– एड.संजय पांडे
31 अगस्त से 3 सितम्बर के बीच, कोलकाता के अकादमी दफ़्तर, रफ़ी अहमद किदवई रोड, कला मंदिर में ‘उर्दू का हिंदी सिनेमा में योगदान’ विषय पर कार्यक्रम रखा गया था। इसमे मुशायरा, फ़िल्म स्क्रीनिंग, संगोष्ठियाँ होने थे। मुशायरे के मुख्य अध्यक्ष व अतिथि प्रसिद्ध गीतकार, कवि और पटकथा लेखक जावेद अख्तर और दूसरे अतिथि के रूप में फिल्मकार मुज़फ्फर अली को आमंत्रित किया गया था। आयोजन-स्थल पर मुग़ल-ए-आज़म, प्यासा, काग़ज़ के फूल, उमराव जान जैसी कालजयी क्लासिक फिल्मों के पोस्टर/बैनर लग चुके थे। शुरुआत में उर्दू अकादमी आयोजन के प्रति उत्साहित थी, लेकिन विरोध बढ़ने और माहौल बिगड़ने की आशंका के बाद उसने अचानक कार्यक्रम रद्द कर दिया।
आधिकारिक बयान में कहा गया कि “अनिवार्य परिस्थितियों” और “सुरक्षा कारणों” के चलते यह निर्णय लिया गया। सरकार को डर था कि अख्तर पर हमला, स्याही फेंकने या उपद्रव या अन्य हिंसक घटनाएँ हो सकती हैं। उर्दू अकादमी के सेक्रेटरी नुज़हत ज़ैनब ने अपने आधिकारिक वक्तव्य में घोषित किया कि, “अनिवार्य परिस्थितियों के कारण 31 अगस्त–3 सितम्बर, ‘उर्दू इन हिन्दी सिनेमा’ कार्यक्रम स्थगित किया जाता है।”
इस बारे में बंगाल सरकार का दृष्टिकोण बड़ा दिलचस्प है। इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों के विरोध के बाद सरकार ने चुनावी वर्ष से पहले ‘किसी’ को नाराज़ नहीं करने के लिए सरकार ने कार्यक्रम को स्थगित करने की भूमिका ली। साथ ही 2026 के विधानसभा चुनावों को देखते हुए ममता बनर्जी सरकार किसी प्रकार का धार्मिक टकराव या हिंसा नहीं चाहती थी। सरकार और टीएमसी के नेता इस पर सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करना टाल रहे हैं। कई नेताओं ने प्रतिक्रिया देने से इनकार किया और कुछ ने स्याही-हमले जैसी ‘अप्रिय घटना’ रोकने और सीधे जावेद अख्तर से ‘न आने’ का आग्रह करके शर्मिंदगी ना उठानी पड़े इसलिए कार्यक्रम पर रोक लगाने का समर्थन किया। इससे निर्विवाद रूप से वामपंथ की सरकारों में जो बंगाल की उदार-धर्मनिरपेक्ष छवि थी उसे क्षति पहुंची है। सरकार, साहित्य और स्वतंत्रता के मूल्यों से समझौता करते हुए कट्टरपंथियों के दबाव में झुक गई। इस विवाद ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, साहित्य और राजनीति – इन तीनों को एक साथ चर्चा के केंद्र में ला दिया।
जावेद अख्तर का विरोध करने वाले इस्लामी संगठनों में जमीयत उलेमा-ए-हिंद (बंगाल यूनिट), जमीयत उलेमा कोलकाता, वह्याइन फाउंडेशन इन तीन संगठनों के नाम प्रमुखता से आगे आए हैं। जमीयत उलेमा का कहना है कि, “जावेद अख्तर ने इस्लाम, मुसलमानों और अल्लाह के विरुद्ध बहुत बुरी/अपमानजनक बातें की हैं।” जमीयत उलेमा कोलकाता के महासचिव ज़िल्लुर रहमान आरिफ ने सार्वजनिक बयान दिया है कि “यह व्यक्ति (जावेद अख्तर) इंसान नहीं बल्कि इंसान के रूप में शैतान है।” जमीयत के उपाध्यक्ष ने अपने पत्र में आरोप लगाया है कि,– “वे (जावेद अख्तर) धर्म-विरोधी हैं और अन्य धर्मों के लोगों का अपमान करने पर आमादा रहते हैं।” इस पत्र में तर्क दिया गया है कि, “उर्दू अकादमी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए है; ऐसे नास्तिक/धर्म-आलोचक को मंच देना समुदाय की भावनाओं को आहत करेगा।” और मांग की गई है कि, “उन्हें मुख्य अतिथि न बनाया जाए; उनकी जगह किसी ‘योग्य और आस्थावान’ व्यक्ति को बुलाया जाए, चाहे उसका धर्म कोई भी हो।” साथ ही धमकी जारी की है कि, “यदि हमारी आपत्ति नहीं मानी गई, तो 2007 की तस्लीमा नसरीन प्रकरण जैसी ‘लोकतांत्रिक’ आंदोलन/प्रदर्शन होंगे; हमने पहले भी ऐसा आंदोलन चलाकर उन्हें बंगाल छोड़ने पर मजबूर किया था।”
