रोचक होगा चुनावी मुकाबला

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-अजीत कुमार सिंह

देश में निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव तारिखों की घोषणा होते ही सियासी पारा चढ़ने लगा है। राजनीतिक गलियारों में सर्दी के मौसम में भी गर्मी का अहसास हो रहा है। सभी राजनीतिक पार्टियां अपने हिसाब से मतदाताओं को अपने पाले में करने लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने शुरू कर दिये हैं। साथ ही चुनाव में जीत  हासिल करने के लिए सियासी गुणा-भाग भी तेजी से चल रहा है। चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कोई प्रोफेशनल राजनीतिक रणनीतिकार का सहारा लेने वाले हैं तो कोई अपने ब्रांड के सहारे । परंपरागत चुनाव से इतर इस बार का चुनाव कई मामले में अलग प्रतीत हो रहा है। माना जा रहा है कि यह चुनाव परिणाम कई राजनीतिक पार्टियों की दशा और दिशा भी तय कर सकती है। खासकर, भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, अकाली दल, आम आदमी पार्टी के लिए…। भाजपा के लिए यह चुनाव अग्नि परीक्षा के समान है। क्योंकि नोटबंदी के बाद पहली बार एक साथ पांच राज्यों में चुनाव होने जा रही है। सरकार बार-बार कह रही है कि नोटबंदी में जनता का अपार समर्थन मिला है, वहीं विपक्ष इसे कोरी बकवास बता रही है। विपक्ष की मानें तो नोटबंदी से जनता में काफी आक्रोश है।  चुनाव परिणाम ही बतायेगा कि नोटबंदी के बाद जनता सरकार के साथ खड़ी है या विरोध में…।

गौरतलब, है कि उत्तर-प्रदेश के साथ-साथ कुल पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा जारी हो चुकी है। लेकिन पूरे देश की नजर उत्तर-प्रदेश के चुनाव पर है और हो भी क्यो न! आखिर दिल्ली का रास्ता उत्तर-प्रदेश से होकर जो गुजरती है। इस चुनावी अखाड़े में समाजवादी पार्टी जहां अपने परिवारिक झगड़े में उलझी हुई है, वहीं बसपा के नेताओं का पार्टी से मोह भंग होता दिख रहा है, हाल के कुछ महीनों का अगर गौर करें तो बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य सहित कई नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। कांग्रेस में कोई सशक्त चेहरा फिलहाल नजर नहीं आ रहा है और भाजपा में नेताओं की भीड़ बढ़ती जा रही है, एक-एक सीट पर कई दावेदार देखी जा रही है। समाजवादी पार्टी में मचा घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है या फिर कहें कि पूरी स्टोरी ही असमंजस से भरा है। दूसरे दल के नेता जिस तरह एक-एक कर पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम रहे हैं, कहीं यह ‘ढ़ेर जोगी मठ उजाड़’ वाली कहावत चरितार्थ न हो जाय। कांग्रेस प्रोफेशनल चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के भरोसे बैठी हुई है। कई नेताओं के द्वारा पार्टी छोड़ दिये जाने के बाद भी बसपा के परंपरागत वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी होते नही दिख रही है।

उत्तर-प्रदेश का चुनाव इसलिए भी रहस्यमय बनता जा रहा है। क्योंकि मुस्लिम वर्ग, जो कि उत्तर-प्रदेश में एक बड़ा मतदाता वर्ग के रूप में माना जाता है,  अभी तक अपना पत्ता नहीं खोला है कि वे किधर जायेंगे। हांलाकि सपा में मचे परिवारिक घमासाने के बीच मायावती मुस्लिमों को अपने पाले में करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है। अगर टिकट वितरण पर गौर करें तो पता चलता है कि बहुजन समाज पार्टी(बसपा) ने  इस बार कई ब्राह्मणों का टिकट काट कर मुस्लिम उम्मीदवारों पर अपना भरोसा जतायी है। दूसरा बड़ा मतदाता वर्ग दलित है, जिसे बसपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है। जिसे तोड़ने के लिए भाजपा कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। क्योंकि भाजपा जानती है कि सर्वण समुदाय का ज्यादातर वोट भाजपा के पक्ष में है। अगर दलित को तोड़ने में कामयाब हो जाते हैं तो उत्तर-प्रदेश में भाजपा की राह आसान हो जायेगी। लोकसभा में भाजपा दलित पक्ष को अपने पाले में करने में कामयाब भी रही है। उसी का परिणाम था कि उत्तर-प्रदेश में भाजपा को अप्रत्याशित जीत मिली थी।

