गणतंत्र को गुमराह करते रोल मॉडल

agraआलोक सिंघई-

भारतीय गणतंत्र को दलीय पद्धति से चलाने में लाख बुराईयां हों पर एक अच्छाई भी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्यक्ष तानाशाही को इसमें कोई स्थान नहीं मिलता है। ये बात अलग है कि समाज में कई वर्ग विभिन्न आडंबरों के साथ शोषण और असामनता के प्रतीक बनते रहते हैं पर उनके फलने फूलने की गुंजाईश बहुत अधिक नहीं होती है। इसके बावजूद अब तक भारत जैसे विशाल गणतंत्र को सामूहिक सोच पर नहीं चलाया जा सका है। वजह वही दलीय पद्धति है जो एक पक्ष को ज्यादा वोट देकर विजय दिलाती है और दूसरे पक्ष को पराजय। देखा ये जा रहा है कि इस प्रक्रिया से सत्ता परिवर्तन तो होता है पर व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होता है। विचारधाराओं में बदलाव की तो पहल ही नहीं हो पाती है। यही वजह है कि संवाद की सबसे बड़ी जवाबदारी सत्ता वर्ग से ज्यादा मीडिया को निभानी पड़ रही है। पर क्या ये उचित है। मीडिया का काम केवल संवाद करना है। सत्ता तो निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को ही संभालनी होती है।

खासतौर पर गणतंत्र दिवस समारोह जैसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में ये विचारधाराएं कसौटी पर कसी जाती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बार फ्रांस के राष्ट्रपति और उसकी सैन्य टुकड़ी को समारोह में आमंत्रित करके वैश्विक आतंकवाद को कड़ा संदेश दिया है। उनकी सरकार बयानों से आगे बढ़कर अपने फैसलों से देश की दिशा तय करती नजर आ रही है। जबकि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विवादों को परे रखने के लिए केवल विकास का संदेश दिया। इससे विकास कार्यों को निर्विघ्न चलाने में सफलता भी मिली। उनकी कार्यशैली ने कार्यपालिका को काम करने की भरपूर आजादी भी दी। लेकिन कार्यपालिका ने उनकी सदाशयता को ग्यारह साल बाद भी नहीं समझा। प्रदेश की जनता ने लगातार तीन बार जिस विचारधारा को सत्ता सौंपी उसे लागू करने का आग्रह आमतौर पर जोर जबरदस्ती से किया जा सकता था, पर एक दशक बाद भी अफसरशाही उसे न समझकर बेलगाम घोड़े की तरह अपनी ही चाल चली जा रही है।

राजधानी के लाल परेड मैदान पर आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह में नारी शक्ति के रूप में जो प्रतीक प्रस्तुत किए वे मौजूदा सरकार की विचारधारा के वाहक तो थे ही नहीं बल्कि कई प्रतीक तो भाजपा की विचारधारा को बरसों तक कुचलने के लिए कुख्यात भी रहे हैं। विद्यार्थियों के एक कार्यक्रम में नारी शक्ति के प्रतीक के तौर पर महारानी लक्ष्मी बाई, सानिया मिर्जा, किरण बेदी, सोनिया गांधी और मदर टेरेसा के पोस्टर दिखाए गए। पहली बात तो ये कि राज्य सरकार के इस आयोजन में चुना गया नारी शक्ति का एक भी प्रतीक मध्यप्रदेश से नहीं था। साढ़े सात करोड़ आबादी वाले प्रदेश में ढेरों महिलाएं हैं जिनकी बहादुरी, साहस और बुद्धिमत्ता की मिसालें दी जाती हैं। पर अफसरों ने उन्हें देखने और उन्हें रोल माडल के रूप में प्रस्तुत करने का जतन नहीं किया। फिर आज देश की दिशा बदल चुकी है। पच्चीस साल पहले पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव की कांग्रेस सरकार ने देश को पूंजीवाद के मार्ग पर चलाने का फैसला लिया था। उसके बाद की तमाम सरकारों ने पूंजीवाद के मार्ग पर अपनी सहमति जताई, क्योंकि वैश्विक माहौल पूंजीवाद को लागू करने का ही था। जाहिर है कि इन हालात में साम्यवाद, समाजवाद, गांधीवाद, क्षेत्रीयवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद जैसी तमाम विचारधाराएं नेपथ्य में भेज दी जानी थीं। पर आज पच्चीस साल बाद भी देश विचारधारा के स्तर पर एकमत नहीं हो पाया है। बार बार पूंजीवाद को गरियाने की घटनाएं होती रहती हैं। खासतौर पर गरीबी हटाओ का झूठा नारा देने वाली कांग्रेस भ्रम फैलाने में सबसे आगे होती है। वैश्विक धाराओं से प्रभावित होकर उसके नेताओं ने पूंजीवाद को तो स्वीकारा पर नेहरू इंदिरा की चूं चूं का मुरब्बा वाली विचारधारा को वे खारिज नहीं कर पाए। इंदिरा गांधी ने सरकारीकरण की जो बयार चलाई समय के साथ उसके ढेरों दुष्परिणाम सामने आते गए पर परिवारवाद के जंजाल में जकड़ी कांग्रेस उन मुद्दों पर खुलकर बात करने तैयार नहीं है। जाहिर है कि कांग्रेस को अपने भाग्य विधाताओं से मुक्त करना तो कठिन कार्य था पर भाजपा को क्या हुआ। भाजपा के नेता भी उसी कांग्रेस की पूंछ पकड़कर चलने लगे।

