बंद समाज की जटिलता

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पिछले सप्ताह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व था। कई लोग इस दिन निर्जल उपवास रखते हैं और रात को बारह बजे श्रीकृष्ण जन्म के बाद ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। विद्यालयों में छुट्टी रहती है। छोटे बच्चों को इस दिन बालकृष्ण और राधा के रूप में सजाया जाता है। कई जगह बच्चे झांकी भी बनाते हैं। बड़े-बड़े मंदिरों में तो लाखों रु. खर्च कर झांकियां बनायी जाती हैं; पर मुझे असली मजा बच्चों द्वारा बनायी झांकियां देखने में ही आता है। इसलिए अपने गली-मोहल्ले के साथ ही मैं आसपास भी चला जाता हूं।

krishnaहमारे मोहल्ले में भी बच्चे हर साल झांकी बनाते हैं। कई दिन पहले से उनका विचार-विमर्श शुरू हो जाता है। झांकी कहां और कैसी बनेगी; क्या-क्या सामान लगेगा; कितना खर्च होगा; बाजार से क्या सामान लाना पड़ेगा.. आदि ? बच्चों का दिमाग इस काम में खूब चलता है। उनके भीतर छिपी प्रतिभा इन झांकियों में प्रकट होती है। कुछ संस्थाएं बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए झांकियों को पुरस्कार भी देती हैं।

हर साल की तरह इस बार भी मैं रात को बच्चों की बनायी झांकियां देखने गया। हर जगह बच्चों ने उत्साह से स्वागत किया। तिलक लगाकर प्रसाद दिया। मैंने भी उन्हें कुछ भेंट दी। कहीं श्रीकृष्ण सुदामा की झांकी बनी थी, तो कहीं श्रीकृष्ण और राधा की। अधिकांश स्थानों पर छोटी-बड़ी मूर्तियों को ही तरह-तरह से सजाया गया था। श्रीकृष्ण द्वारा कालिया नाग का मर्दन, वसुदेव द्वारा बालकृष्ण को उफनती यमुना में से गोकुल ले जाना, जेल में श्रीकृष्ण का जन्म, श्रीकृष्ण द्वारा गोचारण.. आदि को देखकर बहुत आनंद आ रहा था। एक जगह तो बच्चों ने एक गुफा बनायी थी, उसमें से होकर ही झांकी वाले पंडाल में जाना पड़ता था। दो घंटे का यह भ्रमण काफी आनंददायी रहा।

पर एक जगह झांकी में कुछ अधूरापन दिखायी दिया। वहां दो छोटी कुर्सियां थी। एक पर एक छोटी बच्ची राधा बनी बैठी थी; पर दूसरी कुर्सी खाली थी। मुझे लगा कि श्रीकृष्ण बना बच्चा कुछ खाने-पीने अंदर गया होगा। मैंने हंसी में वहां खड़े एक बच्चे से पूछा, ‘‘क्यों तुम्हारे श्रीकृष्ण जी तुम्हें छोडकर कहां चले गये ?’’

बच्चे ने बड़ी हताशा से कहा, ‘‘उसे रहमान अंकल ले गये।’’

– रहमान अंकल.. ?

– हां। उन्होंने कहा, हम मुसलमान हैं। हमारा बेटा कृष्ण नहीं बनेगा।

अधिक चर्चा न करते हुए मैं आगे चल दिया; लेकिन मेरे एक मित्र शर्मा जी उधर ही रहते हैं। अगले दिन मैंने उनसे पूछा, तो जो बात पता लगी, उसे सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ।

उस गली के बच्चों ने राधा और कृष्ण की झांकी बनायी थी। राधा के लिए एक चार वर्षीय बालिका सोनिया को लिया गया, तो कृष्ण के लिए तीन वर्षीय सलीम को। इस मोहल्ले में अधिकांश सरकारी कर्मचारी रहते हैं। सलीम के पिता श्री अब्दुल रहमान पिछले साल ही मेरठ से स्थानांतरित होकर यहां आये थे। उन्होंने वहां दो कमरे वाला एक मकान किराये पर लिया था। वे स्वयं भी शिक्षित हैं और उनकी पत्नी भी। उनके दो बच्चे हैं। तीन वर्ष का सलीम और पांच वर्ष की रेहाना। कुछ ही दिन में दोनों बच्चे मोहल्ले में घुलमिल गये। रहमान जी की पत्नी भी पड़ोस के घरों में आने-जाने लगी।

