भारतीय मूल्यबोध से हटेंगे तो फिल्में पिट जाएंगी – अनंत विजय

व्यावसायिकता से विमुख होकर सिनेमा नहीं चल सकता – प्रो. सुधा सिंह

फ़िल्में आधी हक़ीक़त और आधा फ़साना हैं – प्रो. बिमलेंदु तीर्थंकर

18 मार्च 2025, दिल्ली। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित संस्थान के संकाय शोध परियोजना के अंतर्गत एवं हिंदी विभाग के सहयोग से 18 मार्च को ‘भारतीय मूल्यबोध और हिंदी सिनेमा’ विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

संगोष्ठी का शुभारंभ अतिथियों के द्वारा दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। तत्पश्चात शोध परियोजना के प्रधान अन्वेषक तथा हिंदी विभाग में सहायक आचार्य डॉ. धर्मेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा अतिथियों के स्वागत एवं प्रतिष्ठित संस्थान के परिचय से कार्यक्रम को गति मिली। बीज वक्तव्य देते हुए प्रो. बिमलेंदु तीर्थंकर ने कहा कि भारतीय संस्कृति एक गतिशील संस्कृति है, क्योंकि जब भारतीय मूल्यबोध की बात करनी हो तो संस्कृति का उल्लेख लाज़िम हो जाता है। उन्होंने स्वयं को फिल्म समीक्षक की जगह एक दर्शक बताते हुए ये भी कहा कि मैं बतौर दर्शक ही आपको सिनेमा की अवधारणा को मूल्यबोध के संदर्भ में स्पष्ट करूंगा। सिनेमा के संवाद को स्पष्ट करते हुए उन्होंने ‘मुग़ले-आज़म’ को युवाओं का क्रांतिगीत जैसी उपमा दी। पृथ्वीराज कपूर के अभिनय की प्रशंसा करते हुए उन्होंने रेखांकित किया कि जिस प्रकार उन्होंने सम्राट अकबर की भूमिका फिल्म में निभाई है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए वह कम है। अपने संबोधन का अंत उन्होंने इस प्रश्न से किया कि आज इस बात को समझना होगा कि वर्तमान सिनेमा आख़िर किन मूल्यों की वकालत करता है?

फिल्म इतिहासकार और सीएसडीएस के शोधकर्ता डॉ. रविकांत ने सिनेमा के तकनीक पक्ष पर को विशेष महत्व देते हुए कहा कि तकनीक के माध्यम से ही सिनेमा जैसा चमत्कार संभव हो पाया। पहले नाटक बनता है फिर सिनेमा। कुछ सौ वर्षों पूर्व जिसे हम नाटक और सर्कस के रूप में जानते थे, उसे ही तकनीक ने सिनेमा बनाने का अद्वितीय कार्य किया है। इसीलिए इसे संगम माध्यम की भी संज्ञा दी गई है, क्योंकि इसमें टेक्स्ट है, इमेजेज है, ऑडियो व वीडियो है। या यूं भी कहा जा सकता है कि ये अनेक मीडियमों का संगम है। उन्होंने जोर देकर यह भी कहा कि इसके मूल्यों में भक्ति भी सम्मिलित है, क्योंकि जो लोग तीर्थस्थलों पर नहीं जा सकते हैं, वे सिनेमा के माध्यम से ही उन स्थलों को देखते हैं। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो वहां तक पहुंचता है जहां तक अन्य माध्यम की पहुंच नहीं होती। ओटीटी का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि जिस प्रकार पंचायत जैसी सीरीजों ने दर्शकों में अपना स्थान बनाया है, उसको भी हमें स्वीकारना होगा। केवल ये कहकर मुंह नहीं फेरना होगा कि ओटीटी पर तो फूहड़ चीज़ें हैं।

