झूठ को सच में बदलने की कोशिश

जब से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत और मुस्लिम समाज की पांच हस्तियों के बीच भेंट की खबर सार्वजनिक हुई है, तबसे इन हस्तियों की पूछ-परख बढ़ गई है। ये हस्तियां चर्चा के केंद्र में इसलिए भी हैं, क्योंकि उनसे मुलाकात के बाद पिछले दिनों मोहन भागवत ने दिल्ली में मस्जिद और मदरसे का भ्रमण किया। इस दौरान वह अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख उमर अहमद इलियासी से भी मिले। इस मेल-मुलाकात को मुस्लिम समाज से संवाद बढ़ाने की आरएसएस की पहल का हिस्सा माना जा रहा है।

यह स्वागत योग्य है, क्योंकि अपने देश में इस तरह के संवाद की एक समृद्ध परंपरा रही है। विभिन्न पक्षों में स्वस्थ संवाद से समस्याओं का समाधान निकालने में सहायता मिलती है और एक-दूसरे के प्रति भ्रांतियां भी दूर होती हैं। अभी यह जानना कठिन है कि आरएसएस प्रमुख और मुस्लिम समाज के प्रतिष्ठित लोगों के बीच बातचीत के क्या नतीजे सामने आएंगे, लेकिन यदि कोई यह स्थापित करने की कोशिश करेगा कि मुसलमान डरे हुए हैं तो फिर दोनों पक्षों के बीच आगे होने वाली वार्ता का कोई भविष्य नहीं।

आरएसएस प्रमुख से भेंट करने वाली मुस्लिम समाज की पांच हस्तियों में से एक पर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई करैशी ने विभिन्न साक्षात्कारों और अपने एक लेख में यह रेखांकित किया है कि इस मुलाकात का एक उद्देश्य मोहन भागवत को ‘वैमनस्य के वर्तमान वातावरण’ और मसलमानों की इस भावना से अवगत कराना था कि वे स्वयं को ‘असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।’ क्या वास्तव में ऐसा है? 

इसकी पड़ताल-गहन पड़ताल होनी चाहिए और हाल की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में होनी चाहिए।

क्या उदयपुर में कन्हैयालाल और अमरावती में उमेश कोल्हे की हत्या खुद को असुरक्षित महसूस करने वालों ने की थी? क्या इसी दौरान देश के विभिन्न शहरों में निकली उग्र भीड़ किसी डर की वजह से ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक ही सजा-सिर तन से जुदा’ के खौफ पैदा करने वाले नारे लगा रही थी? क्या इसके पहले चैत्र नवरात्र,रामनवमी और फिर हनुमान जन्मोत्सव पर कई शहरों में शोभायात्राओं पर हमले डरे हए लोगों ने किए? इसी तरह क्या हिजाब विवाद के दौरान कर्नाटक के शिमोगा में हर्षा नामक युवक की हत्या करने वाले खद को असुरक्षित महसूस कर रहे थे? क्या ज्ञानवापी प्रकरण के समय शिवलिंग का उपहास उड़ाने वाले डरे हुए लोग थे?

थोड़ा और पीछे चलें और याद करें कि 2019 में नागरिकता संशोधन कानन के खिलाफ कैसा उग्र और हिंसक विरोध हुआ था? क्या इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि में कई जगह जो हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ और यहां तक कि पुलिस पर हमले हुए, वे उन लोगों ने किए, जो भयभीत थे?

क्या देश की राजधानी के शाहीन बाग इलाके में जो लोग करीब सौ दिन तक एक प्रमुख मार्ग पर कब्जा किए रहे और दिल्ली समेत पड़ोस के शहरों के लाखों लोगों की आवाजाही को बाधित किए रहे, वे डरे हुए थे? क्या जो नेता, बुद्धिजीवी वगैरह धरना दे रहे इन लोगों का समर्थन करने शाहीन बाग पहंच रहे थे,वे उनका डर कम करने में लगे हुए थे?

