अघोषित ‘ सत्तायुद्ध ‘ लड़ता रहा विपक्ष

राकेश कुमार आर्य

 भारत की 17वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम अब हम सबके सामने आ चुके हैं । चुनावों में विपक्ष का देश के मतदाताओं ने जिस प्रकार सूपड़ा साफ किया है उससे स्पष्ट कर हो गया है कि भारत का मतदाता मोदी सरकार की नीतियों में विश्वास व्यक्त करता है। वह मोदी के नेतृत्व में भारत को आगे बढ़ते देखना चाहता है । विपक्षी दल केन्द्र में सरकार बनाने की संभावनाओं को पहले दिन से तलाशते रहे , पर उनकी तलाश पूरी नहीं हुई और तलाश पूरी होने से पहले ही मोदी को देश की जनता ने देश का दोबारा प्रधानमंत्री चुन लिया। सारा चुनाव मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में चुनने के लिए हुआ । प्रधानमंत्री के लिए लोगों की नजरों में दो ही चेहरे थे , प्रधानमंत्री मोदी स्वयं और राहुल गांधी। इन चुनावों में मोदी महानायक के रूप में उभरे तो राहुल गांधी को देश की जनता ने घास नहीं डाली और विपक्ष के किसी संभावित प्रधानमंत्री की ओर तो देश के लोगों ने देखा ही नहीं। 
चुनाव से लेकर केन्द्र में सरकार बनाने तक विपक्षी दलों का ध्येय देश की राजनीति को नयी दिशा देने एवं सुदृढ़ भारत निर्मित करने के स्थान पर निजी लाभ उठाने का ही रहा है। सारा विपक्ष ‘ सत्ता युद्ध ‘ लड़ता रहा , देश के हितों की उपेक्षा कर के ‘ टुकड़े-टुकड़े गैंग ‘ , पाकिस्तान समर्थक लोगों , पाकिस्तान और ऐसे सभी भारत विरोधी स्वरों को मुखर करता रहा या उन्हें अपनी ओर से खाद पानी देता रहा जो केवल और केवल भारत विरोध की बात करते दिखाई देते रहे हैं । इससे लोगों ने मोदी सरकार में विश्वास व्यक्त किया और सारे ‘ टुकड़े-टुकड़े गैंग ‘ वालों को या उन जैसे लोगों का समर्थन करने वाले सभी विपक्षी दलों को उसने नकार दिया । 
देश के मतदाताओं के द्वारा विपक्षी दलों को इस प्रकार नकार देना उनके मुंह पर करारा तमाचा है। जिस पर हमारे विपक्ष को गंभीरता से इस समय आत्ममंथन करना ही होगा ।विपक्ष के तेवरों को देखकर ऐसा लगता नहीं कि वह आत्ममंथन या आत्मचिंतन की स्थिति में जाएगा , क्योंकि उसने जिस प्रकार ईवीएम आदि का बहाना लेकर अपने मुंह को छिपाने का प्रयास किया है , उससे लगता है कि वह अभी भी आत्मचिंतन की मुद्रा में नहीं है और वह केवल मोदी सरकार को गरियाते रहने में ही अपना भला देख रहा है । जबकि इससे वह है देश के मतदाताओं की दृष्टि में और भी मूल्यहीन ही होगा ।
प्रश्न यह भी है कि यदि विपक्षी नेता मोदी सरकार की वापसी रोकने को लेकर इतने ही प्रतिबद्ध थे तो फिर उन्होंने चुनाव पूर्व कोई गठबंधन क्यों नहीं तैयार किया? सरकार बनाना हो या सशक्त विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करना हो, ये विपक्षी दल किस सीमा तक अपने सहयोगियों को एकजुट कर पाते हैं, यह एक बड़ी चुनौती है, जिस पर वे चुनाव पूर्व की स्थितियों में असफल रहे हैं । उनका सारा सत्तायुद्ध इस आशा पर केंद्रित रहा कि चुनावोपरांत यदि परिस्थितियां मोदी के विपरीत दिखाई देती हैं और मोदी की भाजपा यदि 272 के चमत्कारिक आंकड़े से नीचे रह जाती है तो फिर जितने भर भी गैर भाजपाई विपक्षी दल हैं ,उन सब को मिलाकर एक ‘खिचड़ी सरकार ‘ बना ली जाएगी और उसमें सब अपने-अपने हिस्सा तय कर लेंगे। जिसकी जितनी अधिक सीटें होंगी वह उतने ही अधिक मलाईदार मंत्रालयों को लेने में सफल हो जाएगा। यह स्वार्थ का सौदा था। देशहित इसमें कहीं भी नहीं था । केवल और केवल स्वार्थ ही था । जिसको देश की जनता ने समझा और सारे विपक्षी दलों को उसने एक साथ नकार दिया ।
