महाकाल लोक : आस्था और आध्यात्म का नवीन प्रकल्प

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मनोज कुमार
महाकाल को साक्षी बनाकर, उनके समक्ष नतमस्तक होकर सरकार जब खड़ी होती है तो महाकाल का आशीष बरसने लगता है. राज्य के विकास के विकास के रास्ते खुद ब खुद खुलने लगते हैं. महाकाल लोक भी महाकाल के आशीष से आरंभ हो रहा है. बोलचाल में जब हम एक और एक ग्यारह बोलते हैं तो यह गणित का एक अंक होता है लेकिन जब इसी एक और एक होते ग्यारह तारीख को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महाकाल लोक के कपाट खोलने का उपक्रम करेंगे तो एक और एक मिलकर इस ग्यारह को सच करेंगे. राज्य और केन्द्र के इस संयुक्त प्रयासों से दुनिया का सबसे आधुनिकतम धर्म, आध्यात्म और आस्था का महाकाल लोक विहंगम स्वरूप में खड़ा होगा. वैश्विक बैरामीटर में दुनिया के आठ अजूबे गिने गए हैं और सच में वे अजूबे ही हैं क्योंकि वे व्यक्तिगत निष्ठा के प्रतीक चिन्ह हैं। लेकिन महाकाल लोक अजूबा नहीं है क्योंकि यह लोक मंगल का वह शिवालय है, देवालय है जो सबका कल्याण चाहता है. यह पावन नगरी उज्जैन की थाती है जिसके बारे में कहा जाता है कि संसार की रचना उस दिन हुई जिस दिन उज्जैन ने आकार ग्रहण किया था. इसे हम हिन्दू पंचाग के रूप प्रतिपदा से मानते हैं.
आस्था और आध्यात्म की नगरी उज्जैन में बिराजे महाकाल अनादिकाल से भारतीय समाज के लिए लोक मंगल के प्रतीक हैं. महाकाल का दरबार अर्थात मोक्ष का द्वार. समय के साथ-साथ महाकाल के प्रति आमजन की आस्था और बढ़ती गई क्योंकि लोभ, लालच और स्वार्थ ने मनुष्य की सोच को छोटा कर दिया था और ऐसे में महाकाल की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता इस कलयुग में शेष नहीं बचा. इहलोक से परलोक का रास्ता महाकाल की शरण से होकर ही जाता है. इहलोक से समाज परिचित है लेकिन परलोक अमूर्त है और महाकाल लोक एक मूर्त स्वरूप ले रहा है. महाकाल लोक की अवधारणा निश्चित रूप से एक व्यापक सोच और पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि जिस दौर में हम जी रहे हैं, उस दौर में आस्था का यह लोक एक नवीन अनुभूति प्रदान करेगा. लोक से लोक तक यात्रा अभी अपने प्रारंभिक अवस्था में है लेकिन सफर जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा, यह लोक ही नहीं बल्कि आलौकिक अनुभव देगा. आनंद से जीवन भर देगा क्योंकि महाकाल के दरबार में चमत्कार नहीं है बल्कि अनुभूति है आस्था, आध्यात्म और लोकमंगल की कामना का. मध्यप्रदेश का यह भाग्य है, सौभाग्य है कि देश के 12 ज्योर्तिलिंगों में दो भाव-भूमि पर स्थापित है. यही नहीं, उज्जैन के बाबा महाकाल की उपस्थिति इसलिये मायने रखती है कि वे दक्षिणमुखी हैं और शास्त्र बताते हैं कि यह विरल है. ऐसे में महाकाल लोक की कल्पना को यर्थाथ की धरती पर उतारने का जो महाप्रयास हो रहा है, वह वंदनीय है.
महाकाल लोक की अवधारणा सुविचारित है. यह लोकप्रियता के लिए नहीं है बल्कि महाकाल लोक उस परम्परा का निर्वाह करेगा जिसे हम भारतीय आध्यात्म परम्परा के रूप में जानते हैं. महाकाल लोक में आने वाले लोगों को अब 12 वर्षों का इंतजार नहीं करना होगा. सिंहस्थ उज्जैन का प्रमुख आकर्षण रहा है तो महाकाल लोक प्रतिदिन इस सुखद अनुभूति का साक्षी बनेगा. अब तक की सरकारों ने उज्जैन को सिंहस्थ का केन्द्र बिन्दु बनाकर रखा था और सिंहस्थ की पूर्णता के पश्चात 12 वर्षों की प्रतीक्षा रहती थी. यह संयोग नहीं है बल्कि उस तमाम मिथक टूटे हैं जिसे लेकर भ्रम का संसार रचा गया था. कहा जाता था कि जिस सरकार ने सिंहस्थ कराया, उसकी सरकार चली जाती है लेकिन यह मिथक टूट गया है. कहना ना होगा कि महाकाल के अनन्य उपासक शिवराजसिंह ने नये मानक गढ़े हैं. महाकाल लोक उस आध्यात्म का अद्भुत स्थल होगा जहां से इंसान और ईश्वर का स्वरूप एकाकार होता है. जहां से दुनियादारी से मुक्त होकर व्यक्ति स्वयं के व्यक्तित्व को पहचान पाता है. महाकाल लोक एक स्थान का नाम नहीं होगा बल्कि यह आस्था के उस केन्द्र का विस्तार है जहां सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को परिभाषित किया जाएगा. महाकाल लोक में जाति ना पूछे साधु की, को भारतीयता की दृष्टि से नये स्वरूप में परिभाषित किया जाएगा.
महाकाल लोक के लिए आंकड़ों की बात की जाए तो कोई आठ सौ करोड़ का बजट प्रावधान किया गया है जो उज्जैन को नया स्वरूप प्रदान करेगा. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान कहते हैं कि ‘महाकाल मंदिर परिसर का विस्तार योजना के माध्यम से उज्जैन आने वाले श्रद्धालुओं को ऐसा नया उज्जैन देखने को मिलेगा, जो देश की धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक होगा।’ महाकाल लोक धार्मिक पर्यटन के रूप में एक नवीन तीर्थ स्थान के स्वरूप में विकसित हो रहा है. महाकाल लोक परम्परा और आधुनिकता के नए स्वरूप के साथ हर आयु वर्ग के लोगों के लिए तीर्थाटन के साथ भारतीय परम्परा और संस्कृति से परिचय का एक केन्द्र होगा. अनादिकाल से जिस महाकाल को हम अपना आराध्य मानकर पूजते चले आये हैं, उनके देवालय को नया स्वरूप देने की जो जवाबदारी सरकार ने उठायी है, वह अभिनंदनीय है.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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