जिस इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर मीसा बंदियों को जेलों में ठूंस दिया वही भाजपाई सत्ता में आने के बाद भी इंदिरा के जादू से मुक्त नहीं हो पाए। खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मीसा बंदी रहे हैं पर उनके ही राज्य में गणतंत्र दिवस समारोह पर अधिकारियों ने इंदिरा गांधी को नारी शक्ति की प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत कर डाला। वे समझने तैयार ही नहीं हैं कि उनका मुख्यमंत्री तानाशाही का समर्थक नहीं है।आपातकाल के विरोध में जो राज्य मीसा बंदियों के लिए पेंशन योजना चलाता हो और बार बार इंदिरा नेहरू की नीतियों की मुखालिफत करता हो उसके अधिकारी इंदिरा गांधी को नारी शक्ति का प्रतीक बताएं तो क्या ये विरोधाभास नहीं है। वक्त की रफ्तार देश के संसाधनों के प्रबंधन की बात करती है पर अधिकारी हैं कि जातिवाद, संप्रदायवाद,कोटा परमिट राज और भी न जाने कितनी बुराईयों की पोषक इंदिरागांधी को वे नारी शक्ति की प्रेरणा बता रहे हैं।

जिस स्व.विजयाराजे सिंधिया ने भाजपा को पालने पोसने में अपना अमूल्य बलिदान दिया हो उनकी ही भाजपा आज महारानी लक्ष्मी बाई को नारी शक्ति के प्रतीक के रूप में बताए तो इस विरोधाभास का क्या कहें। यदि रानी लक्ष्मी बाई राजनीतिक बुद्धि से चलतीं, सिंधिया राज और तात्याटोपे से तालमेल बिठातीं तो शायद उन्हें वीरगति को प्राप्त होने के बजाए बुंदेलखंड को मजबूत राज्य बनाने का अवसर मिल सकता था। रानी लक्ष्मी बाई बेशक हमारी विरासत की अमूल्य थाती हैं पर उन्हें आज के दौर की लड़कियों के लिए सफलता का रोल माडल तो नहीं माना जा सकता।

सानिया मिर्जा टेनिस की धड़कन हैं, विश्व स्तर पर भारत का नाम रोशन करने वाली हैं पर पाकिस्तानी से विवाह रचाने वाली सानिया मिर्जा मध्यप्रदेश की लड़कियों की रोल माडल कैसे बन सकती हैं। जो पाकिस्तान हमारे देश में आतंकवाद फैलाता हो, हमारे युवा जिस देश के षड़यंत्रों के कारण शहीद होते हों उस देश से सहानुभूति रखने वाली सानिया मिर्जा सरकारी समारोह में तो रोल माडल नहीं हो सकतीं। वे अच्छी खिलाड़ी हो सकती हैं, भारत पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंध बनाने की पहल करने वाली हो सकती हैं पर मध्यप्रदेश में कई लड़कियां रोल माडल के रूप में उभर रहीं हैं। गणतंत्र दिवस समारोह का आयोजन करने वाले अधिकारी यदि उन लड़कियों को न पहचान पाएं तो उन्हें बर्खास्त करके घर बिठा दिया जाना चाहिए। दुख की बात तो ये है कि भाजपा सरकार ने अफसरों की इस गलती को अब तक संज्ञान में भी नहीं लिया है।

किरण बेदी आईपीएस अफसर के रूप में बेशक कभी देश की महिलाओं के लिए रोल माडल के रूप में प्रस्तुत की गईं थीं।पर वो हालात अलग थे। देश में कांग्रेस की सरकार थी और उस सरकार की विचारधारा सामंतवादी शोषण लड़ने के लिए नियत की गई थी। महिलाओं में जाग्रति भरने में किरण बेदी को रोल माडल के रूप में प्रस्तुत किया गया पर आज मध्यप्रदेश में कई महिला पुलिस अधिकारी और आईपीएस अफसर हैं जो प्रदेश की लड़कियों की रोल माडल हो सकती हैं। कम से कम प्रदेश स्तर पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में तो उन्हें रोल माडल के रूप में प्रस्तुत किया ही जाना चाहिए था, पर मध्यप्रदेश के बौड़म अफसरों की निगाहें पुरानी किताबों से बाहर झांकने में सक्षम नहीं हैं।

मदर टेरेसा का योगदान निश्चित रूप से पीड़ित मानवता की सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय रहा है। विश्व स्तर पर उनके कामकाज को सराहा गया। पर उसकी वजह कई विदेशी मुल्क थे। समाजसेवा का स्थान समाज में उल्लेखनीय होता है पर सामाजिक बदलाव के लिए तो हमें स्थानीय समाजसेवियों को ही रोल माडल बनाना होगा। यदि माधुरी मिश्रा बुजुर्गों की सेवा में उल्लेखनीय योगदान दे रहीं हैं तो क्या हम उन्हें प्रदेश की नारी शक्ति के रोल माडल के रूप में नहीं उभार सकते।

दरअसल भाजपा की सरकार लगातार तीन बार सत्ता संभालने के बाद भी ये भरोसा नहीं बटोर पाई है कि प्रदेश की जनता को उस पर पूरा भरोसा है। तभी तो वह आज अपने एकात्म मानवता वाद के जनक पंडित दीनदयाल उपाध्याय को या अन्य लोगों को सामने रखने के बजाए अफसरों के भरोसे ही बैठी है। वे चाहें जिसे रोल माडल के रूप में प्रस्तुत करें, हम तो केवल सकारात्मक कार्य करते रहेंगे। जबकि सरकार को ये मालूम होना चाहिए कि यदि उसने अपनी विचारधारा के प्रतीकों को भुलाने की गलती की तो इतिहास उन्हें भी जल्दी ही भुला देगा।

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