एक दूसरे मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन वह्याईन फाउंडेशन ने बयान जारी किया है कि, इससे “युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।” साथ ही उन्होंने धर्म पर बहस’ के लिए जावेद अख्तर को आमंत्रित करने की चुनौती दी है। जमीयत, बंगाल यूनिट के महासचिव मुफ़्ती अब्दुस सलाम विरोध दर्ज कराते हुए कहा हमें उनके नास्तिक होने पर समस्या नहीं, पर उन्होंने कई मौकों पर धर्म पर अपमानजनक टिप्पणियाँ कीं—इसीलिए हमारा विरोध है। जमीयत उलेमा कोलकाता, महासचिव ज़िल्लुर रहमान आरिफ ने अपनी बयानबाजी में कहा “…यह व्यक्ति शैतान है… कार्यक्रम में शामिल न करें।” बंगाल में अल्पसंख्यकों की भारी आबादी है और इन संगठनों के आगे सरकार के झुकने के कारण “अनिवार्य परिस्थितियाँ” कहकर कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। इसे ये मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन अपनी आपत्ति की सफलता मानते हुए खुशियाँ माना रहे हैं।
कुछ अखबारों में जावेद अख्तर का बयान छपा है जिसमे उन्होंने साफ कहा है कि “मैं नास्तिक हूँ। मेरा नाम जावेद अख्तर का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं; दोनों शब्द फ़ारसी के हैं। केवल भारत में नामों को धर्म से जोड़ा जाता है।” उन्होंने ये भी कहा है कि, “मुझे दोनों तरफ़—हिंदू और मुस्लिम—कट्टरपंथियों से गालियाँ मिलती हैं; जब दोनों गाली देते हैं तो समझता हूँ कि मैं कुछ सही कर रहा हूँ।” उन्होंने उर्दू शेरोशायरी और कविताओं की शुरुआत से ही गैर-आस्थावादी, अंध-विश्वास विरोधी, समतावादी रुझान पर बल, वैज्ञानिक दृष्टि, संगठित धर्म की आलोचना जैसे पक्षों का हवाला देते हुए कोलकाता से उन्हे प्रेम होने की बात कही है। उन्होंने लिखा “यह शहर उदार और प्रगतिशील है। मैं ‘बोई मेला’ को तीर्थ मानता हूँ—हज़ारों लोग सिर्फ़ किताबों के लिए आते हैं; यह भरोसा देता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं।” इस तरह जावेद अख्तर ने विरोधियों के आरोपों का खुलकर जवाब दिया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि वे नास्तिक हैं और इस बात को कभी छिपाया नहीं है। उनका कहना था कि उन्हें जीवनभर दोनों ओर के कट्टरपंथियों—हिंदू और मुस्लिम—से हमले झेलने पड़े हैं। उनका तर्क था कि इस महोत्सव में वे धर्म पर भाषण देने नहीं, बल्कि साहित्य और सिनेमा में उर्दू की भूमिका पर चर्चा करने वाले थे। अख्तर ने कोलकाता और उसकी प्रगतिशील परंपरा की सराहना करते हुए कहा कि यह शहर हमेशा बौद्धिक बहस, खुले विचारों और सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता है। उन्होंने निराशा जताई कि यदि यहाँ भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है, तो यह पूरे देश के लिए चिंताजनक है। उनके अनुसार, विरोध का असली कारण व्यक्तिगत नफ़रत और कट्टर सोच है, न कि साहित्य या समाज की भलाई।
