सांस की कीमत पूछी गई

साँस-साँस को मोहताज किया,
जीवन को नीलाम किया।
मासूम थी, बस एक साल की,
फिर भी व्यवस्था ने इनकार किया।

“वेंटिलेटर चाहिए?” — पूछा गया,
“सिफ़ारिश है?” — तौल कर कहा।
दोपहर से लेकर रात तलक,
बच्ची की साँसों ने दस्तक दी हर पल।

कभी सिस्टम की फाइल में अटकी,
कभी डॉक्टरों के मुँह के फेर में भटकी।
कंधे पर बैठी थी ममता की पुकार,
पर अस्पताल ने लगाया इंतज़ार।

PGI की गलियों में चीख गूँजती रही,
परदीवारें खामोश रहीं, मशीनें बंद पड़ी रहीं।
नही थी वो वोट, न पहचान की सिफारिश,
बस थी एक जान – मासूम, बेगुनाह, बेपरवाह।

सिस्टम का क्या दोष कहें?
यहाँ तो जिंदा रहने के लिए भी पहचान चाहिए।
गरीब की बेटी हो या किसान का बेटा,
बिना जुड़ाव, बिना सत्ता — नहीं मिलता हक़ जीने का।

— डॉ सत्यवान सौरभ

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