यूपीःभाजपा के दिग्गज टिकट के दावेदार

bjpउत्तर प्रदेश भाजपा की कमान अमित शाह के हाथों में आते ही प्रदेश भाजपा में सुगबुगाहट तेज हो गई है।वह दिग्गज नेता जो कुछ माह पूर्व तक यह मान कर चलते थे कि पार्टी उनसे है,वह पार्टी से नहीं,हवा का रूख बदलते ही अपना धैर्य और संतुलन खो बैठे हैं।साख बचाये रखने का संकट उनके सामने दीवार बनकर खड़ा हो गया है।दूसरों को टिकट दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले पार्टी के कद्दावर नेताओं के लिये बदले हालात में दूसरों को टिकट दिलाना तो दूर अपने लिये भी टिकट का जुगाड़ करना मुश्किल हो रहा है।ऐसा इस लिये है क्योंकि आलाकमान ने अबकी से तय कर लिया है कि किसी नेता का कद-नाम देखकर नहीं, उसकी जीत की संभावनाओं पर गौर करने के बाद ही टिकट दिया जायेगा।शाह की बातों से भी लगता है कि वह कोई रिस्क नहीं लेना चाहते हैं। अमित शाह(नरेन्द्र मोदी के विश्वासपात्र)के सामने किसी भी दिग्गज नेता की दाल नहीं गल रही है।शाह पार्टी के सभी कील-पेंच कस कर अपनी राजनैतिक गोटियां धीरे-धीरे आगे बढ़ा रहे हैं।लक्ष्य अगले वर्ष होने वाला लोकसभा चुनाव हैं।नरेन्द्र मोदी से बात करने के बाद शाह ने चुनावी रणनीति पर काम तेज कर दिया हैं।वह उन नेताओं से दूरी बनाकर चल रहे हैं जो गुटबाजी और टांग खिंचाई के लिये काफी ‘शोहरत’ बटोर चुके हैं।ऐसे नेताओं को भी वह तवज्जो नहीं दे रहे हैं जो जमीनी की जगह ड्राइंग रूम और मीडिया में चमकने के लिये राजनीति करते हैं।

उत्तर प्रदेश भाजपा में इस बार हालात कई मायनों में बदले हुए हैं।पिछली बार के मुकाबले इस बार टिकट मांगने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है।ऐसा इस लिये हो रहा है क्योंकि सबको उम्मीद है कि इस बार भाजपा सहयोगी दलों की मदद से केन्द्र की सत्ता में आ सकती है।पार्टी के दिग्गज नेताओं में शुमार होने वाले राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी,कल्याण सिंह,योगी आदित्य नाथ,उमा भारती,कलराज मिश्र,मेनका गांधी, वरूण गांधी,लाल जी टंडन,विनय कटियार, हुकुम सिंह,संतोष गंगवार,ओम प्रकाश सिंह,नैपाल सिंह,सूर्य प्रताप शाही,प्रेम लता कटियार जैसे तमाम नेता टिकट के लिये हाथ पैर मार रहे हैं।टिकट चाहने वाले नेताओं की लिस्ट में कई नाम तो ऐसे हैं जो पिछली बार विधान सभा का चुनाव भले ही न जीत पाये हों लेकिन सांसदी का सपना कहीं न कहीं दिल में पाले हुए हैं।ओम प्रकाश सिंह,प्रेम लता कटियार ऐसे ही नेताओं में से एक हैं।राज्य सभा की राजनीति करते-करते पहली बार विधायिकी का चुनाव जीतने वाले कलराज मिश्र भी सांसद बनकर अपना कद बढ़ाना चाहते हैं।इसी तरह से ऐसे नेताओं की भी संख्या कम नहीं है जो अपना संसदीय क्षेत्र बदल कर चुनाव लड़ना चाहते हैं।मुरली मनोहर जोशी का मन वाराणसी से भर गया है तो राजनाथ सिंह,मेनका गांधी,वरूण गांधी को लेकर भी चर्चा आम हैं कि यह नेता नये ठिकाने तलाश रहे हैं।पिछले लोकसभा चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बताने वाले लखनऊ के सांसद लाल जी टंडन का भी मन बदल गया है।टंडन अपने गोपाल टंडन पुत्र को विधायक और उसके बाद लखनऊ से लोकसभा चुनाव में उतार कर अपने राजनैतिक जीवन को विराम देना चाहते थे,लेकिन गोपाल को विधान सभा चुनाव में मिली हार से टंडन का सपना अछूरा रह गया।बदले हालात में टंडन राजनैतिक वनवास का इरादा त्याग कर खुद मैदान में कूदने को तैयार हो गये हैं।वैसे टंडन की अति महत्वाकांक्षा को पार्टी के कई बड़े नेताओं के चलते पलीता लग सकता है,क्योंकि कभी अटल जी का संसदीय क्षेत्र रहा लखनऊ पार्टी के कई दिग्गज नेताओं को लुभा रहा है।राजनाथ सिंह यहां से चुनाव लड़ना चाहते हैं तो मोदी के नाम की भी चर्चा है।

