“क्या निराकार ईश्वर की मूर्ति बन सकती है?”

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मनमोहन कुमार आर्य

ईश्वर की अनेक परिभाषाओं में से एक परिभाषा यह है कि जिसने इस समस्त जड़-चेतन जगत को बनाया है उसे ईश्वर कहते हैं। चेतन जगत से अभिप्राय प्राणियों की अनेक योनियां हैं जिनमें प्रत्येक शरीर में एक चेतन आत्मा विद्यमान है। ईश्वर एक अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, अमर व अनन्त चेतन सत्ता है। यह सच्चिदानन्द स्वरूप है। ईश्वर की तरह जीवात्मा और प्रकृति का अस्तित्व भी अनादि एवं अमर है। ईश्वर एक है तथाजीवात्माओं की संख्या मनुष्य की अल्पज्ञ जीवात्मा की दृष्टि से असंख्य या अनन्त है परन्तु ईश्वर के ज्ञान में जीवात्माओं की संख्या गण्य हैं। जब ईश्वर की चर्चा करते हैं तो यह प्रश्न भी उपस्थित होता है कि ईश्वर साकार है या निराकार।वेदों का आविर्भाव सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से हुआ है। वेद बताते हैं कि ईश्वर आकार से रहित निराकार है। वह निराकार होने के साथ सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी भी है। सर्वान्तर्यामी का अर्थ है कि वह जीवात्मा और प्रकृति के भीतर भी विद्यमान है। जब हम निराकार व साकार की बात करते हैं तो हमें ईश्वर के सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी स्वरूप पर भी विचार करना होता है। ईश्वर यदि सर्वातिसूक्ष्म न होता तो वह सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी नहीं हो सकता था। व्यापक होने के लिये उसका अन्य पदार्थों से सूक्ष्म होना आवश्यक है अन्यथा वह अपने से स्थूल किसी अन्य पदार्थ में व्यापक नहीं हो सकता। सर्वव्यापक के अतिरिक्त ईश्वर के बारे में यह भी कहा जाता है कि ईश्वर का एक रस है। रस का अर्थ है कि ईश्वर आनन्द से युक्त है। वह सर्वत्र एकरस है। सर्वव्यापक ईश्वर में सर्वत्र एक समान आनन्द व सुख का वास है। ऐसा ईश्वर क्या साकार हो सकता है? इसका बुद्धि संगत उत्तर है कि नहीं वह साकार नही निराकार ही हो सकता है।

 

ईश्वर साकार कदापि नहीं हो सकता क्योंकि वह चेतन पदार्थ है। साकार वस्तु का जड़ होना आवश्यक है। एकदेशी जड़ पदार्थ, जिन्हें पंचतत्व भी कहा जाता है, वह सूक्ष्म प्रकृति से निर्मित परमाणुओं व अणुओं में परिणत होकर घनीभूत होकर साकार रूप ग्रहण करते हैं। जड़ पदार्थ का अर्थ है कि जो चेतन व संवेदनशील न हो। चेतन में ज्ञान व कर्म दोनों का सामर्थ्य होता है। ईश्वर सर्वव्यापक और चेतन होने से सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वहीं जीवात्मा एकदेशी, सूक्ष्म व ससीम होने से अल्पज्ञ व अल्पशक्तिमान है। निराकार सत्ता व्यापक व एकदेशी दोनों होती है परन्तु जड़ वस्तु एकदेशी ही रहती है। वह सर्वव्यापक अर्थात् हर स्थान पर उपस्थित नही हो सकती। मनुष्य व अन्य प्राणी साकार प्राणी हैं। इनकी आत्मा का आकार तो दिखाई नहीं देता परन्तु जो दिखता है वह प्राणी का जड़ शरीर होता है। अब यदि ईश्वर का आकार बनाया जाये तो उसके वास्तविक आकार का वर्णन व उल्लेख न तो वेदों में है और न ही किसी वैदिक ग्रन्थ में है। अतः ईश्वर की साकार मूर्ति बनाना असम्भव है। जो मूर्तियां बनाई जाती हैं उसे राम व कृष्ण आदि ऐतिहासिक महापुरुषों के नाम से बनाया जाता है। यह महापुरुष ऐतिहासिक हैं और इतने प्राचीन हैं कि इनका कोई चित्र व शरीर के आकार-प्रकार का उल्लेख किसी को विदित नहीं है। अतः इनकी मूर्ति का निर्माण करना सम्भव नहीं है। अनुमान से यदि बना भी दें और वह आकृति में कुछ अनुकूल हो भी जाये परन्तु उसमें उस महापुरुष के गुण, कर्म व स्वभाव तो कदापि नहीं आ सकते। कोई मनुष्य कितना विद्वान हो जाये, वह कदापि किसी जड़ शरीर व मूर्ति में प्राणों व आत्मा की प्रतिष्ठि नहीं कर सकता। प्राण प्रतिष्ठा का अर्थ है कि उस मूर्ति व शरीर में प्राण व आत्मा विद्यमान है परन्तु मूर्मि चेतन नहीं होती वह जड़ ही रहती है। इसका अर्थ होता है कि मूर्ति में प्राण व आत्मा नहीं हैं। इस विशाल सृष्टि के बनने से पहले ईश्वर निराकार व सर्वव्यापक था, सृष्टि के बनने के बाद भी वह वैसा ही रहा और प्रलय अवस्था होने के बाद भी वह वैसा ही रहेगा। ईश्वर के विषय में विश्लेषण करने पर एक तथ्य यह भी प्रकाश में आता है कि ईश्वर में कभी किसी प्रकार का कोई विकार नहीं होता। यदि ईश्वर में विकार होता तो सृष्टि के आरम्भ व उससे पूर्व का ईश्वर और आज का ईश्वर अलग-अलग होते। आज भी ईश्वर व इसके गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप वही है जो सृष्टि बनाते समय व उससे पूर्व थे और आगे अनन्त काल तक भी वह वैसे के वैसे ही रहेंगे।