बुद्धिजीवी, उर्दू-प्रेमी, सामाजिक कार्यकर्ताओं, संगठनों, एसएफआइ समेत अन्य वामपंथी प्रगतिशील छात्र संगठनों ने देशभर में इसपर प्रतिक्रियाएं दी हैं। कई लेखकों और विचारकों ने यह भी कहा कि उर्दू भाषा किसी एक धर्म की बपौती नहीं है। यह साझा सांस्कृतिक धरोहर है जिसने ग़ालिब, फै़ज़, साहिर लुधियानवी जैसे दिग्गजों को जन्म दिया। साहित्य क्षेत्र से जुड़े मुदार पाथेरिया, ज़ीशान मजीद, राकेश झुनझुनवाला, तैय्यब अहमद ख़ान, ज़ाहिर अनवर, पलाश चतुर्वेदी, मुईन-उद-दीन हामिद, स्मिता चंद्रा, स्पंदन रॉय बिस्वास, नवीन वोहरा, ज़ाहिद हुसैन, अभय फडणिस और अन्य बुद्धिजीवियों ने इसकी कड़ी आलोचना की है। उन्होंने मिलकर “उर्दू प्रेमियों और उदार मुसलमानों” का मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है जिसमे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की आलोचना करते हुए, उनके रवैये पर आपत्ति जताई है कि, वेस्ट बंगाल उर्दू अकादमी (जिसके नाम में ‘मुस्लिम’ शब्द नहीं) ने कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए निमंत्रण वापस लिया। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है- “उर्दू को ‘मुस्लिमनेस’ से जोड़ना भाषा की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को ठेस पहुँचाता है; अकादमी सांस्कृतिक संस्था है, धार्मिक नहीं। कवि की निजी आस्था/नास्तिकता को उसके विषय (हिंदी सिनेमा में उर्दू) से ऊपर रख दिया गया, जो धर्म से असंबंधित था। अब किसी भी संस्था को ‘धर्म ख़तरे में है’ कहकर निर्णय पलटवाना आसान हो जाएगा। उदार बंगाल में, आपकी मुख्यमंत्रिता में, यह निराशाजनक है; हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की अपेक्षा रखते हैं।”
ग़ज़ाला यास्मीन जो उर्दू अकादमी गवर्निंग बॉडी और अलिया यूनिवर्सिटी से संबंधित हैं उन्होंने कहा है- “उर्दू एक भारतीय भाषा है—किसी धार्मिक संबद्धता के बिना—इसे सांस्कृतिक, सौंदर्यात्मक और साहित्यिक उत्कृष्टता के लिए मनाया जाना चाहिए; संकीर्ण धार्मिक कट्टरता द्वारा अपहृत नहीं। आयोजन स्थगित होने पर निराशा के साथ आशा व्यक्त की है कि, “हम बाद में और विविधता/वृहत्तर पहुँच के साथ आयोजन करेंगे” वैज्ञानिक, लेखक व फ़िल्मकार गौहर रज़ा “कार्यक्रम रद्द होना बेहद चिंताजनक और अस्वीकार्य है; हिंदू और मुस्लिम—दोनों तरह के कट्टरपंथी ‘तर्कशीलता की आवाज़’ को चुप कराना चाहते हैं। जावेद अख्तर—तर्कशीलता की मज़बूत, स्पष्ट, ऊँची और रचनात्मक आवाज़ हैं। कट्टरपंथी ताकतें हर धर्म में मौजूद होती हैं। उनका मकसद समाज को बाँटना है, न कि उसे जोड़ना।”
एपीडीआर (एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमक्रैटिक राइट्स) ने भी प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से निंदा; मुद्दे को लोकतांत्रिक अधिकारों/स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए ख़तरा बताया। मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने अपने एक्स हैन्डल पर लिखा है- “मुस्लिम राइट” चलाने वाले मंचों को वैधता देने के ख़िलाफ़; “यह शुरुआत है”—कट्टरता वैध होने का ख़तरा—जरूरत पड़े तो वे कोलकाता में अलग कार्यक्रम आयोजित करेंगी। भारत न तो हिंदू राष्ट्र है न इस्लामी; नास्तिकों को भी जीने-कहने का अधिकार है— यहाँ तक कि, धर्म-प्रधान राज्यों में भी गैर-आस्तिक होते हैं।”
