स्वाध्याय एवं योगाभ्यास से ईश्वर प्राप्त होता हैः डा. सोमदेव शास्त्री

Text Box: निवेदन- मई, 2017 में गुरुकुल पौंधा देहरादून में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर आयोजित किया गया था। इस शिविर में वैदिक विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई ने ऋषि दयानन्द कृत चारों वेदों की भूमिका ग्रन्थ का अध्ययन कराया था। इस शिविर के तीसरे दिन के अपरान्ह के सत्र का विवरण इस लेख में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसकी कुछ बातें पाठकों के लिए उपयेागी हो सकती हैं। ऐसे लेखों को पढ़ते हुए कुछ विस्मृत बातें सम्मुख आ जाती हैं जिससे लाभ होता है। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे। -मनमोहन आर्य।

-मनमोहन कुमार आर्य

      दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा एवं गुरुकुल पौंधा देहरादून के संयुक्त तत्वावधान में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर तीसरे दिन 31 मई 2017 को अपरान्ह के सत्र में भी जारी रहा। पूर्व की भांति भाष्य भूमिका के उपासना विषय में आये योगदर्शन के सूत्रों का पाठ व स्वाध्याय आर्य विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री जी ने सभी शिविरार्थियों को कराया। सूत्रों में विद्यमान रहस्यों को भी आचार्य जी सरल व सुबोध भाषा में श्रोताओं पर प्रकट किया। सभी श्रोता आचार्य जी के विचारों को सुनकर सन्तुष्ट एवं प्रसन्न देखे गये। आचार्य जी के जन्म स्थान मध्यप्रदेश के ननोरा से एक बस भर कर धर्म प्रेमी लोग गुरुकुल के स्वाध्याय शिविर एवं उत्सव में भाग लेने आये हैं। देश के अनेक भागों से भी लोग बड़ी संख्या में आये हैं।

      प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि ब्रह्माण्ड रूपी पुर अर्थात् शरीर में रहने वाली सत्ता को परमपुरुष या ईश्वर तथा मनुष्य शरीर में रहने वाली सत्ता जीवात्मा को पुरुष कहते हैं। आचार्य जी ने कहा कि जीवात्मा को शरीर रूपी साधनों की आवश्यकता है। ईश्वर क्लेश, कर्म व उनके फलों से प्रभावित नहीं होता। आचार्य जी ने कहा कि ईश्वर एक है। ईश्वर से कम व अधिक ज्ञान व सामथ्र्य रखने वाला कोई दूसरा ईश्वर ब्रह्माण्ड में नहीं है। ईश्वर केवल एक ही है। आचार्य जी ने श्रोताओं को बताया कि ईश्वर सर्वज्ञ है तथा जीव अल्पज्ञ है। आचार्य जी ने कामना, लोभ व क्रोध की व्याख्या भी की। उन्होंने कहा कि परमात्मा सृष्टि के आरम्भ से अब तक हुए सभी गुरुओं का भी गुरु है। वह काल से बाधित नहीं है। ईश्वर काल की सीमा से परे है। आचार्य जी ने शिविरार्थियों को स्वाभाविक ज्ञान और नैमित्तिक ज्ञान का अन्तर भी बताया। उन्होंने कहा कि परमात्मा को बताने वाला शब्द ‘ओ३म्’ है। आचार्य जी ने बताया कि प्रणव ईश्वर का नाम है और इसका शब्दार्थ है कि सभी मनुष्य ईश्वर की अच्छी प्रकार से स्तुति किया करें। सनातन शब्द का अर्थ बताते हुए आचार्य जी ने कहा कि जो सदा एक समान व एक जैसा रहता है तथा जो सदा नया है, वह सनातन होता है। संस्कृत में अव्यय शब्द पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि जिन संस्कृत शब्दों में परिवर्तन नहीं होता वह अव्यय कहलाते हैं। ‘ओ३म्’ शब्द को आचार्य जी ने अव्यय शब्द बताया। उन्होंने कहा कि चारों वेदों का सार ओ३म् है। परमात्मा व जीवात्मा के सबंधों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बतया कि यह संबंध उपास्य-उपासक, साध्य-साधक, पिता-पुत्र, मां-बेटे का, गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा आदि का होता है परन्तु पति-पत्नी का संबंध नहीं होता। इसके कारणों पर भी विद्वान आचार्य जी ने प्रकाश डाला।

      आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा हमारा रक्षक है। उन्होंने बताया कि पाप करते हुए मनुष्य की आत्मा में भय, शंका व लज्जा का जो आभास होता है वह जीवात्मा की ओर से नहीं अपितु परमात्मा की ओर से होता है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि माता-पिता अपनी सन्तानों को बुरा काम करने पर उनका हाथ पकड़कर रोकते हैं परन्तु परमात्मा मनुष्यों को अन्दर से आत्मा में प्रेरणा करके उसके हाथों को बुरा काम करने से होने वाली हानियों से बचाने के लिए रोकता है। उन्होंने कहा कि हमें स्वाध्याय करते हुए योगाभ्यास करना चाहिये। इन दोनों कामों, स्वाध्याय और योगाभ्यास, से ही ईश्वर प्राप्त होता है। स्वाध्याय रूपी तप करने तथा वेद प्रचार करने से वाणी का तप होता है। स्वाध्याय करने तथा योगाभ्यास करने से ईश्वर का अनुभव भी होता है। आचार्य जी ने बताया कि इन्द्रियां स्थूल विषयों का ग्रहण करती हैं। सूक्ष्म नित्य पदार्थों का इन्द्रियों से पूर्णतया ग्रहण नहीं किया जा सकता। इन्द्रियों व मन की सहायता से ईश्वर व जीवात्मा आदि की सत्ता के होने का अनुभव किया जा सकता है।

      आचार्य जी ने बताया कि भक्ति में अनेक व्यवधान आते हैं। इन व्यवधानों को ईश्वर के नाम ओ३म् का जप करके दूर किया जा सकता है। योग में विघ्नों की चर्चा करते हुए आचार्य जी ने शरीर में ज्वर व पीड़ा को विघ्न बताया। सत्य कर्मों में अप्रीति होना, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवास्थितत्व आदि उपासना में आने वाले नौ विघ्न होते हैं। आचार्य जी ने कहा कि हम अपनी गाड़ी को चलाने से पहले उसमें पेट्रोल और हवा तो पता करते हैं परन्तु जिस शरीर से 80-90 वर्षों तक काम लेना है, उसका ध्यान नही रखते। उन्होंने कहा कि किसी भी व्यक्ति को अपने शरीर की रक्षा के प्रति लापरवाही नहीं करनी चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि जिसका मन अशान्त हो उसे ही क्लेश परेशान करते हैं। विघ्नों को छुड़ाने का उपाय बताते हुए उन्होंने कहा कि ईश्वर से प्रेम करें तथा उसकी आज्ञा के पालन में पुरुषार्थ करें। विघ्नों को दूर करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति से अब तक हमारे अनेक बार जन्म व मृत्यु हुईं हैं। अनेक अच्छी व बुरी योनियों में हमारा जन्म हुआ है। बड़े सौभाग्य से हमें यह मनुष्य योनि मिली है। इस मनुष्य योनि में हमें ईश्वर की उपासना करने के प्रति सतर्क रहना है। हममें से किसी को पता नहीं कि किसके जीवन में कब कोई संकट वा रुकावट आ जाये। हमें अपने भीतर विवेक शक्ति को उत्पन्न करके विघ्नों का निवारण करना है। हमें सदैव जागरुक एवं सतर्क रहना होगा।                 ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर’ के तीसरे दिन के अपरान्ह के सत्र में उपासना विषय के योगदर्शन के 21 वे सूक्त तक का पाठ सम्पन्न हो गया। उपासना विषय के आरम्भ से वेदमन्त्रों सहित योग दर्शन के सूत्रों का आचार्य जी ने दो बार बोलकर एवं श्रोताओं द्वारा उसकी पुनरावृत्ति कर पाठ किया। आचार्य जी ने प्रत्येक सूत्र का भाव स्पष्ट किया और आवश्यकतानुसार विषय को स्पष्ट करने के लिए उनकी व्याख्या उदाहरणों सहित की। सूत्रों का हिन्दी पाठ पाठकों द्वारा पढ़कर सुनाया गया। इससे संबंधित शंका समाधान भी आचार्य जी ने किया। शिविरार्थियों से कण्ठ मन्त्र व सूत्र भी आचार्य जी ने सुने। शिविर में शिविरार्थियों की 150 व उससे अधिक संख्या आयोजकों के लिए उत्साहवर्धक थी। इस पर दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के उपमंत्री श्री सुखवीर सिंह आर्य जी ने प्रसन्नता व्यक्त की। इस शिविर के साथ ही गुरुकुल में योगाभ्यास एवं व्यायाम, सामवेद पारायण यज्ञ सहित भजन व व्याख्यान के आयोजन भी सम्पन्न हुए। रात्रि के सत्र में आर्य विद्वान श्री इन्द्रजित् देव जी का प्रभावशाली प्रवचन हुआ। गुरुकुल में निवास एवं भोजन की उत्तम व्यवस्था है। अनेक आर्य विद्वान गुरुकुल पधार चुके हैं और अभी अनेक विद्वानों के आने की प्रतीक्षा है।

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