टारगेटेड जर्नलिज्म

डायबिटीज का इलाज गुलाब जामुन से संभव है”*

इस चेतावनी से सजग करती प्रो मनोज 

कुमार की किताब *”टारगेटेड जर्नलिज्म”*

नैतिक आचरण पर आधारित परिवार की अगली पीढ़ी अगर मूल्यविहीन हो जाये, तो जो पीड़ा घर के सबसे बड़े बुजुर्ग की होती हैं, उसी दर्द को महसूस करने का नाम है,  प्रो मनोज कुमार की नई किताब “टारगेटेड जर्नलिज्म” ।

यह किताब कल ही मेरे हाथ में आई है। लेखक एवं प्रोफेसर भाई मनोज कुमार से मेरा तीन दशक पुराना संबंध है। मैंने पत्रकारिता का ककहरा पहले दिन से इनके सानिध्य में बैठकर शुरू किया है। जब मैंने 1991 में पत्रकारिता में पहला कदम रखा था, तब यह विधा अपनी नैतिकता के चर्मोत्कर्ष को छूकर उतार पर चल पड़ी थी।

देश को साहित्यकार एवं संपादक देने वाला नई दुनिया विभाजन के बाद बिकने पर आ गया था। कलरफुल फिल्मी कलाकारों के पोस्टर छाप कर दैनिक भास्कर अपनी ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहा था। पाठकों की संख्या में नवभारत एवं दैनिक भास्कर रोज पूरे पेज के विज्ञापन छाप कर अपने पाठक संख्या की लड़ाई लड़ रहे थे। सामाजिक मूल्यों की पैरवी  करने वाला देशबंधु, स्वदेश, नवजीवन, अस्तित्व बचाने पर लगे हुए थे। 

90 के दशक के बाद बदलाव आते चले गए और लिखने पढ़ने वालों से निकाल कर पत्रकारिता शब्दों के साहूकारों के हाथ में यात्रा पर निकल पड़ी। विचारों को समाज से रूबरू कराने के लिए शुरू किए गए अखबार दम तोड़ने लगे तथा कारोबार से जुड़े लोगों का इसमें प्रवेश शुरू हो गया। 

कारोबार का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना था, वही अखबारों का उद्देश्य होता चला गया। विचारवान लोग संपादक तक सीमित होते – होते बाद में कारोबार के दरबारी हो गए। जो कारोबारी धंधे में बिंदी लगाने का काम करते थे, वह संपादकीय की बिंदी चेक करने लगे। जब उन्हें बिंदी समझ में नहीं आई, तो संपादकीय छापना  ही बंद करवा दिया। खबर की  जिस बिंदी में धंधा कम दिखा, उसकी बिंदी हटा दी और जहां फायदा ज्यादा दिखा वहाँ बिंदी लगा दी। 

मूल्य आधारित पत्रकारिता में जब पत्रकारिता के मूल्य लगने लगे तो हर खबर की कीमत तय होने लगी। इसी बात को निचोड़ कर रख दिया है प्रो मनोज कुमार ने अपनी पुस्तक “टारगेटेड जर्नलिज्म”  में।

 वैसे भी पत्रकारिता समाज का आईना है, आईने में वही दिखेगा जो समाज में हो रहा है। शिक्षक पढ़ाने से ज्यादा ट्यूशन पर ध्यान दे रहे हैं। डॉक्टर इलाज से ज्यादा जांच रिपोर्ट करवाने पर ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में पत्रकारिता के चरित्र में वही अक्स दिख रहा है, जो समाज में चल रहा है। मशहूर व्यंगकार डॉ संपत सरल कहते हैं कि “पहले अखबार के पाठक हुआ करते थे, अब अखबार के ग्राहक होते हैं। जहां ग्राहक की बात होती है, वहां हर चीज धंधा बन जाती है।”

कुल मिलाकर “लोक प्रकाशन” द्वारा जारी अपने विचार आधारित प्रकाशनों की श्रृंखला में प्रो मनोज कुमार की यह कृति पत्रकारिता की व्यावसायिक मानसिकता से सबको परिचित कराती है। पुस्तक का हर आलेख स्पष्ट करता है, कि जो दिख रहा है वह आपके स्वास्थ्य के लिए चाहे हानिकारक हो,  पर टेस्ट के हिसाब से लाजवाब है।

 समाज में आप जिस तरह का आचरण चाहते है, उसी को परोस कर आपके जायके के अनुरूप पत्रकारिता को बना दिया है। नैतिक मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता सदैव बाजारवाद के खिलाफ थी, अब पत्रकारिता में खुद बाजारवाद आ गया है। 

किताब के बारे में कहा जा सकता है कि इस किताब के माध्यम से पत्रकारिता करने वाली नई पीढ़ी को यह बताया जा सकता है, हम कहां से चले थे और अब किस मुकाम पर पहुंच चुके हैं। नैतिकता को बाजारवाद की चपेट में आने और व्यवसाय में बदलने की पीड़ा को इस पुस्तक के माध्यम से समझा जा सकता है।

 जब देश भर के मंदिर दिव्यता से ऊपर उठकर भव्यता की ओर बढ़ रहे हैं। श्रद्धालुओं की संख्या बतौर पर्यटक गिनी जा रही है, ऐसे में नैतिकता का यह मंदिर भी अपने उद्देश्यों को लेकर टारगेटेड होता जा रहा है। 

कुल मिलाकर प्रो मनोज कुमार की यह किताब पढ़ने के बाद जब भी आप कोई खबर पड़ेंगे, तो आपको खबर पढ़ने के बाद उसमें छुपा हुआ टारगेट सामने दिखने लगेगा। आपको हर खबर पढ़ते समय एहसास कराएगी की हकीकत कुछ और है, खबर में कुछ और टारगेट छुपा हुआ है। जो भी आप पढ़ रहे हैं वह व्यवसायिकता के टारगेट को पूरा कर रहा है और आपके जायके  के अनुसार खबरों की रेसिपी को प्रस्तुत कर रहा है। 

हो सकता है किसी दिन डायबिटीज का मरीज  घर वालों से कह , देखो खबर आई है शुगर का इलाज, गुलाब जामुन खाने में छुपा हुआ है। बाद में पता चले इस खबर को टारगेट शहर के हलवाई ने करवाया था।

यह किताब पाठकों के साथ पत्रकारिता से जुड़े हुए लोगों के लिए बेहतर अध्ययन सामग्री है।

टिप्पणीकार मीडिया अधिकारी और साहित्यकार हैं

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