वैदिक ग्रन्थों में चिकित्सा शास्त्र

0
590

अशोक “प्रवृद्ध”

 

वैदिक मान्यतानुसार सृष्टि का उषाकाल वेद का आविर्भाव काल माना जाता है। भारतीय परम्परा के अनुसार वेदों को सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत माना जाता है। मनुस्मृति में मनु महाराज ने घोषणा की है-

यद्भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति।

– मनुस्मृति 12.97

अर्थात- जो कुछ ज्ञान-विज्ञान इस धरा पर अभिव्यक्त हो चुका है और हो रहा है और भविष्य में होगा, वह सब वेद से ही प्रसूत होता है।

 

treatmentप्राचीनकाल से ही वेद के रहस्यों को प्रकट करने के लिये ब्राह्मण-ग्रन्थों, वेदाङ्गों तथा उपाङ्गों के रूप में मानवीय  प्रयास होता रहा है। वेद ज्ञानरूप हैं, दूसरे शब्दों में वेद चिंतन-मनन व अनुभव का विषय हैं, जिसे केवल शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। प्राचीन ऋषियों की निश्चित धारणा थी –

वेदाः स्थानानि विद्यानाम् । -याज्ञवल्क्यस्मृति, आचाराध्याय-3

अर्थात- वेद विद्याओं के स्थान हैं।

मनुस्मृति में कहा है-

सर्वज्ञानमयो हि सः । – मनुस्मृति 2.7

अर्थात वेद सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार हैं।

यद्यपि शब्दरूप वेद की सीमा नियत है, तथापि अर्थ की इयत्ता का निर्धारण नहीं हो सकता। ऋषियों का स्पष्ट अभिमत रहा है-

अनन्ता वै वेदाः । -तैतिरीय ब्राह्मण 3.10.11.3

अर्थात- वेद (ज्ञान) अनन्त है।

वेद के प्रति संसार का ध्यान आकर्षित कराने वाले मनस्वी महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के प्रथम नियम में परमेश्वर को सब सत्य विद्याओं का आदिमूल तथा तृतीय नियम में वेद को सब सत्यविद्याओं का पुस्तक बताकर भारतीय परम्परा द्वारा स्वीकृत सत्य का मात्र उद्घोष किया है। वेद ईश्वरीय रचना है और उसको किसी सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता तथा इसमें चिकित्सा शास्त्र के अद्भुत ज्ञान भरे पड़े हैं । यद्यपि वेद में चिकित्साशास्त्र से सम्बन्धित प्रचुर सामग्री उपलब्ध है, तथापि यह ज्ञान प्रयोगात्मक रूप में नहीं हैं। सम्बन्धित शास्त्र के ज्ञान का प्रयोगात्मक स्वरूप स्पष्ट करने के लिये ऋषियों ने वेदों के उपवेद निर्मित किये थे। दुसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यदि वेद संकल्पना है तो उपवेद उसका प्रयोगात्मक स्वरूप है। उपवेदों में भी चिकित्सा शास्त्र के ज्ञान का अथाह भण्डार है।

 

वैदिक ग्रन्थों में प्रदूषणरहित आहार-विहार को स्वास्थ्य के लिए श्रेयस्कर माना गया है। वेद ने न केवल जीवे॑म श॒रदः श॒तम् (यजुर्वेद 36.24, अथर्ववेद 19.68.2) का ही उद्घोष किया है, अपितु वह भूयसीः श॒रदः श॒तम् ( अथर्ववेद 19.68.8) सौ वर्ष से अधिक जीवित रहने की भी प्रेरणा देता है। परन्तु स्वस्थ और निरोग होकर जीना ही वास्तव में जीवन है। वेद की दृष्टि में यह तभी सम्भव है कि जब व्यक्ति का जीवन सभी प्रकार के प्रदूषणों से मुक्त हो। आज जब प्रदूषण से पत्थरों की चमक गायब होने लगी है, तब मानव तथा इस ग्रह के अन्य प्राणियों पर प्रदूषण का कैसा प्रभाव होता होगा, इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है। अतः वेद प्रदूषणरहित आहार-विहार को दीर्घजीवन का साधन बताते हुए कहता है-