 

हम राम व कृष्ण को भगवान कहते हैं। भगवान का अर्थ श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव तथा सभी प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त मनुष्य व महापुरुषों को कहते हैं। हमारे पूर्वज व महापुरुष, श्री राम व श्री कृष्ण, ऐश्वर्यवान होने से भगवान थे परन्तु वह सृष्टि की रचना करने व इसका पालन करने वाले ईश्वर नहीं थे। वेदों के किसी मन्त्र में रामचन्द्र जी व श्री कृष्णचन्द्र जी की उपासना व स्तुति का उल्लेख नहीं मिलता। ईश्वर के विशेषणों में अग्ने, इन्द्र, वरूण, वायु, हिरण्यगर्भ व मित्र आदि नाम आते हैं। ईश्वर के सहस्रों व अनन्त नामों में उसका नाम राम व कृष्ण आदि किसी भी वेद आदि में उल्लिखित नहीं है। अतः राम व कृष्ण जी को ईश्वर नहीं अपितु महानतम महापुरुष कहा जा सकता है। ईश्वर तो वही है जिसने इस समस्त सृष्टि को बनाकर धारण किया है व इसका पालन कर रहा है। अतः आकार रहित वा निराकार ईश्वर की मूर्ति नहीं बन सकती। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि हमने किसी भी नाम से कोई मूर्ति बना ली और उसे ईश्वर का नाम दे भी दिया तो भी वह जड़ पदार्थ से बनने के कारण जड़ ही रहती है। ईश्वर अकाय अर्थात् शरीर रहित है। यजुर्वेद में ईश्वर को शरीर, नस, नाड़ी के बन्धनों से रहित बताया गया है। अतः कोई भी साकार प्रतिमा प्रतिमा तो हो सकती है परन्तु वह ईश्वर का प्रतीक व स्थानापन्न कदापि नहीं हो सकती। ऐसी कल्पना करना वेद व ज्ञान-विज्ञान के विपरीत है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में अनुसंधानपूर्वक लिखा है कि भारत में मूर्तिपूजा का आरम्भ जैन मत के अनुयायियों से हुआ है। जैन मत से ही यह वैदिक मत मे प्रविष्ट हुई है जिसका कारण दोनों ही स्थानों पर अज्ञानता रहा है।

 

महर्षि दयानन्द जी वेदों के ऐसे उच्च कोटि के विद्वान थे जिनके समान वेदों का विद्वान महाभारतकाल के बाद अन्य कोई नहीं हुआ। इसका प्रमाण उनके लिखे सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों सहित उनका किया यजुर्वेद एवं ऋग्वेद (आंशिक) भाष्य है। ईश्वर के साकार व निराकार स्वरूप और मूर्तिपूजा के वेदविरुद्ध होने पर ऋषि दयानन्द ने काशी के शीर्ष पण्डितों से नवम्बर, सन् 1869 में शास्त्रार्थ किया था। ऋषि दयानन्द का पक्ष ही इस शास्त्रार्थ में वेदसम्मत सिद्ध हुआ था। हमारे पौराणिक विद्वान मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में वेदों का कोई प्रमाण नहीं दे सके थे। तर्क व युक्ति से भी ईश्वर की मूर्ति का निर्माण व उसकी पूजा सिद्ध नहीं होती। मनुष्य के जीवन की उन्नति ईश्वर को निराकार मानकर वेदों के मन्त्रों को अर्थ सहित बोलकर, गाकर व उसके यथार्थ अर्थों का उसके अनुरूप आचरण करके ही हो सकती है। भगवान राम व भगवान कृष्ण भी अपने जीवनकाल में ईश्वर व किसी अन्य देवता की मूर्ति बनाकर पूजा न करके अपने गुरुओं की तरह से प्रातः व सन्ध्या वेला में ईश्वर के गुणों का ध्यान करते थे और वायु शुद्धि के लिये अग्निहोत्र यज्ञ भी करते थे। हमें यदि उन्नति करनी है तो वेदाध्ययन कर ईश्वर के सच्चिदानन्द, निराकर, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक स्वरूप की उपासना ही करनी होगी। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर कोई भी मनुष्य अपनी सभी शंकाओं का समाधान कर सकता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

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