कोलकाता-आधारित शोधकर्ता साबिर अहमद कहते हैं “अभिव्यक्ति की कुछ स्वतंत्रता तो होनी चाहिए; धार्मिक/नास्तिक होना व्यक्ति की पसंद है; किसी अन्य संदर्भ में कही बातों के कारण कार्यक्रम रद्द करना असहिष्णुता है; भिन्न मत सहना होगा।” सामाजिक कार्यकर्ता मंज़र जमील “यदि विचारों पर आपत्ति थी, तो कार्यक्रम में ही बहस/मुक़ाबला करें—स्पष्ट है कि वास्तविक उद्देश्य वह नहीं; लेखक-कवि-कलाकार अलग ब्रह्मांड में रहते हैं, उन्हें ‘संकीर्ण परिभाषाओं’ में नहीं बाँधा जा सकता।” उन्होंने ये भी कहा है कि, “उर्दू अकादमी साहित्यिक निकाय है—मदरसा/धार्मिक संस्था नहीं; बहस करें, बहिष्कार/धमकी नहीं।” राजनीतिशास्त्र के विद्वान मैदुल इस्लाम ने इस घटना को “स्थगन ‘चुनावी मजबूरियों’ का नतीजा, जन-मानस को गलत संदेश, उदार मूल्यों को धक्का।” लिखा है। सामाजिक एकता अभियानों से जुड़े लोगों ने इसे “समुदायों के बीच दूरी/सांप्रदायिकीकरण को मजबूत करता है। ऐसा उनके प्रतिक्रियाओं में लिखा है।
मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के अध्यक्ष डॉ. शमसुद्दीन तांबोली ने जावेद अख्तर का समर्थन करते हुए इस कार्यक्रम को रद्द करने वाली पश्चिम बंगाल सरकार की तीखे शब्दों में निंदा की है। वे लिखते हैं भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को दिए गए धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अभी तक नागरिकों को समझ नहीं आया है यह हमारा दुर्भाग्य है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ जैसे धर्म पालन की स्वतंत्रता है वैसे ही धर्म को नकारने की तथा धर्म की समीक्षा की भी स्वतंत्रता है।
जनवादी लेखक संघ ने जावेद अख्तर के साहित्य महोत्सव का रद्द होने को सांस्कृतिक गुंडागर्दी करार देते हुए इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी, उर्दू की सांस्कृतिक विरासत और लोकतंत्र पर सीधा हमला कहा। जनवादी लेखक संघ ने इसे कायराना कदम बताते हुए अपने बयान में कहा है कि बंगाल सरकार और उर्दू अकादमी ने जनता की ओर से मिली जिम्मेदारी को त्याग दिया है और कट्टरपंथी गिरोहों के आगे घुटने टेक दिए हैं। उर्दू भाषा को मज़हबी बंधनों में बाँधने की साजिश भारत की गंगा-जमनी तहज़ीब की हत्या है। कट्टरपंथी ताकतें चाहे किसी धर्म के नाम पर हों, उनका असली मकसद जनता को सोचने, सवाल करने और बोलने से रोकना है। यह फासीवादी हमला है और इसका जवाब केवल सांस्कृतिक प्रतिरोध और जनांदोलन से दिया जाएगा। लेखक संघ ने इस घटना के विरोध में देशभर में प्रतिरोध दर्ज करने का आवाहन किया है।
भाजपा की हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी विचारधारा शासित राज्यों में पुस्तक महोत्सव, चर्चा, परिगोष्टियों पर हमले आम बात राज्यों में ऐसा चलन आम हो चुका है। कोलकाता को लंबे समय से भारत की बौद्धिक राजधानी कहा जाता है। यह शहर हमेशा साहित्य, कला और संगीत का केंद्र रहा है। यहाँ के पुस्तक मेले और थिएटर उत्सव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हैं। कोलकाता हमेशा से बौद्धिक विमर्श और प्रगतिशील विचारों का गढ़ माना जाता रहा है। कोलकाता स्वयं लंबे समय से प्रगतिशील विचारों का गढ़ रहा है। यहाँ का पुस्तक मेला, यहाँ की सांस्कृतिक संस्थाएँ और यहाँ का साहित्यिक विमर्श हमेशा खुलेपन और विविधता का प्रतीक रहा है। यहाँ के पुस्तक मेले, फिल्म महोत्सव और साहित्यिक सम्मेलन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करते रहे हैं। इस घटना के बाद यह आज के भारत की विडंबना का प्रतीक बन गया। ऐसे शहर में यदि एक साहित्यिक आयोजन धार्मिक दबाव के कारण रद्द हो जाए, तो यह न केवल कोलकाता की छवि को धूमिल करता है, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक परंपरा पर भी सवाल उठाता है। शहर मे साहित्य महोत्सव का रद्द होना इस परंपरा पर धब्बा है।