पत्रकार और लेखक श्री अनंत विजय ने अपने संबोधन में भारतीय मूल्यबोध की समझ कैसे विकसित हो, इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट कराया। उन्होंने कहा कि किसी भी चीज़ के मूल्य के बोध को समझने हेतु उस देश की परंपरा को समझना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि परंपरा से हटकर मूल्य का निर्धारण किया ही नहीं जा सकता। विशेषरूप से उन्होंने फिल्म के आरंभ के बारे में कहा कि भारतीय सिनेमा की यही विशेषता रही है कि एक ओर पृथ्वीराज कपूर के फिल्म की शुरुआत शिवलिंग के समक्ष पूजा करते हुए होती है तो वहीं दूसरी ओर महबूब खान के फिल्म की शुरुआत हशिया और हथौड़ा से होती है। सिनेमा को एक पंक्ति में व्याख्यायित करते हुए बताया उन्होंने कि ‘एक राम होते हैं, दूसरी सीता होती हैं और तीसरा रावण।’ वर्तमान दौर की फिल्मों में एक नायक, दूसरी नायिका और तीसरा विलेन होता है। महात्मा गांधी और भगत सिंह को सिनेमा में स्थान नहीं देने की विडंबना को भी अपने वक्तव्य शामिल किया। भारतीय मूल्यबोध में समरसता की बात होती है न कि साम्यता की। यदि आप देखते हैं कि फलाना फिल्म फ्लॉप हो गई तो उसका कारण तलाशने पर यही पता चलता है कि उसमें निर्देशक ने भारतीय मूल्यबोध को ताख पर रख दिया था।

संगोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि शामिल रहे वरिष्ठ प्रोफेसर प्रो. अनिल राय ने कहा कि सिनेमा समाज का आईना होता है। साथ ही उन्होंने कला फिल्म की विशेषताओं पर अपनी बात रखते हुए लोकप्रिय सिनेमा के संदर्भ में कहा कि इसमें बाजारवाद हमेशा से हावी रहा है, क्योंकि इस प्रकार का सिनेमा दर्शकों की रुचि के अनुसार बनाया जाता है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो. सुधा सिंह ने अपने संबोधन में सर्वप्रथम हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध निर्देशक श्याम बेनेगल को नमन किया और उनके सिनेमा के योगदान से परिचित करवाया। आगे उन्होंने यह भी याद दिलाया कि प्रौद्योगिकी के बिना सिनेमा की परिकल्पना अधूरी है और सिनेमा को प्रौद्योगिकी के रूप में देखने का आग्रह भी किया। मास-मीडिया की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि मीडिया समाज को संबोधित करता है क्योंकि सिनेमा उसी मास-मीडिया का अभिन्न अंग भी है। पूरब पश्चिम फिल्म के गीत ‘मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए’ का उदाहरण देते हुए नायिका की पीड़ा को दर्शाया। ये भी कहा कि हम पश्चिमी विचारों को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उससे भी भारतीय सिनेमा को कुछ उपयोगी तत्व मिले हैं। व्यावसायिकता को सिनेमा के लिए महत्वपूर्ण कड़ी बताते हुए उन्होंने उसकी महत्ता से भी रूबरू कराने का काम किया।

इस प्रकार सभी वक्ताओं ने भारतीय मूल्यबोध के व्यावहारिक और सैद्धांतिक पक्षों को उजागर करते हुए अपना उद्बोधन समाप्त किया। आयोजन में हिंदी विभाग से डॉ. प्रदीप कुमार सिंह, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, डॉ. राजीव रंजन गिरि, डॉ. मंजू मुकुल कांबले, डॉ. टीकम चंद मीणा, डॉ. अर्चना रानी, डॉ. आशा, डॉ. सुनील कुमार वर्मा, डॉ. गंगाधर चाटे एवं डॉ. दीपक जायसवाल उपस्थित रहें। कार्यक्रम को सफल बनाने में हिंदी विभाग के शोधर्थियों में सिद्धांत, प्रभाकर, आशीष, प्रत्यूष, अमन, प्रदीप, राम भुआल, राहुल, आसिफ, अभिनंदन, यशवंत, सुरभि, गायत्री और उमेश का विशेष योगदान रहा। कार्यक्रम का समापन डॉ. ऋषिकेश सिंह के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।  (रिपोर्ट लेखन – दिशा ग्रोवर एवं मुसर्रफ)

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