कन्हैया की राजनीति से फिलहाल सबसे बड़ा खतरा ममता बनर्जी को है। राहुल गांधी और सीताराम येचुरी याकि कांग्रेस और लेफ्ट में जो दोस्ती बनी है उसका सर्वाधिक असर पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में होगा। लेफ्ट ने यदि कन्हैया को पश्चिम बंगाल के प्रचार में उतारा तो तृणमूल कांग्रेस के लिए मुस्लिम वोट बांधे रखना टेढ़ा काम होगा। कांग्रेस और लेफ्ट में चुपचाप सीटवार एलायंस बन रहा है। इसका अर्थ मई 2014 के लोकसभा चुनाव आंकड़ों के अनुसार तृणमूल बनाम कांग्रेस-लेफ्ट में कांटे का मुकाबला है। इसमें ममता बनर्जी की जो हल्की बढ़त है वह मुस्लिम वोटों के कारण है।
वह मुस्लिम वोट अब कंफ्यूज होगा। वैसे अपना पहले यह मानना था कि पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव में मुसलमान राज्यवार टेक्टिकल वोटिंग करेंगे। अलग-अलग राज्य में अलग-अलग उस पार्टी को वोट देगें जो भाजपा को हराते हुए सरकार बनाने की स्थिति में दिखेगी।
पर जेएनयू, अफजल गुरु, देशद्रोह, कन्हैया और मीडिया के हल्ला बोल ने मुसलमान के लिए दुविधा बना दी है। कन्हैया से मुसलमानों में लेफ्ट की ब्रांडिंग बढ़ गई है। सो लेफ्ट-कांग्रेस ने कन्हैया को यदि प्रचार में उतार पूरी शिद्दत से पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ा तो ममता बनर्जी को बहुत पसीना बहाना पड़ेगा।
संदेह नहीं कि ममता बनर्जी का फोकस अब मुस्लिम वोटों को पटाने पर होगा। उन्होंने कोई 57 मुस्लिम खड़े किए हैं। दोनों खेमों में मुसलमान वोटों को रिझाने की भारी कोशिश होगी। इससे भाजपा को फायदा होना है। यदि भाजपा ने कन्हैया, जेएनयू में अफजल की बरसी में भारत विरोधी नारों के टेप चलवा दिए तो वह हिंदू वोट वापिस अपनी तरफ मोड़ सकती है। पहले अपना हिसाब था कि मई 2014 में पश्चिम बंगाल में मोदी लहर में भाजपा को जितने वोट मिले थे उसका आधा भी भाजपा को नहीं मिलेगा। भाजपा प्रदेश में किसी नेता को प्रोजेक्ट नहीं कर पाई थी। अब स्थिति बदली है। भाजपा मई 2014 के वोटों को अपनी तरफ फिर खींच सकती है। यह भी लग रहा है कि लेफ्ट और कांग्रेस के याराना से कहीं केरल में इस बार भाजपा का खाता नहीं खुल जाए।
वोट बैंक की राजनीति से किसी का लाभ नहीं. देश को विकास की राजनीति की आवश्यकता है.