लोकसभा चुनाव में जहां समाजवादी पार्टी अपने परिवार तक ही सीमित रह गया है, वहीं कांग्रेस पार्टी मात्र दो सीट ही जीत पाई थी, जिसमें सोनिया गांधी और राहुल गांधी शामिल हैं। अगर बसपा की बात करें तो उसका खाता तक नहीं खुल पाया था। भाजपा व अपना दल ने सबसे चौंकाते हुए 80 में 73 सीटें हासिल कर इतिहास रच दिया। लोकसभा के चुनाव परिणाम के बाद ही भाजपा उत्तर-प्रदेश को लेकर काफी उत्साहित दिख रही है। हांलाकि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में काफी अंतर होता है। दोनों के मुद्दे अलग, चुनावी समीकरण अलग होते हैं। लोकसभा में जनता देश के मुड को देखते हुए वोट करती है जबकि विधानसभा में अपनी जाति, धर्म, रिश्तेदार आदि हावी होता है।

वहीं अगर हम उत्तराखंड की बात करें तो वहां कांग्रेस की सरकार है। जिस कारण सत्ता विरोधी लहर हावी हो सकती है। उत्तराखंड में कांग्रेस के लिए हरीश रावत के अलावा कोई भी खेवनहार दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में उत्तराखंड की राजनीति में कांग्रेस के पास हरीश रावत से बड़ा चेहरा नहीं है। क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित कई बड़े नेता कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो चुके हैं। हरीश रावत पर भी कुछ दिन पहले कथित रूप से भ्रष्टाचार लग चुके हैं । भाजपा उत्तराखंड में ताबड़तोड़ रैली कर जनता का नब्ज टटोल रही हैं। यहां तो सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होता दिख रहा है। और इस तरह के सीधे मुकाबले में भाजपा का पलड़ा पहले से भारी है। क्योंकि जहां-जहां इस तरह के मुकाबले हुए हैं वहां भाजपा ने जीत का परचम लहराया है। जिसका ताजा उदाहरण असम का चुनाव परिणाम है। हांलाकि खंडुरी के बाद भाजपा के पास कोई ऐसा साफ-सुथरा छवि वाला नेता नहीं है जिसको लेकर भाजपा जनता के बीच जा सके। हमें लगता है, भाजपा इस बार के चुनाव में भी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही वोट मांगने जा रही है।

अब देखना है कि पंजाब में भाजपा-अकाली गठबंधन सत्ता पर फिर से काबिज होती है या फिर कोई और…। हांलाकि आंकड़े मौजूदा सरकार के पक्ष में हैं। पहले की अपेक्षा कांग्रेस पंजाब में मजबूत दिख रही है। खासकर भाजपा के  स्टार नेता नवजोत सिंह सिद्धू को अपने पाले में करने के बाद…। लेकिन नवजोत की लोकप्रियता को कांग्रेस वोट में कितना  परिवर्तित कर पाती है यह तो समय बतायेगा। एक टी.वी. चैनल के हालिया चुनावी सर्वे में भाजपा-अकाली गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलते दिखा रही है। भाजपा के लिए शुभ संकेत है कि चंडीगढ़ निकाय चुनाव में शानदार जीत मिली है। मसलन,यह कहना जल्दबाजी होगा कि किस पार्टी की सरकार पंजाब में बनने जा रही है। इसके लिए आपको 11 मार्च तक इंतजार करना पड़ेगा।

