सौ वर्षों की बातें सोचें,
तब तो व्यर्थ आज की बारिश।
आज धरा का रूप अलग है,
कल सूरज सब जल हर लेगा।
मिट्टी तो कल सूख जाएगी,
मेघ आज का क्या कर लेगा।
ये किसलय जो नव रंगों के,
कल को पीले हो जाएंगे।
अगले वर्ष तक ये घन गर्जन,
हर स्मृति से खो जाएंगे।
नव मेघों का जिक्र रहेगा,
सब जोहेंगे उनकी राहें ।
उनके लिए गाएंगे पंछी,
फैलेंगी धरती की बाहें।
तो क्या सच में कर्म मेघ का,
व्यर्थ कर्म है ये जल धारा?
ये मिट्टी की मीठी खुशबू,
ये मयुरों का नृत्य प्यारा?
अगर मेघ ये कर्म न करते,
अकर्मण्यता में समय गंवाते।
आज मिटे हैं बरस-बरस के,
बिन बरसे ही वे मिट जाते।
मिटना सबको है इस जग में,
बरस मिटे, बिन बरस मिटे।
क्यों रूखा, कड़वे सा जाए,
सौरभ, सजल, सरस मिटे।
डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’