यद् अश्नासि यत् पिबसि धान्यं कृष्याः पयः।

यद् आद्यं यद् अनाद्यं सर्वं ते अन्नम् अविषं कृणोमि।।

– अथर्ववेद 8.2.19

आयुष्यगण में पठित इस मन्त्र के द्वारा वेद ने भोजन की समस्त सामग्री को विषदोष से रहित रखने के लिये कहा है। जो भी हम अन्न, दूध, जल, पल, वस्त्र, स्थान आदि सामग्री का उपयोग करते हैं, वह सभी प्रकार के विषों से रहित होनी चाहिये। वेद का उपर्युक्त कथन जितना वर्त्तमान युग में प्रासङ्गिक है, उतना सम्भवतः प्राचीनकाल में भी नहीं रहा होगा। आज अन्न से लेकर जल तक सभी कुछ यूरिया,फास्फोरस, सल्फेट आदि रसायनिक खाद व कीटनाशकों के प्रयोग से इतना अधिक दूषित हो गया है कि उसको खायें तब भी हानि है और न खायें तो भी जीवन की स्थिति सम्भव नहीं है। इसी प्रकार वस्त्रादि पहिने जाने वाली सामग्री जिस साबुन से प्रक्षालित की जाती है, चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से वह अनुचित है। वह नाना प्रकार के चर्म रोगों को उत्पन्न करने के लिये पर्याप्त है। इसी प्रकार निवास स्थान भी वायु एवं ध्वनि प्रदूषण के कारण रहने के योग्य नहीं रह गये हैं। अतः वेद दीर्घायुष्य के लिये जीवन की मूलभूत सामग्री को सर्वप्रथम निर्विष करने पर बल देता है।

जीवन आदर्शों पर नहीं जीया जा सकता और न हर समय विषों को जानने और उनसे संक्रमित होने से बचने के साधन उपलब्ध होते है। ऐसे में उनसे आक्रान्त हो जाना स्वाभाविक है। इस कारण मनुष्य का रोगग्रस्त होना कोई विलक्षण घटना नहीं है। भारतीय पद्धति में रोगी की चिकित्सा करते समय सर्वप्रथम उसकी प्रकृति का जानना आवश्यक होता है। वेद कहता है-

शतधारं वायुम् अर्कं स्वर्विदं नृचक्षसस् ते अभि चक्षते रयिम् ।

ये पृनन्ति प्र च यछन्ति सर्वदा ते दुह्रते दक्षिणां सप्तमातरम् ।।

– अथर्ववेद 18.4.29

 

उपर्युक्त मन्त्र में वायु, अर्क, रयि (सोम) इन तीन तत्त्वों का वर्णन किया गया है। शतपथ ब्राह्मण 10.6.2.5 के वचन अग्निर्वा अर्कः के अनुसार अर्क अग्नि का पर्याय है। और चरक कहता है कि शरीर में अग्नि पित्तरूप है।

अग्निरेव शरीरे पित्तान्तर्गतः कुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति।

चरक-संहिता, सूत्रस्थान-12.11

इसी प्रकार चरक सोम के विषय में कहते हैं कि यह शरीर में श्लेष्मरूप है।

शरीरे श्लेष्मान्तर्गतः कुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति।

– चरकसंहिता, सूत्रस्थान-12.12

और इसी श्लेष्म को आयुर्वेद में कफ कहा गया है। इस प्रकार उक्त मन्त्र में वात (वायु), पित्त (अर्क) और कफ  (रयिठश्लेष्म) का क्रमशः उल्लेख किया गया है। उक्त मन्त्र की व्याख्या करते हुए सुश्रुत कहता है-

विसर्गादानविक्षेपैः सोमर्स्यानिला यथा।

धारयन्ति जगद्देहं कपपित्तानिला तथा।।

– सुश्रुत-संहिता, सूत्रस्थान-21.8

 