भारतीय लोकतंत्र में विपक्षी दल अपनी सार्थक भूमिका निर्वाह करने में असफल रहे हैं। क्योंकि दलों के दलदल वाले देश में अधिकांश विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं रहा है, देश को बनाने का संकल्प नहीं है । नेतृत्वविहीन विपक्ष आज भी नेतृत्व के लिए संघर्ष कर रहा है । राहुल गांधी विपक्ष को नेतृत्व प्रदान नहीं कर पाए और ना ही यह बात किसी अन्य विपक्षी दल के नेता ने पूरी करने की चेष्टा की। जिनमें ममता , मायावती ,अखिलेश सहित चंद्रबाबू नायडू जैसे कई नेता सम्मिलित हैं । उनके बीच में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो विपक्षी गठबंधन की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता रहा है। विपक्षी गठबंधन को सफल बनाने के लिये नारा दिया गया कि ‘पहले मोदी को मात, फिर पीएम पर बात।’ ऐसा लग रहा है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व के बजाय नीतियों को प्रमुख मुद्दा न बनाने के कारण विपक्षी दल असफल और अस्वीकार्य सिध्द हो रहे हैं, अपनी पात्रता को खो रहे हैं, यही कारण है कि न वे मोदी को मात दे पाये हैं और न ही पीएम की बात करने की पात्रता प्राप्त कर सके हैं।
ध्यान रहे कि इन विपक्षी दलों ने केवल महागठबंधन बनाने के दावे ही नहीं किए गए थे, अपितु न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने का भी वादा किया गया था। लेकिन इस वादे से किनारा किए जाने से आम जनता के बीच यही संदेश गया कि विपक्षी दल कोई ठोस विकल्प पेश करने को लेकर गंभीर नहीं है और उनकी एकजुटता में उनके संकीर्ण स्वार्थ बाधक बन रहे हैैं, वे अवसरवादी राजनीति की आधारशिला रखने के साथ ही जनादेश की मनमानी व्याख्या करने, मतदाता को गुमराह करने की तैयारी में ही लगे है। इन्हीं स्थितियों से विपक्ष की भूमिका पर सन्देह एवं शंकाओं के बादल मंडराने लगे।
इन चुनावों में विपक्षी दलों ने एकता के लिये अनेक नाटक रचे, भाजपा एवं मोदी को हराने सभी उचित अनुचित युक्तियां भिड़ाईं गयीं। उस समय प्रत्येक राजनीतिक दल को अपनी औकात की पता नहीं थी , लेकिन चुनाव परिणाम आने के पश्चात इन सबको अपनी औकात की पता हो गई है । चुनाव पूर्व यदि ये दल एक सार्थक गठबंधन करते तो प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक कठिन चुनौती प्रस्तुत कर सकते थे । चुनाव संपन्न होने के पश्चात आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं से मिले । उनके इस सघन संपर्क अभियान के बीच अन्य दलों के नेता भी भावी सरकार बनाने की संभावनाओं को तलाशते हुए प्रयास करते दिखाई दिए। यद्यपि एग्जिट पोल के परिणामों को देखकर यह स्पष्ट हो गया था कि मोदी सरकार दुबारा आ रही है तो ऐसे में चंद्रबाबू नायडू के प्रयासों पर जनता को केवल मनोरंजन का ही अवसर उपलब्ध हुआ । देश के मतदाताओं ने यह समझ लिया कि अब विपक्षी दल जो कुछ भी कर रहे हैं वह केवल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ही कर रहे हैं ।
