युवा पीढ़ी हो रही ब्रेन रॉट का शिकार

सुनील कुमार महला


आज का सूचना क्रांति और तकनीक का युग है। आज का युग इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स व्हाट्स एप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब, ट्विटर का युग है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि आज का युग घंटों-घंटों तक लगातार स्क्रीन को स्क्रॉल करने का युग है। आज हमारी युवा पीढ़ी इंस्टाग्राम, टिकटॉक या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर घंटों रील्स देखने में व्यस्त रहती है। आज की पीढ़ी सोशल कम, अनसोशल ज्यादा हो चुकी है। आज सोशल मीडिया पर जो अनाप-शनाप कंटेंट उपलब्ध है। अच्छा कंटेंट भी है तो घटिया, फेक और स्तरहीन कंटेंट की तो जैसे भरमार ही है। ‌आज भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सोशल मीडिया में घटिया कंटेंट का चलन लगातार बढ़ रहा है और एक बड़े वर्ग द्वारा इसे लगातार कंज्यूम किया जा रहा है। इस ख़तरनाक, उन्मादी, अनसोशल, फेक और स्तरहीन कंटेंट पर लगाम लगाई जाने की आज महत्ती आवश्यकता है, क्यों कि यह कंटेंट हमारी युवा पीढ़ी को जहां एक ओर ग़लत रास्ते की ओर अग्रसर कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हमारी युवा पीढ़ी लगातार इससे ‘ब्रेन रॉट’ की शिकार हो रही है ।

 कहना ग़लत नहीं होगा कि इससे(सोशल मीडिया की खतरनाक लत) हमारी युवा पीढ़ी के दिमाग सड़ रहे हैं। सोशल मीडिया के अंधाधुंध प्रयोग से युवाओं के स्वास्थ्य पर तो नकारात्मक प्रभाव पड़ ही रहा है, साथ ही साथ इससे उनकी बौद्धिक क्षमताओं पर भी व्यापक असर पड़ रहा है। आज की भाषा में इस समस्या को ‘ब्रेन रॉट’  के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इस शब्द को वर्ष 2024 का ‘वर्ड ऑफ द ईयर’ घोषित किया है। ‘ब्रेन रॉट’ के संदर्भ में रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2023 से वर्ष 2024 के बीच इस शब्द के इस्तेमाल में 230 प्रतिशत तक की अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। वास्तव में, ब्रेन रॉट ऐसी आदत है, जो हमें घंटों रील्स देखने से हो सकती है। यहां यह उल्लेखनीय है कि ब्रेन रॉट कोई नया शब्द नहीं है जो हाल ही में क्वाइन हुआ हो। यह बहुत पहले ही क्वाइन हो चुका है लेकिन प्रचलन में अब आया है। पाठकों को यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि ब्रेन रॉट का मतलब ये नहीं कि कोई भी व्यक्ति ज्यादा सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते हैं बल्कि इसका मतलब यह है कि कोई भी व्यक्ति बिना सोचे समझें ऐसा ऑनलाइन कंटेंट देख रहे हैं, जो कि उनके काम का नहीं है। जानकारी के लिए पाठकों को बताता चलूं कि इस शब्द यानी कि ब्रेन रॉट का पहली बार इस्तेमाल इंटरनेट के आने से बहुत पहले ही हो गया था। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1854 में हेनरी डेविड थोरो नामक लेखक ने अपनी पुस्तक वाल्डेन में इसके बारे में वर्णन किया था। सबसे पहले उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल ‘मानसिक और बौद्धिक प्रयास में सामान्य गिरावट'( ब्रेन रॉट)  के लिए किया।

 पाठकों को बताता चलूं कि थोरो समाज में दिखावे की आलोचना/कटाक्ष करते हुए लिखते हैं: ‘जब इंग्लैंड आलू के सड़ने की बीमारी का इलाज ढूंढ रहा है, तो क्या कोई दिमाग के सड़ने का इलाज ढूंढने की कोशिश करेगा? ये बीमारी तो कहीं ज्यादा फैली हुई और जानलेवा भी है।’ यहां यह भी उल्लेखनीय है कि यह शब्द सोशल मीडिया पर जेन जेड और जेन अल्फा समुदायों के बीच लोकप्रिय हुआ था लेकिन अब इसका इस्तेमाल मुख्य रूप से सोशल मीडिया पर पाई जाने वाली बेकार सामग्री और बिना मतलब के वीडियो या रील्स, अनसोशल कंटेंट आदि देखने की आदत के लिए किया जाता है। बहरहाल, यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील है कि आज हमारी युवा पीढ़ी की अनेक गूढ़ व गंभीर सामाजिक मुद्दों पर समझ लगातार घट रही है। एक बहुत ही जोरदार ह्वास आया है सामाजिक मुद्दों की समझ में। आज दिनभर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर स्क्रॉलिंग का मतलब यह है कि हैं हम धीरे-धीरे  (ब्रेन रॉट) का शिकार होते चले जा रहे हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के निरंतर प्रयोग से आज हमारे दिमाग सुस्त पड़ गये हैं और हमारे सोचने-समझने की क्षमताओं में लगातार ह्वास आया है।

 यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील है कि आज बच्चों को जब मोबाइल नहीं मिलता है तो वे खाना तक नहीं खाते हैं। माता पिता का कहना तक नहीं मानते हैं, बेफालतू में गुस्सा करते हैं। यहां तक कि अभिभावकों/माता- पिता द्वारा बच्चों को मोबाइल के बारे में टोका-टाकी करने पर बहुत बार वे अजीबोगरीब हरकतें तक करने लगते हैं। इतना ही नहीं कई बार तो वे हिंसक तक हो जाते हैं। मोबाइल पर निम्न स्तर के वीडियो/कंटेंट देखने से बच्चों के कोमल दिमाग पर इसका गहरा असर पड़ता है। वे मोबाइल पर हो रही काल्पनिक चीजों पर यकीन करने लगते हैं और वास्तविकता(वास्तविक जीवन) में भी उन्हें दोहराना चाहते हैं, यह वास्तव में बेहद ही खतरनाक है। हमें अपनी युवा पीढ़ी को ब्रेन रॉट से बचाना होगा।

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