जिस प्रकार सोम (चन्द्रमा) विसर्ग से, सूर्य आदान से और वायु विक्षेप से जगत् को धारण करते हैं, उसी प्रकार कफ  विसर्ग से, पित्त आदान से और वायु विक्षेप से शरीर को धारण करते हैं। उपर्युक्त मन्त्र अथर्ववेद 18.4.29 में वायु को शतधारम् अर्थात् असङ्ख्य़ धाराओं वाला बताया है। यह कथन आयुर्वेद की दृष्टि से सर्वथा उचित है, क्योंकि जितने वातजनित रोग उतने कफ अथवा पित्तजनित रोग नहीं है। वातप्रकृति के रोगों को जितना ठीक करना कठिन है, उतना अन्य प्रकृतिवालों के रोगों को नहीं। इस आधार पर वायु को शतधार कहना सर्वथा उचित प्रतीत होता है।वेद में शरीर की नस-नाडियों का भी उल्लेख देखने को मिलता है। वेद कहता है-

एतास् ते असौ धेनवः कामदुघा भवन्तु ।

एनीः श्येनीः सरूपा विरूपास् तिलवत्सा उप तिष्ठन्तु त्वात्र ।।

-अथर्ववेद 18.4.33

 

यहाँ उपर्युक्त मन्त्र में धेनु पद से नाडियों का उल्लेख किया गया है। चिकित्साशास्त्र के निघण्टु के अनुसार धेनु और धमनी दोनों पद पर्यायवाची हैं। आज भी लोक में नाडी अर्थ में धमनी पद का प्रयोग होते देखा जाता है। वेद के मतानुसार एनी, श्येनी, सरूपा, विरूपा-ये चार प्रकार की नाडियाँ मानी गयी हैं। जिन नाडियों में अरुण वर्ण का रक्त प्रवाहित होता है, वे नाडियाँ एनी, जिनमें श्वेतवर्ण का रक्त प्रवाहित होता है, श्येनी, जिनमें रक्तवर्ण का रक्त प्रवाहित होता है, वे सरूपा और जिनमें नील या हरित वर्ण का रक्त प्रवाहित होता है, वे विरूपा कहलाती हैं। इनमें से एनी, श्येनी और विरूपा त्रमशः वात, कफ और पित्त से प्रभावित मानी जाती हैं। अथर्ववेद का एक अन्य मन्त्र अथर्ववेद 10.2.11 कफवाहिनी नाडियों को तीव्रा, वातवाहिनी नाडियों को अरुणा, रक्तवाहिनी नाडियों को लोहिनी तथा नीलवर्ण के रक्त को प्रवाहित करने वाली नाडियों को ताम्रधूमा कहता है। इनके अतिरिक्त अन्य बहुत सारी छोटी-छोटी नाडियाँ होती हैं, जिनको वेद अथर्ववेद 18.4.33 में  तिलवत्सा कहा है।

सुश्रुत के शरीरस्थान में इन चार प्रकार की शिराओं का ऐसा ही वर्णन मिलता है-

तत्रारुणा वातवहाः पूर्यन्ते वायुना सिराः।

पित्तादुष्णाश्च नीलाश्च शीता गौर्यः स्थिराः कपात्।

असृग्वहास्तु रोहिण्यः सिरा नात्युष्णशीतलाः।।

– सुश्रुत-संहिता, शरीरस्थान 7.18

उक्त चार प्रकार की शिराओं में से वात से भरी हुई नाडियाँ अरुण (कालापन लिये लाल) वर्ण की, पित्त से युक्त शिरायें नीली और उष्ण होती हैं, कप युक्त शिरायें शीतल, स्थिर एवं श्वेतवर्ण की होती हैं। रक्त को वहन करने वाली शिरायें रोहिणी (गहरे लाल रंग की) वर्ण की होती हैं तथा ये न अधिक उष्ण और न अधिक शीतल होती हैं।

 

 

 

Previous articleतस्मै श्री गुरवे नम:
Next articleबंद समाज की जटिलता
अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress