हर एक पल कल-कल किए, भूमा प्रवाहित हो रहा; सुर छन्द में वह खो रहा, आनन्द अनुपम दे रहा । सृष्टि सु-योगित संस्कृत, सुरभित सुमंगल संचरित; वर साम्य सौरभ संतुलित, हो प्रफुल्लित धावत चकित । आभास उर अणु पा रहा, कोमल पपीहा गा रहा; हर धेनु प्रणवित हो रही, हर रेणु पुलकित कर रही । सीमा समय की ना रही, मीमांसा भास्वर रही; युग निकलते क्षण बिखरते, हैं पात्र मधुरम विचरते । हर देश शाश्वत हो रहा, रुन- झुन सुने झंकृत रहा; 'मधु' मानसी गति तज रहा, लय ले प्रमित थिरकित रहा । गोपाल बघेल 'मधु'