अमरपाल सिंह वर्मा
पंजाब के बठिंडा जिले की एक ग्राम पंचायत ने किसी की मृत्यु के उपरांत अंतिम अरदास के मौके पर आयोजित किए जाने वाले भोग कार्यक्रम में जलेबी-पकौड़े जैसे पकवान बनाने पर रोक लगाने का निर्णय किया है। रामपुरा फूल के निकट ढिक्ख गांव की पंचायत ने हाल में यह कदम फिजूलखर्ची को रोकने और शोक रस्मों में सादगी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उठाया है। पंचायत ने आदेश दिया है कि इस नियम का उल्लंघन करने वालों पर 21,000 रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा। जुर्माने की रकम गांव के बुनियादी ढांचे की मरम्मत और जरूरतमंद परिवारों की सहायता में खर्च की जाएगी।
इस पंचायत का यह फैसला न केवल प्रशंसनीय है बल्कि यह सामाजिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल भी कही जा सकती है। यह निर्णय समाज में व्याप्त उस परंपरा पर सवाल उठाता है, जो मृत व्यक्ति की आत्मिक शांति के नाम पर मृत्युभोज पर भारी-भरकम खर्च करा कर परिवार को आर्थिक और मानसिक रूप से तोड़ देती है। इस पंचायत ने भी इस बात पर जोर दिया कि शोक रस्मों में दिखावे और फिजूलखर्ची से परिवारों पर आर्थिक बोझ बढ़ता है।
मृत्युभोज एक प्रथा है जो भारत के विभिन्न हिस्सों में प्राचीन समय से चली आ रही है। इसमें शोक संतप्त परिवार को मृत्यु के बारहवें, तेरहवें दिन या अन्य अवसरों पर सैकड़ों और कभी-कभी तो हजारों लोगों को भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है। इस प्रक्रिया में लाखों रुपये खर्च हो जाते हैं। कई बार गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार इस परंपरा को निभाने के लिए कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। पंजाब में किसी समय मृतक की अंतिम अरदास के समय रिश्तेदारों, निकट संबंधियों के लिए सादे भोजन का प्रबंध किया जाता था लेकिन हाल के सालों में इसने भव्य रूप ले लिया है। अंतिम अरदास के समय स्टॉलों पर विभिन्न प्रकार के भोजन सजे देखकर यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि हम किसी की अंतिम अरदास में शामिल होने आए हैं या फिर किसी शादी की रौनक बढ़ाने?
हमारे समाज में मृत्युभोज एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसका सबसे बड़ा नकारात्मक प्रभाव आर्थिक स्तर पर पड़ता है। एक ओर जहां मृतक का परिवार अपने प्रियजन को खोने के गम से जूझ रहा होता है, वहीं दूसरी ओर उन्हें समाज के दबाव में आकर भारी खर्च उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। आजकल ‘अपनी हैसियत का बखान’ करने के लिए भी मृत्युभोज पर भारी-भरकम खर्च किया जाने लगा है। पंजाब में समय-समय पर रिश्तेदारी में अंतिम अरदास में शामिल होने के लिए जाना होता है तो गुरुद्वारों में लोगों को पंक्तिबद्ध होकर लंगर छकने के बजाय ‘स्टैंडिग लंच’ करते देख मन को गहन पीड़ा पहुंचती है। धनवान लोग अपनी अमीरी का बखान करने के लिए लाखों रुपये खर्च कर देते हैं लेकिन कई बार ऐसे लोगों को भी मृत्युभोज पर हैसियत से अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है, जो इसके लिए समर्थ नहीं है। इस वजह से न केवल ऐसा परिवार को कर्ज के जाल में फंसता है, बल्कि उनकी भविष्य की योजनाएं भी इस कारण गड़बड़ा जाती हैं ।
अंतिम अरदास के लिए आयोजित भोग में भव्य खानपान पर लाखों का खर्च सामाजिक असमानता को भी बढ़ावा दे रहा है। अमीर परिवार इसे शान-शौकत के लिए खर्च करते हैं, जबकि गरीब परिवार इसे अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार निभाने का प्रयास करते हैं। नतीजतन, समाज में प्रतिस्पर्धा और दिखावे की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इस हालात में ढिक्ख गांव ग्राम पंचायत का यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सामाजिक सुधार की दिशा में एक मजबूत संदेश देता है। इस प्रकार के फैसले से गांव के उन परिवारों को राहत मिलेगी जो मृत्युभोज के भारी खर्च का बोझ नहीं उठा सकते।
आज एक गांव ने इस तरह की सकारात्मक पहल की है। कल इससे अन्य गांव भी प्रेरणा लेंगे। ढिक्ख गांव ने इस रोक के माध्यम से समाज को यह संदेश दिया है कि शोक संतप्त परिवारों पर अनावश्यक दबाव डालना न केवल गलत है, बल्कि इसका प्रतिकार भी किया जाना चाहिए। पंचायत के इस फैसले से न केवल गरीब परिवार फिजूलखर्ची के बोझ से बचेंगे बल्कि इससे संवेदनशीलता को बढ़ावा मिलेगा। यह फैसला मृतक के परिवारों को अपने प्रियजनों के साथ बिताए गए पलों को याद करने और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का अवसर देगा।
पंचायत का यह निर्णय सराहनीय है लेकिन इस निर्णय की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे लागू करने में ग्राम पंचायत कितनी सख्ती और ईमानदारी दिखाती है। यह फैसला समाज सुधार की दिशा में अच्छा कदम है। इसलिए इसकी जिम्मेदारी केवल पंचायत पर ही नहीं थोपी जा सकती। समाज के लोगों को भी इस दिशा में आगे आकर सहयोग करना होगा। इस तरह का समाजोपयोगी कुरीति को दूर करने का फैसला करने वाली पंचायत को प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है। अन्य गांवों को भी इस दिशा में जागरूकता अभियान चलाकर इनमें स्थानीय धार्मिक और सामाजिक नेताओं की भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए। राज्य सरकारों और अन्य पंचायतों को भी इस मॉडल को अपनाने पर विचार करना चाहिए। यदि सभी जगह इस प्रकार के कदम उठाए जाते हैं तो इससे एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।
मृत्युभोज जैसी परंपराएं समाज के कमजोर वर्गों पर अनावश्यक दबाव डालती हैं और उन्हें कर्ज के जाल में धकेलती हैं। ऐसे में बठिंडा जिले की ग्राम पंचायत का यह निर्णय समय की मांग है और इसे पूरे देश में लागू करने की आवश्यकता है। यह कदम न केवल आर्थिक रूप से बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी एक सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है।
अमरपाल सिंह वर्मा