्त होकर स्वतंत्र विदेशनीति की राह पकड़ना चाहता है। अगर भूटान इस दिशा में आगे बढ़ता है तो भारत के सामरिक हित में नहीं होगा। उसे फूंक-फूंककर कदम रखना होगा। 1949 में भारत और भूटान ने मित्रता और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए थे जिसका सार यह था कि भूटान वैदेशिक मामलों में भारत के सुरक्षा हितों को ध्यान रखेगा और उसकी सलाह मानेगा। लेकिन फरवरी 2007 में भूटान सम्राट जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचूक की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशो ने संधि को संशोधित करते हुए इसमें एक नर्इ बात जोड़ दी। वह यह कि दोनों देश एकदूसरे की संप्रभुता, स्वतंत्रता, और क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करेंगे। आज भूटान 53 देशो के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लिया है। ठीक है कि चीन के साथ उसके अभी राजनयिक संबंध नहीं है। लेकिन कितने दिन? देर-सबेर वह चीन से राजनयिक संबंध स्थापित करेगा ही। समझना जरुरी है कि जिस दिन चीन चुंबी घाटी तक रेल लाइन बिछाने में कामयाब हो जाएगा उस दिन भूटान की चीन से नजदीकी और भारत से दुराव बढ़ना लाजिमी है। वैसे भी चीन भारत-भूटान दोस्ती के बीच दरार डालने का कोर्इ मौका गंवा नहीं रहा है। लेकिन सवाल यह कि क्या भारत इसे गंभीरता से ले रहा है? अगर दी जाने वाली सबिसडी रोकने से चीन को भूटान के नजदीक जाने का मौका मिला है तो क्या इसके लिए भारत जिम्मेदार नहीं है? ठीक है कि भारत भूटान की ढांचागत परियोजनाओं मसलन पेण्डन सीमेंट प्लांट, पारो एयरपोर्ट, हार्इवेज, विधुत वितरण प्रणाली और खनिज उत्पादन में महती भूमिका निभा रहा है और उस हिसाब से भारत को भूटान से लाभ नहीं मिल रहा है। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि भूटान भारत के आगे अपने आत्मसम्मान को गिरवी रख दे। समझना होगा कि भूटान भी एक संप्रभु राष्ट्र है और उसका सम्मान होना चाहिए। अगर कहीं उसके स्वाभिमान को कुचला गया तो बेशक उसके मन में भारत के प्रति कटुता पैदा होगी और चीन इसका फायदा उठाने में सफल रहेगा। अच्छी बात यह है कि भूटान की सत्ता संभाल चुकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) भारत की आतंरिक सुरक्षा को लेकर संवेदनशील है और अपनी प्रतिबद्धता पर कायम भी। लेकिन बात तब बनेगी जब भारत भी भूटान के प्रति अपने नजरिए में बदलाव लाएगा। समझना होगा कि भूटान को शत्रु बनाकर भारत खुद चैन से नहीं बैठ सकता।

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