गोवा में अभी भाजपा की सरकार है। लेकिन हाल ही में भाजपा की सहयोगी पार्टी महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ने भाजपा से अपना नाता तोड़ लिया है, जो भाजपा की चिंता बढ़ा सकती है। आम आदमी पार्टी, पंजाब की तरह यहां भी पूरी तरह से सक्रिय है। मौजूदा हालात में भाजपा गोवा मे सबसे मजबूत पार्टी है। वर्तमान स्थिति में कुल 40 सीटों में से भाजपा के पास 20, कांग्रेस के पास 9 एवं महाराष्ट्रवादी गोमांतवादी पार्टी सहित दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के पास है।

पूर्वोतर में पहली बार असम में सरकार बनाने के बाद भाजपा काफी उत्साहित है। यहां आपको बता दें कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही प्रधानमंत्री ने पूर्वोतर पर अपना फोकस कर दिया था। क्योंकि तमिलनाडु, पं. बंगाल, ओडिसा आदि के बाद पूर्वोतर ही ऐसा क्षेत्र है जहां भाजपा मुख्य भूमिका में नहीं है। भाजपा जानती है कि 2019 में अगर पुनः भाजपा की सरकार बनानी है तो इन राज्यों को अपने कब्जे में लेना जरूरी है। ताकि अगर उत्तर भारत में अगर कुछ सीटों का नुकसान हो तो उसकी भरपाई इन छोटे राज्यों से हो जाये। असम और अरूणाचल में भाजपा की सरकार बनने के बाद भाजपा की नजर मणिपुर में होनेवाले विधानसभा  चुनाव पर है। मणिपुर में फिलहाल कुल 60 सीटों में से 42 सीटों पर कांग्रेस , 07 सीटों पर तृणमुल कांग्रेस के पास, 05 सीट मणिपुर स्टेट कांग्रेस के पास और 06 सीटों पर क्षेत्रीय पार्टी के पास है। वर्तमान में मणिपुर की राजनीतिक हालात भी बदली है और भाजपा ने अपनी पकड़ भी बनायी है।

उल्लेखनीय है, यह चुनाव अन्य चुनाव की तरह नहीं, बल्कि बेहद खास है। क्योंकि चुनाव पर पूरे देश की नजर है। विशेषज्ञ बताते हैं कि यह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी बनाम अन्य सभी पार्टियों के बीच हो चुका है। लोकसभा चुनाव के बाद अधिकतर राज्यों के चुनाव में भाजपा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के नाम पर चुनाव लड़ी है, जिसमें कई राज्यों में जीत भी हासिल की। वर्तमान स्थिति में प्रधानमंत्री ही भाजपा का चेहरा है, जिनके नाम को भाजपा पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में भुनाऐगी।

गौरतलब है कि भाजपा अपने हिंदुत्ववादी नीति को त्याग कर विकास की नीति पर अग्रसर है। उत्तर-प्रदेश का चुनाव प्रधानमंत्री के लिए काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि इन पांच राज्यों के चुनाव परिणाम कहीं न कहीं 2019 के लोकसभा चुनाव को देखकर जोड़ा जा रहा है। बिहार में सत्ता गंवाने के बाद भाजपा अपना एक-एक कदम फूंक कर रख रही है। वहीं समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव ने पिता के विपरीत जाकर अपना एक अलग छवि बनाई है। बसपा अपने परंपरागत दलित वोट के साथ-साथ मुस्लिम वोटों को रिझाने में लगी हुई है। उतराखंड में सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच में है, पंजाब में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी मजबूती से लड़ती दिख रही है। मणिपुर और गोवा जैसे छोटे राज्यों में भाजपा के आने की आसार हैं। बहरहाल, इस चुनावी दंगल में कौन जीत हासिल करता है यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन इस बार का चुनाव काफी रोमांचक होने वाला है, इसमें कोई दो-राय नहीं है।

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