“स्वामी विरजानन्द ऋषि दयानन्द के वेदप्रचार कार्यों की प्रेरणा थे”

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मनमोहन कुमार आर्य,

                प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी ऋषि दयानन्द के विद्यागुरु थे। उन्होंने ही स्वामी दयानन्द को अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति से व्याकरण पढ़ाया था और शेष समय में उनसे शास्त्रीय चर्चायें करते थे जिससे स्वामी दयानन्द जी ने अनेक बातें सीखी थी। स्वामी विरजानन्द की एक प्रमुख बात यह थी कि वह ऋषि मुनियों के प्रशंसक होने सहित उनमें पूर्ण आस्था व विश्वास रखते थे। जिन ग्रन्थों में ऋषि-मुनियों की निन्दा होती थी उन्हें वह अप्रमाणिक एवं त्याज्य मानते थे। ऋषि दयानन्द विद्या प्राप्ति सहित उनके अनुभवों को भी जाना था। वह अवैदिक मतमतान्तरों को मनुष्यकृत कपोल कल्पित मानते थे। मत-मतान्तरों में जो सत्य है वह सर्वप्राचीन ग्रन्थ वेदों से उनमें पहुंचा है और उनमें जो अविद्या से युक्त मिथ्या कथन, मान्यतायें एवं सिद्धान्त हैं वह उनके अपने हैं। ऋषि दयानन्द ने एकेश्वरवाद एवं द्वैतवाद आदि नाना मतों सिद्धान्तों की समालोचना कर पाया था कि त्रैतवाद का सिद्धान्त ही यथार्थ है। हो सकता है इस पर भी स्वामी दयानन्द जी की चर्चा स्वामी विरजानन्द जी से अध्ययन काल में हुई होगी। इसी सिद्धान्त को हम वेदों की प्रमुख देनों में से एक देन कह सकते हैं और इसको युक्ति तर्क के साथ प्रस्तुत करने के लिये दर्शनकार सहित स्वामी दयानन्द जी और स्वामी विरजानन्द जी सभी को इसका श्रेय दे सकते हैं। स्वामी विरजानन्द जी ने ही सम्भवतः स्वामी दयानन्द जी को यह भी बताया हो कि चार वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं और वह सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। वेदों का अध्ययन एवं प्रचार तथा वेदों की शिक्षाओं के अनुसार आचरण करना ही मनुष्य वा आर्यों का परम धर्म है। गुरु विरजानन्द ने भारत के घोर पतन के काल में जो शिक्षा ज्ञान दिया उसने भारत की काया पलट दी। हम चाह कर भी इन आदर्श गुरु एवं आदर्श शिष्य का अपनी वाणी एवं लेखनी से यथार्थ चित्रण वर्णन नहीं कर सकते। हमें ऐसा करने की योग्यता नहीं है। ईश्वर को इन महापुरुषों को भारतभूमि में उत्पन्न करने के लिए धन्यवाद करना सभी विवेकशील लोगों का कर्तव्य प्रतीत होता है। हम आज वैदिक विचारधारा से जिस प्रकार अपने साधारण प्रयासों से परिचित हुए हैं, ऐसा सौभाग्य ऋषि दयानन्द के समकालीन व पूर्वकालीन हमारे पूर्वजों व देशवासियों को प्राप्त नहीं हुआ। आज हमें ऋषि दयानन्द लिखित पंच महायज्ञों की पुस्तक सुलभ है। ऋषि दयानन्द से पूर्व हमारे देश वासियों को यह पुस्तक व पंच महायज्ञ को करने की समुचित विधियां विदित नहीं थी। वह उस समय की प्रचलित विधियों के अनुसार इन यज्ञों करते थे जो कि अनेक प्रकार की अविद्याजन्य क्रियाओं से युक्त थे। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि जो ग्रन्थ हमें दिये हैं उसके लिये हम अपने आप को सौभाग्यशाली समझते हैं। यदि गुरु स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द होते तो आज हम जिस वैदिक धर्म संस्कृति के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान रखने के साथ उसका पालन करते हैं, उसका करना हमारे द्वारा कदापि सम्भव होता ऐसा हमें स्पष्ट प्रतीत होता है।

                स्वामी विरजानन्द जी कर देहत्याग 14 सितम्बर, सन् 1868 को हुआ था। आज उनकी 151 वी पुण्य तिथि है। स्वामी विरजानन्द जी का ऋण सभी वैदिक धर्मियों सहित समस्त देशवासियों व मानवमात्र पर है। हमें इनके जीवन पर विचार करने के साथ उनके देश व धर्म के कार्यों व योगदानों को स्मरण करना है। वह किशोरावस्था में प्रज्ञाचक्षु हो गये थे। अमृतसर के निकट करतारपुर उनका जन्म स्थान था। घर में भाई भावज का उनके प्रति व्यवहार अच्छा नहीं था। अतः इस दुर्व्यवहार ने ही उन्हें गृहत्याग के लिये विवश किया था। इसका परिणाम स्वामी विरजानन्द जी के लिये भी अच्छा हुआ तथा देश विश्व के लिये भी अच्छा ही हुआ। कष्ट दुःखों को सहकर ही मनुष्य का जीवन बनता है। स्वामी विरजानन्द जी ऋषिकेश पहुंच पर गंगा नदी के जल में घण्टों खड़े रहकर कर गायत्री जप करते थे। इससे उन्हें आध्यात्मिक लाभ हुआ था। इसके बाद वह हरिद्वार के कनखल में आये थे और यहां विधिवत संस्कृत भाषा का अध्ययन किया था। यहां से वह देश के अनेक स्थानों पर गये और सर्वत्र आपने अपना अध्ययन व अध्यापन जारी रखा। अलवर नरेश को भी आपने विद्यादान दिया था। मथुरा को आपने अपना स्थाई शिक्षण स्थान बनाया था। यहां रहकर आप एक पाठशाला चलाते व विद्यार्थियों को संस्कृत पढ़ाते थे। अध्ययन करने अध्ययन कराने से मनुष्य की बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। कहावत भी है कि विद्या बांटने से बढ़ती है और इसका यदि अभ्यास अध्यापन आदि किया जाये तो इसमें वृद्धि नहीं हो पाती अपितु यह विस्मृति को प्राप्त हो सकती है। स्वामी विरजानन्द जी ने संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में बहुत उच्च स्थिति सम्पादित की थी। निश्चय ही वह कुछ योग्य शिष्यों की तलाश में रहे होंगे। ईश्वर ने उनकी वह इच्छा स्वामी दयानन्द को उनके पास भेजकर पूरी की थी। स्वामी दयानन्द को शिक्षित कर गुरु दक्षिणा के अवसर पर उनका संकल्प सुनकर उनको निःसन्देह अत्यन्त हार्दिक प्रसन्नता हुई होगी। इसके बाद भी जब गुरु विरजानन्द जी अपने शिष्यों व अन्य कुछ व्यक्तियों से ऋषि दयानन्द के कार्यों की प्रशंसा सुनते होंगे तो निःसन्देह उन्हें अत्यन्त सुख मिलता होगा। इस आधार पर हम अनुमान कर सकते हैं कि स्वामी विरजानन्द जी का अन्तिम समय ऋषि दयानन्द के समाज व देश में वेद प्रचार के द्वारा अज्ञानान्धकार दूर करने का जो महद् कार्य किया जा रहा था, उससे वह निश्चय ही प्रसन्न रहे होंगे।

                स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द को व्याकरण एवं शास्त्रों के सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं का अध्ययन कराया था। इसी विद्याध्ययन प्रणाली से स्वामी दयानन्द का निर्माण हुआ था। स्वामी दयानन्द जी ने गुरु विरजानन्द से प्राप्त विद्या से देश से अज्ञान के अन्धकार को दूर करने का अभूतपूर्व कार्य किया। इसी कार्य के कारण उनको मृत्यु का वरण भी करना पड़ा। ईश्वरभक्ति तथा आर्षग्रन्थाध्ययनअध्यापन की पवित्र साधना में अपना जीवन व्यतीत करते हुए नब्बे वर्ष की आयु में उदरशूल से पीड़ित रहते हुए संवत् 1925 आश्विन बदि 13, सोमवार (14-9-1868) को दण्डी विरजानन्द जी ने मथुरा में अपनी विनश्वर देह का त्याग किया था। आज उनकी पुण्य तिथि पर हम उनको स्मरण करते हैं और उनको श्रद्धाजलि देने सहित उनकी पावन स्मृति को नमन एवं धन्यवाद करते हैं। ओ३म् शम्।

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