विपक्षी दलों के गठबंधन वैचारिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार पर सत्तारूढ़ दल का विकल्प प्रस्तुत करने में असफल रहा है। उसने सत्तारूढ़ भाजपा की आलोचना की, पर कोई प्रभावी विकल्प नहीं दिया। किसी और को दोष देने के बजाय उसे अपने अंदर झांककर देखना चाहिए। क्षेत्रीय मुद्दे उसके लिए इतने महत्वपूर्ण रहे कि कई बार राष्ट्रीय मुद्दों पर उसने एक शब्द भी नहीं बोला । प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी सफलता के साथ बुआ बबुआ की जोड़ी को उत्तर प्रदेश तक सीमित कर दिया तो चंद्रबाबू नायडू को वह आंध्र प्रदेश में रोकने में सफल रहे । इसी प्रकार देश के प्रत्येक प्रदेश में उन्होंने क्षेत्रीय क्षत्रपों को उन्हीं के प्रदेशों तक सीमित कर दिया । विपक्ष की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर यदि कोई दिखाई दे रहा था तो वह राहुल गांधी थे। जिनका उपहास देश की जनता भी उड़ा रही थी ।।उनकी बचकानी बातें उन्हें नेता नहीं बनने दे रही थीं । और जिनमें नेता के गुण थे उन सबको भाजपा ने उन्हीं के प्रदेशों में रोककर खड़ा कर दिया । जिससे विपक्ष शक्तिहीन हो गया और वह प्रधानमंत्री मोदी की रणनीतिक चालों में ऐसा फंसा कि आज अपने अस्तित्व के लिए आंसू बहा रहा है । लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है जब मजबूत विपक्ष होता है और सत्ता की कमान संभालने वाले दलों की भूमिकाएं भी बदलती रहती है। 
भारत के विपक्षी दलों ने इस बात को समझा नहीं कि केवल सत्तायुद्ध से सत्ताएं प्राप्त नहीं की जाती हैं । सत्ता प्राप्त करने के लिए आदर्श राष्ट्रीय चिंतन का होना आवश्यक है । टुकड़े-टुकड़े गैंग और भारत विरोधी लोगों को साथ लेकर चलने से राष्ट्रवाद की परिकल्पना साकार नहीं हो सकती । राष्ट्रवाद की परिकल्पना तभी साकार होगी जब देश की मुख्यधारा में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को खुली सांस लेने के लिए ऐसे सभी आतंकी , समाज विरोधी और देश विरोधी लोगों का खात्मा करने के लिए दृढ़ संकल्प लेकर राजनीतिक दल चुनावी मैदान में उतरेंगे जो देश के परिवेश को विद्रूपित और प्रदूषित करने का प्रयास करते रहते हैं। जब तक विपक्ष सत्ता प्राप्ति के इस मूल मंत्र पर काम नहीं करेगा तब तक वह न तो अपना भला कर पाएगा और न देश का भला कर पाएगा । 
हम अपेक्षा करते हैं कि इस बार लोकसभा में हम काम होते हुए देखेंगे और विपक्ष रचनात्मक प्रस्ताव ला लाकर देश की सरकार को सहयोग भी देगा और साथ ही उसके किसी भी ऐसे आचरण का विरोध भी करेगा जो उसे अहंकारी बनाने वाला हो । देशहित को ऊपर रखकर यदि लोकसभा में काम होता हुआ दिखाई दिया तो देश की जनता विपक्ष को भी सत्ता देने में देर नहीं पड़ेगी।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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