ऐसे ही हालात कभी भाजपा की मजबूत तिकड़ी अटल-आडवाणी के साथ गिने जाने वाले मुरली मनोहर जोशी के साथ भी है।कुछ बढ़ती उम्र और कुछ नरेन्द्र मोदी को भाजपा केन्द्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाये जाने का दबी जुबान से ही सही विरोध करना जोशी पर भारी पड़ रहा है।आडवाणी के बाद मुरली मनोहर जोशी को लेकर यह चर्चा धीरे-धीरे आम होती जा रही है कि बढ़ती उम्र की आड़ में उनका टिकट भी काटा जा सकता है।इस बात में इस लिये भी दम लगता है क्योंकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपने करीबी रामेश्वर चैरसिया को भाजपा का राष्ट्रीय मंत्री व उत्तर प्रदेश के चुनाव का सह प्रभारी बनाने के साथ काशी क्षेत्र का भी प्रमुख प्रभारी नियुक्त कर दिया है।वाराणसी के सांसद मुरली मनोहर जोशी के लिये यह खतरे की घंटी जैसा था।चैरसिया ने नियुक्ति मिलते ही काम भी शुरू कर दिया।गौरतलब हो लखनऊ नहीं तो नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह में से किसी एक के वाराणसी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की चर्चा जोरों पर है।इस बात की भनक जोशी को भी लग गई है,इसलिये वह वाराणसी  छोड़कर कानपुर से लेकर इलाहाबाद तक में चुनाव लड़ने की संभावनाएं तलाश रहे हैं।इलाहाबाद से जोशी पूर्व में सांसद रह भी चुके हैं।जोशी से पिछले दिनों सवाल भी किया गया था कि क्या आप इस बार काशी से चुनाव नहीं लड़ेंगे तो उन्होंने सीधा जबाव नहीं दिया और सब कुछ आलाकमान पर छोड़ दिया।वैसे कहा यह भी जा रहा है कि जोशी को राज्यसभा में भेज कर संतुष्ट किया जा सकता है।

पार्टी के दिग्गज नेताओं की हसरत से उन नेताओं पर भारी पड़ रही है जो काफी समय से चुनाव लड़ने के लिये जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे।यह  और बात है कि भाजपा आलाकमान से उन्हें पूरी उम्मीद है जो लगातार संकेत दे रहा है कि लोकसभा चुनाव में टिकट बांटते समय यूपी के युवाओं और जनाधार वाले उन नेताओं को तवज्जो दी जायेगी जो मठाधीशों के कारण फिलहाल हासिये पर हैं।आलाकमान को इस बात की भी चिंता सता रही है कि पार्टी के दिग्गज टिकट तो चाहते हैं लेकिन संगठन के लिये काम करने में कोई भी बड़ा नेता रूचि नहीं दिखा रहा है।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

1 COMMENT

  1. वैसे तो भाजपा में संगठन के विशेषज्ञों की कमी नहीं रहती.लेकिन चुनावी नतीजों के मामलेमे सब फेल दिखाई पड़ते हैं.ऐसा संगठन की बजाय जोड़तोड़ में अधिक व्यस्तता के कारण है या संगठन के पार्टी के फार्मूले बदले हालात में बेमानी हो गए हैं?कुछ सबक मायावती जी से लिया जा सकता है.उस महिला ने टिकट उन्हें दिया जो बहनजी की ठोस वोट बेंक और अपनी बिरादरी के भरोसे सीट निकलने की क्षमता रखता हो.सत्ता में आने के बाद जितनी भी ‘लाल बत्तियां’ थीं वो सभी किसी भी विधायक को नहीं दी गयी और केवल संगठन इ लगे लोगों को ही दी गयीं.ताकि विधायकी के बल पर लाल बत्ती के जरिये अपना कद बढ़ाने पर जोर न रहे. बल्कि संगठन के लोगों को लाल बत्तियां बाँटने से कार्यकर्ताओं में संगठन के कार्य में लगने का इंसेंटिव मिला.उन्हें लगा की अगर सही तरीके से संगठन का काम करेंगे तो सत्ता की मलाई खाने का मौका मिल सकता है.जबकि भाजपा में विधायक ही सारी मलाई खुद हजम करने में सफल हो जाते हैं.यदि इससे कुछ सबक लिया जाये तो नेताओं की संगठन के काम में जेनुयिन दिलचस्पी बन सकती है.

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