जब मैं मिशन तिरहुतीपुर का काम करने के लिए दिल्ली से चला तो बचत के नाम पर मेरे पास कुछ नहीं था। जो मुझे ‘पहचानते’ हैं, वे इस बात को जानते थे, लेकिन दिल्ली और गांव, दोनों जगह अधिकतर लोगों को लगता था कि जरूर मुझे इसके लिए किसी फंडिंग एजेंसी की ओर से ग्रांट मिली होगी। तार्किक दृष्टि से देखें तो लोगों का सोचना स्वाभाविक था। कोई भी ‘समझदार’ आदमी बिना पैसे का इंतजाम किए, इतना बड़ा कदम नहीं उठाएगा। लेकिन असलियत में मैंने ऐसी ही ‘नासमझी’ की थी। ग्रांट मिलना तो दूर की बात है, मुझे इस तरह का कोई आश्वासन भी नहीं मिला था और न ही इसके लिए मैंने कोई प्रयास किया था। मिशन तिरहुतीपुर समाज का काम है। अंततः इसे समाज के सहयोग से ही चलाना है। लेकिन फिलहाल एक साल तक यानि अक्टूबर 2021 तक मैं इसके निमित्त किसी से सहयोग मांगने के लिए तैयार नहीं था- न तो किसी व्यक्ति से और न ही किसी संस्था से। अपने घर या अपने किसी मित्र और रिश्तेदार से भी कोई आर्थिक मदद नहीं मांगूंगा, ऐसा मेरा निश्चय था।

एक साल के लिए मेरी आर्थिक योजना दो सूत्रों में सिमटी हुई थी, “देख लेंगे” और “देख लेगा”। पहले सूत्र की प्रेरणा दिहाड़ी मजदूर से तो दूसरे की मैंने भगवान पर भरोसा रखने वाले भक्त से ली। जैसे एक दिहाड़ी मजदूर को जब पैसा चाहिए, वह “लेबर मंडी” जाता है, किसी के लिए कुछ घंटे या एक-दो दिन काम करता है और पैसे लेकर घर आ जाता है। उसी तरह मैंने तय किया था कि जब जरूरत होगी तो “कलम मंडी” जाऊंगा और कुछ लिख-पढ़ कर काम भर के पैसे जुटा लूंगा, वह भी गांव में बैठे-बैठे और बिना किसी बंधन में पड़े। अनुवाद, लेखन, संपादन की दुनिया में इस तरह के कई काम होते हैं। व्यक्तिगत खर्चों के लिए तो “देख लेंगे” वाला सूत्र था लेकिन मिशन तिरहुतीपुर से जुड़े खर्चों के लिए “देख लेगा” वाला भाव था। मुझे विश्वास था कि जब भी जरूरत पड़ेगी, भगवान कुछ न कुछ इंतजाम कर ही देंगे।

ऐसा ही हुआ। दशहरा के दिन मेरे एक पुराने शुभचिंतक ने मुझे चुपके से एक लिफाफा दिया और कहा कि ये कुछ पैसे हैं, रख लो, काम आएगा। मैंने यथासंभव ना-नुकुर की लेकिन उनके आग्रह को टाल न पाया। उनके जाने के बाद मैंने देखा कि लिफाफे में एक लाख रुपए थे। अब मेरे सामने चुनौती थी कि इस पैसे का क्या करूं? बहुत सोचने के बाद मैंने उन सामानों की एक सूची तैयार करनी शुरू की जिसे मिशन तिरहुतीपुर के लिए खरीदा जा सकता है। जब यह सूची तैयार हो गई तो उन्हें खरीदने के लिए 7 नवंबर को दिल्ली के लिए रवाना हो गया।

मुझे दिल्ली से जो चीजें लानी थीं, उनमें मुख्यतः “बिल्डिंग मैटेरियल” था। जी हां बिल्डिंग मैटेरियल- लेकिन ईंट-बालू-सीमेंट नहीं, कुछ अलग। फिलहाल मैं गांव के अपने पुश्तैनी घर में रह रहा था, लेकिन वह तिरहुतीपुर से डेढ़ किमी दूर है। तकनीकी रूप से एक ही ग्रामसभा का घटक होने के बावजूद मेरे गांव और तिरहुतीपुर गांव में बहुत अंतर है। मेरी इच्छा थी कि जल्दी से जल्दी तिरहुतीपुर में एक घर बनाया जाए। यह घर मैं उसी डेढ़ एकड़ जमीन पर बनाना चाह रहा था, जिसे मैंने गोविन्दजी के लिए अपने परिवार से मांगा था। निकट भविष्य में वहीं गोविन्दजी के आवास का भी प्रबंध होना है। लेकिन उसके लायक संसाधन अभी मेरे पास नहीं थे। अभी तो मैं केवल अपने रहने लायक प्रबंध करना चाहता था। तिरहुतीपुर में मेरे रहने से मिशन के काम में बहुत तेजी आएगी, ऐसा मेरा विश्वास था।

ऐसा नहीं है कि एक लाख रुपया मिलते ही मेरे मन में लखटकिया घर बनाने का विचार आया था। दरअसल अप्रैल से सितंबर, 2020 के बीच मैंने अगर सबसे अधिक समय किसी एक विषय पर शोध और अध्ययन में लगाया था तो वह था- लो कॉस्ट हाउसिंग। मिशन तिरहुतीपुर के जो 9 आयाम हैं, उनमें से एक है- इन्फ्रास्ट्रक्चर अर्थात बुनियादी ढांचे का निर्माण। इसमें व्यक्तिगत उपयोग के लिए होने वाले निर्माण जैसे घर आदि को प्रमुखता दी गई है।

आज गांवों में घर बनाने के लिए जिस सामग्री, तकनीक और डिजाइन का इस्तेमाल हो रहा है, वह बहुत ही खर्चीली और उपयोगिता की दृष्टि से निराशाजनक है। अधिकतर नए घरों को गांवों की छिन्न-भिन्न होती सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना का परिणाम और कारण दोनों माना जा सकता है। इसलिए हमने तय किया था कि मिशन तिरहुतीपुर के अंतर्गत हम भवन निर्माण की वर्तमान व्यवस्था को बदलने या उसे सुधारने का एक गंभीर प्रयास जरूर करेंगे। मेरी योजना थी कि यह प्रयास मिशन तिरहुतीपुर के भावी परिसर से ही शुरू होना चाहिए।

विकल्प की तलाश में मैंने भारत सहित दुनिया भर की कम लागत वाली कई निर्माण पद्धतियों का अध्ययन किया। मैंने यह भी समझा कि औद्योगिक क्रांति के बाद भवन निर्माण में कब-कब और कैसे-कैसे बदलाव हुए। इस संदर्भ में Bll Bryson की लिखी किताब ‘At Home: A Short History of Private Life’ बड़ी उपयोगी रही। आजकल ऑफग्रिड हाउस या मिनिमलिस्ट होम के नाम से जो नया ट्रेंड चला है, उसे भी समझने की कोशिश की। बात केवल भवन निर्माण की लागत कम करने की ही नहीं थी, आराम और सुविधा की दृष्टि से उसके इन्सुलेशन और सैनिटेशन पर भी पर्याप्त जानकारी जुटाई। जब इतना सब जानने की कोशिश करेंगे तो भला अपनी वास्तु विद्या को कैसे छोड़ देंगे। मैंने गणि राजेन्द्र विजय की लिखी किताब, ‘वास्तु विद्या के सफल प्रयोग’ को भी पढ़ा। उससे भी दृष्टि थोड़ी और स्पष्ट हुई।

गांवों के आधारभूत ढांचे को बदलने या बेहतर बनाने की दृष्टि से मुझे जो नई जानकारियां मिलीं, उनमें Geodesic Dome विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मैंने तय किया था कि जब भी मौका मिलेगा, सबसे पहले इसे ही आजमाएंगे। जिओडेसिक डोम की डिजाइन गोल गुंबद की तरह होती है। इसे अलग-अलग आकार के डंडों (struts) को त्रिभुजाकार में जोड़ते हुए तैयार किया जाता है। इस विधि को 1926 के आसपास जर्मनी में खोजा गया था। बाद में एक अमेरिकी RB Fuller ने इसे और विकसित किया। आजकल व्यक्तिगत उपयोग की दृष्टि से जिओडेसिक डोम को अव्यवहारिक मान लिया गया है। लेकिन मुझे लगता है कि ये कारण सतही हैं। उनका समाधान ढूंढकर इसे अच्छे से इस्तेमाल किया जा सकता है।

जिओडेसिक डोम के लिए अधिकतर सामान गांव में उपलब्ध था लेकिन कुछ चीजें ऐसी थीं जिनका गांव में मिलना मुश्किल था। दिल्ली पहुंचते ही मैंने उनको ढूंढना शुरू कर दिया। इसी बीच मेरी मुलाकात अपने एक पुराने सहकर्मी कमलनयन से हुई। उन्होंने मेरे साथ मिशन तिरहुतीपुर के लिए काम करने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन्हें बताया कि यह सेवा का कार्य है, यहां पैसा नहीं मिलेगा। लेकिन इस बात से कमल हतोत्साहित नहीं हुए। उन्होंने मुझे अपना एक साल देने का वादा किया। कमल का साथ आना मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं था। ज्योतिष की भाषा में कहूं तो मुझे केमद्रुम दोष से मुक्ति मिल गई थी। पहले मेरे शुभचिंतक का एक लाख रुपया देना और अब कमल का एक साल मिलना…मुझे विश्वास हो गया कि ईश्वर मिशन तिरहुतीपुर के साथ है।

जिओडेसिक डोम और कमलनयन के साथ मिशन तिरहुतीपुर कैसे आगे बढ़ा, जानेंगे डायरी के अगले अंक में। इसी दिन, इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।

विमल कुमार सिंह
संयोजक, मिशन तिरहुतीपुर

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