इस बार जन्माष्टमी की झांकी में बच्चों ने सलीम को बालकृष्ण बनाने का निर्णय लिया। बच्चा बहुत सुंदर और गोलमटोल था। मोहल्ले के बच्चों के पास बालकृष्ण को सजाने के लिए सभी सामग्री तो थी ही। रेहाना भी वहां थी। उसने घर जाकर मां को बताया कि सब लोग सलीम को बालकृष्ण बना रहे हैं। एक बार तो उसकी मां चैंकी। उसे कुछ संकोच भी हुआ; पर फिर उसने बच्चों के उत्साह को भंग करना उचित नहीं समझा।

इस प्रकार सलीम बालकृष्ण बन गया। पीले कपड़े, सिर पर मुकुट और मोरपंख, हाथ में मुरली, पैरों में पाजेब। राधा और उसकी जोड़ी बहुत सुंदर लग रही थी। एक बच्चे ने मोबाइल से उनका फोटो खींच कर तुरंत ही फेसबुक पर डाल दिया।

कार्यालय में छुट्टी होने के कारण रहमान जी उस दिन कहीं बाहर गये थे। रात को आठ बजे वे घर आये। दोनों बच्चों को न देखकर उन्होंने पूछा, तो पत्नी ने झांकी और सलीम के बालकृष्ण बनने की बात कही। यह सुनते ही वे आग बबूला हो गये। पहले तो उन्होंने पत्नी को खूब डांटा और फिर झांकी वाले स्थान पर आकर सलीम को उठाकर घर ले गये।
बस, बच्चे इसी से उदास और हताश थे।

कुछ दिन बाद मैं किसी काम से शर्मा जी के घर गया, तो वहां रहमान जी को बैठा देख मैंने जन्माष्टमी वाला प्रसंग छेड़ दिया।

– रहमान जी, आपने सलीम को झांकी से क्यों उठा लिया ?

– हम मुसलमान हैं। हमारा बच्चा कृष्ण नहीं बन सकता।

– लेकिन फिल्म और नाटकों में तो सलमान, आमिर, शाहरुख खान आदि मुसलमान अभिनेता हिन्दू देवी-देवताओं या पात्रों का अभिनय करते हैं। इससे वे हिन्दू तो नहीं हो जाते ?

– वे बड़े लोग हैं। उन पर हाथ डालने में मुल्ला-मौलवी भी डरते हैं; पर हम तो छोटे लोग हैं। अगर सलीम के कृष्ण बनने की बात बिरादरी में फैल जाती, तो हमारा जीना कठिन हो जाता।

– लेकिन ये तो बच्चों द्वारा बनायी गयी झांकी थी। आपने सलीम को वहां से उठाकर बच्चों का दिल तोड़ दिया।

– आपकी बात ठीक है; पर हम एक बंद समाज में रहते हैं। कई जगह ईद वाले दिन हिन्दू भाई शर्बत की छबीलें लगाते हैं। उन्हें कोई कुछ नहीं कहता; पर कांवडि़यों का स्वागत करने पर मस्जिद में हमारे नेता हमें काफिर कहकर गरियाते हैं।

– पर इस कुरीति को दूर करने की आपकी इच्छा नहीं होती ?

– होती तो है; पर हिम्मत नहीं होती। जिस समाज में हम रह रहे हैं, उससे लड़ नहीं सकते। हमें यहीं जीना और मरना है। दूसरों से लड़ना आसान है, अपनों से नहीं।

उनके जाने के बाद मैंने सोचा कि काश, मुस्लिम नेता अंतरमुखी होकर अपनी शक्ति अपने समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य और जागरूकता की वृद्धि में लगाएं, तो उनका भी भला होगा और देश का भी।

पर यक्ष प्रश्न यह है कि क्या कभी ऐसा होगा ?

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