बंगाल जैसे राज्यों में भी जब यही हो सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत जैसे लोकतंत्र में किसी लेखक, कवि या कलाकार को केवल इसलिए मंच से हटाया जा सकता है क्योंकि उसके विचार किसी समुदाय को असहज करते हैं? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यही है कि असहमति के बावजूद संवाद और बहस हो। धार्मिक अस्मिता के नाम पर विरोध, धमकियाँ और हिंसा दरअसल लोकतांत्रिक ढांचे की नींव को कमजोर करते हैं। और जब सरकार ऐसे दबावों के आगे झुक जाती है, तो यह संदेश जाता है कि कट्टरपंथ जीत गया और स्वतंत्र चिंतन हार गया।
देशभर में आज जहाँ एक ओर कट्टरपंथ और राजनीतिक डर समाज पर हावी हैं, वहीं दूसरी ओर साहित्य, कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लगातार दबाई जा रही है। यह विवाद हमें याद दिलाता है कि यदि हमने विचारों की आज़ादी की रक्षा नहीं की, तो हम अपनी सांस्कृतिक विरासत और लोकतांत्रिक मूल्यों दोनों को खो देंगे। धार्मिक अस्मिता की राजनीति और सत्ता का समीकरण मिलकर स्वतंत्र चिंतन पर पहरा बिठा रहे हैं। कट्टरपंथ की छाया यहाँ भी गहराती जा रही है। यह विडंबना है कि जिस शहर ने विचारों की आज़ादी का झंडा उठाया, वहीं अब किताबों और कविताओं से डर पैदा हो रहा है।
इस विवाद ने एक और अहम सवाल खड़ा किया—क्या उर्दू केवल मुस्लिम समाज की भाषा है? हकीकत यह है कि उर्दू का विकास हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों की साझी संस्कृति से हुआ। फ़िल्मी गीतों और कविताओं से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन तक—उर्दू ने भारतीय समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। उर्दू भाषा ने न केवल साहित्य बल्कि भारतीय सिनेमा को भी समृद्ध किया है बल्कि साहिर, शकील, अली सरदार जाफरी, जाँनिसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, गुलजार और जावेद अख्तर जैसे गीतकारों ने हिंदी फिल्मों को काव्यात्मक गहराई दी। यह कहना कि उर्दू किसी एक धर्म की बपौती है, उर्दू की साझा विरासत के इतिहास के साथ अन्याय करना है। यह निर्णय केवल कानून-व्यवस्था की चिंता नहीं बल्कि तुष्टिकरण की राजनीति का परिणाम था। उर्दू न केवल मुसलमानों की भाषा है और न ही किसी एक समुदाय की जागीर। यह दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद से लेकर कोलकाता तक की साझा तहज़ीब की भाषा रही है। हिन्दी फिल्मों का इतिहास ही उर्दू के बिना अधूरा है। “मुग़ल-ए-आज़म” से लेकर “प्यासा” तक और “जिंदगी गुलजार है” जैसे आधुनिक गीतों तक, हर जगह उर्दू की नज़ाकत और लफ्ज़ों की खूबसूरती झलकती है। इस भाषा ने भारतीय सिनेमा को वह जादू दिया जिसे पूरी दुनिया ने सराहा। इसीलिए “हिन्दी सिनेमा में उर्दू” विषयक महोत्सव केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं था, बल्कि यह इस साझा विरासत का उत्सव मनाने का अवसर था। उसका रद्द हो जाना इस साझा संस्कृति पर भी चोट है।
आज की धार्मिक कट्टरपंथी राजनीति और समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असुरक्षित है। धार्मिक संगठनों का दबाव, सरकार की झुकाव भरी नीति और बुद्धिजीवियों की असहायता—ये तीनों मिलकर इस बात को साबित करते हैं कि कट्टरपंथ का मुकाबला करना अब और कठिन होता जा रहा है। यदि हम चाहते हैं कि भारत वास्तव में विविधताओं में एकता का प्रतीक बने, तो हमें इस तरह के आयोजनों
की रक्षा करनी होगी।
– एड.संजय पांडे