ध्यान रहे कि शाहीन बाग में धरना दे रहे लोग तब भी नहीं डिगे, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दिल्ली यात्रा के समय भीषण दंगे भडक उठे थे। इस दंगे में एक पुलिस कर्मी और खुफिया ब्यूरो के एक कर्मचारी समेत 50 से अधिक लोग मारे गए, लेकिन कथित तौर पर डरे हुए लोग शाहीन बाग में डटे ही रहे।

देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी डरी हुई है, यह एक नितांत आधारहीन और मिथ्या धारणा हैं। वास्तव में यह एक किस्म का छलावा है, क्योंकि किसी देश में कोई अल्पसंख्यक समूह किस तरह सचमुच डर के साये में जी रहा होता है, इसे पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों की बदतर हालत से लगाया जा सकता है।

इस डर की चरम सीमा तब देखने को मिली थी, जब 2020 में पाकिस्तान के करक जिले में सदियों पुराने एक मंदिर को आग के हवाले करने वाले मजहबी कट्टरपंथियों पर वहां की एक अदालत ने जुर्माना लगाया। कुछ समय बाद यह खबर आई कि हिंदुओं ने ‘सदभावना’ बनाए रखने के लिए दंगाइयों पर लगाया गया जुर्माना ‘माफ’ कर दिया है और इसी के साथ सरकार ने दोषियों पर चलाया जा रहा मुकदमा वापस लेने का फैसला किया है। कोई भी समझ सकता है कि हिंदओं को डराकर इसके लिए राजी किया गया होगा कि वे अपनी खैर चाहते हैं तो मंदिर खाक करने वालों को माफ कर दें।

जैसे इस झूठी धारणा से लैस लोगों से बातचीत सार्थक नतीजे नहीं दे सकती कि भारत का मुस्लिम समाज खद को असुरक्षित महसूस कर रहा है, वैसे ही इस बात का भी कोई विशेष मूल्य-महत्व नहीं कि सबका डीएनए एक है। विभिन्न समुदायों के लोगों का डीएनए एक होना उनके बीच शांति-सद्भाव की गारंटी नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी के लोग आज भारत के सच्चे हितैषी होते, क्योंकि उनका भी डीएनए वही है, जो भारत के लोगों का है।

संवाद की महत्ता तभी है, जब वह मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर किया जाए या फिर उसका लक्ष्य ऐसी धारणाओं और साथ ही हर तरह के पूर्वाग्रह-दुराग्रह का निवारण करना हो। संवाद के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किया जाना चाहिए। यदि उद्देश्य यही है तो फिर संवाद का सिलसिला न केवल कायम रहना चाहिए, बल्कि उसमें सभी को अपना योगदान भी देना चाहिए। 

उपरोक्त लेख में वरिष्ठ स्तंभकार श्री राजीव सचान जी ने। बहुत ही स्पष्ट तरह से समझाया  है कि जिहादी किस-किस प्रकार से झूठ को ही सच बनाने के लिये भी आक्रमक भूमिका निभाते हैं l सभी जेहादियों  और उनके साथियों को यह भली भांति समझाया जाता है कि सत्य कभी स्वीकार मत करना और उसे झूठ ठहराने के लिए सभी हथकंडे अपनाना l वैसे भी सभ्य समाज को निरन्तर आतंकित करके पीड़ित करने वाले मुस्लिम गुंडे और आतंकी “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” और “उदार व अहिंसक हिन्दुओं ” से कैसे भयभीत हो सकते है?

यह भी क्यों नहीं समझ में आता कि डीएनए केवल शारीरिक रचना का परीक्षण होता है ,अतः एक समान होने पर भी उनके धर्म और आस्थाओं में भेद होने के कारण उनकी संस्कृति और संस्कारों में अन्तर होना स्वाभाविक है! भारत की संस्कृति में देवताओं सहित  जीवन देने वाले हरे-भरे खेत एवं नदियों का शांत और सरल स्वभाव देखने को मिलता है जिससे हिन्दुओं में जियो और जीने दो का भाव विकसित होता है, जबकि अरब की तूफानी आग उगलती रेगिस्तानी संस्कृति भूख-प्यास के कारण हिंसक और लुटेरा बनने की वृत्ति उत्पन्न करती है l

विनोद कुमार सर्वोदय

लेखक: श्री राजीव सचान (सुप्रसिध्द वरिष्ठ स्तंभकार एवं दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर )

साभार : दैनिक जागरण  05.10.22

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